विकास के कुछ ऐसे अनिवार्य पक्ष हैं जो बहुत महत्वपूर्ण होते हुए भी उपेक्षित हैं। ऐसा ही एक पक्ष है विभिन्न समुदायों की एकता। विकास की कोई भी योजना या कार्यक्रम हो, प्राय: सामुदायिक भागीदारी से उसे कार्यान्वित करने की बात जरूर की जाती है, लेकिन जिन समुदायों की भागीदारी प्राप्त करने की चेष्टा है, उनमें आपसी एकता और एकजुटता, आपस में बराबरी के स्तर पर मिल-जुलकर सहयोग करने की स्थिति है या नहीं, इस पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता है। कुछ आदिवासी गांवों या अन्य विशिष्ट स्थितियों वाले गांवों को छोड़ दें, तो अधिकांश गांवों में जातिगत भेदभाव की विकराल समस्या है। चुनावों के समय जातिगत के साथ पंचायत और व्यापक राजनीति के मुद्दे मिलकर ऐसे भेदभाव और गुटबाजी को और घातक बना देते हैं और कई जगहों पर यह स्थितियां आक्रामक व हिंसक रूप धारण कर लेती हैं। अनेक गांवों में एक या कुछ अधिक धनी व्यक्तियों जैसे सामंतों, ठेकेदारों, अपराधियों आदि का दबदबा होता है और सरकारी तंत्र और प्रमुख राजनीतिक दलों के संबंध गांव के इन शक्तिशाली व असरदार व्यक्तियों से अधिक नजदीकी के होते हैं। ऐसे में सामुदायिक भागीदारी की अवधारणा पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक है।
इस स्थिति में यह सवाल उठना लाजिमी है कि गांव समुदाय व सामुदायिक भागीदारी से ठीक-ठीक अभिप्राय क्या है। यदि सामुदायिक भागीदारी प्राप्त करने की कार्यवाही यहां तक सीमित है कि बस गांव के गिने-चुने सामंती प्रवृत्ति के परिवारों या अन्य धनी परिवारों से सहयोग ले लिया जाए, तो यह सामुदायिक भागीदारी का सीमित ही नहीं, बल्कि विकृत रूप माना जाएगा क्योंकि जिन गरीब लोगों के नाम पर विकास का एजेंडा प्रचारित होता है, वे निर्धन परिवार इन असरदार व धनी व्यक्तियों का शोषण सहने को मजबूर हैं।
सामुदायिक भागीदारी की इस संकीर्ण समझ के कारण ही प्राय: सही अर्थों में सामुदायिक भागीदारी आगे बढ़ ही नहीं पाती है और यही हमारी विकास योजनाओं व कार्यक्रमों की विफलता का एक प्रमुख कारण है। उन गांवों में स्थिति समुदाय की भागीदारी की दृष्टि से कहीं बेहतर है जहां लगभग सभी परिवार छोटे व मध्यम किसान हैं। और यदि उनका जातीय आधार भी एक-सा है तो समुदाय के स्तर पर एकता स्थापित करना और पूरे समुदाय की भागीदारी प्राप्त करना अधिक सरल हो जाता है। पर कभी-कभी इन गांवों में भी पारिवारिक झगड़ों व गुटबाजी के कारण यह संभावना कम हो जाती है। अधिकांश गांवों में अनेक जातियां एकसाथ रहती हैं। कहीं जातीय स्तर पर टकराव होता है तो कहीं भेदभाव। आर्थिक व सामाजिक विषमता कई स्तरों पर मौजूद होती है और गांवों के न्यायसंगत विकास में प्राय: यही सबसे बड़ी बाधा है। इस विषमता को कम किए बिना गांव समुदाय की न्यायसंगत पहचान नहीं बन सकती है और न ही न्याय-आधारित सामुदायिक भागीदारी विकास कार्यक्रमों में प्राप्त हो सकती है।
इसलिए यदि सामुदायिक एकता व एकता आधारित भागीदारी को सही व न्यायसंगत अर्थों में प्राप्त करना है तो सभी स्तरों पर विषमता को मिटाना जरूरी है। विषमता नहीं होगी या कम होगी तो गरीबी भी कम होगी। जाने-माने विशेषज्ञों व उनके द्वारा किए गए अध्ययनों ने विषमता कम करने को गरीबी कम करने का बहुत असरदार उपाय बताया है। इसके बावजूद हाल के वर्षों में अनेक देशों की सरकारों ने विषमता बढ़ाने वाली नीतियां अपनाई हैं। इन नीतियों का विरोध जरूरी है। यह एक अजीब विसंगति है कि एक ओर गरीबी कम करने की बातें तो बहुत की जाती हैं, गरीबी कम करने के लिए ढेरों सरकारी योजनाएं लाई जाती हैं, पर साथ में विषमता को भी बढ़ने दिया जाता है जिससे गरीबी कम करने का आधार ही कमजोर हो जाता है। अत: अब इस बारे में दृढ़ राय बना लेनी चाहिए कि गरीबी कम करने के लिए विषमता को कम करना व समता लाना जरूरी है।
जब ग्रामीण समाज अधिक समता आधारित बनेगा तो उसकी न्यायसंगत एकता के आधार पर विकास योजनाओं में (ऐसी योजनाएं जो समता व न्याय से मेल रखती हैं) वास्तविक, सच्ची सामुदायिक भागीदारी बढ़ने की संभावनाएं निश्चित तौर पर बहुत बढ़ जाएंगी और यही ग्रामीण विकास योजनाओं की सफलता के लिए सबसे जरूरी है। इस समता, एकता व उत्साहवर्धक भागीदारी की राह पर बढ़ने के लिए सबसे बड़ी जरूरत है कि गांवों के जो सबसे निर्धन व कमजोर परिवार हैं, उनके लिए संसाधनों और आजाविका के आधार को मजबूत किया जाए। जो भूमिहीन हैं, उनके लिए कुछ भूमि की व्यवस्था करना आवश्यक है। इस बारे में प्राय: कहा जाता है कि अब गांवों में ऐसी जमीन बची ही कहां है जो गरीबों को दी जा सके। लेकिन अनेक देशों के अनुभव से पता चलता है कि जहां वास्तविक इच्छाशक्ति हो वहां प्राय: कुछ न्यूनतम कृषि भूमि की व्यवस्था गांव के सभी मूल परिवारों के लिए करना संभव होता है। अनेक देश इसके लिए सीलिंग कानून या हदबंदी कानून बनाते हैं। इन कानूनों से कृषि भूमि स्वामित्व की अधिकतम सीमा तय की जाती है और इससे अधिक जो भूमि होती है, वह भूमिहीनों के लिए प्राप्त की जाती है।
कानून प्रभावी नहीं
हमारे देश में भी कृषि भूमि सीलिंग कानून बनाए गए, पर इनका क्रियान्वयन ठीक से नहीं किया गया। इन कानूनों के अंतर्गत भूदान आंदोलन भारत का अपना एक विशिष्ट प्रकार का गांधीवादी आंदोलन था, जिसमें स्वेच्छा से दी गई भूमि के आधार पर भूमिहीनों में भूमि वितरण का प्रयास किया गया। एक समय इस आंदोलन ने विश्व स्तर पर ध्यान आकर्षित किया, पर कुछ समय बाद यह कमजोर पड़ गया। एक अन्य प्रयास हमारे देश में यह हुआ कि जो गांव समाज की खाली जमीन है, उसे भूमिहीनों में वितरित किया जाए। कुछ ऐसी भूमि भी है तो इस समय खाली तो पड़ी हैं, पर कृषि के अनुकूल नहीं है। ऐसी काफी जमीन वन-विभागों के कब्जे में भी है। ऐसी भूमि की घेराबंदी कर इसे स्थानीय वन-भूमि के अनुरूप हरा-भरा होने का अवसर देना चाहिए। इस दौरान निर्धन भूमिहीन परिवारों को देख-रेख की मजदूरी सरकार की ओर से निश्चित मासिक आय के रूप में मिलनी चाहिए। बाद में इन वृक्षों से लघु वन उपज (चारा, ईंधन, बीज, फल, फूल, पत्ती, बांस) आदि प्राप्त करने का अधिकार इस रूप में मिल जाना चाहिए जिससे उनकी आजीविका टिकाऊ तौर पर पनप सके।
- रजनीकांत पारे