उपलब्धियों पर भारी चुनौतियां
02-Jul-2020 12:00 AM 1090

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने निर्णयों से भले ही एक कुशल प्रशासक बनकर उभरे हैं, लेकिन अभी भी उनके सामने चुनौतियों का पहाड़ है। क्योंकि कमजोर विपक्ष होने के कारण उन्हें अभी तक अपनी गलतियों का अहसास नहीं हो पाया है। उनकी उपलब्धियों पर चुनौतियां भारी पड़ रही हैं।

वर्तमान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर मेहरबान हो सकता है लेकिन इतिहास उनके प्रति बहुत निष्ठुर रहेगा। मोदी अपने तमाम अनुचित फैसलों को लेकर बचते आ रहे हैं, जिनमें बड़ी भूलें भी शामिल हैं और आने वाले सालों में भी शायद वो यही करते रहेंगे क्योंकि दयालु मतदाता अपने सम्मान से उन्हें नवाजते रहेंगे और उनका दिखावटी अंदाज बाकी हर चीज पर हावी होता रहेगा। लेकिन इतिहास मोदी को एक ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में याद रखेगा, जिसे एक जबर्दस्त जनादेश मिला लेकिन वो राष्ट्र निर्माण में कोई ठोस योगदान देने में नाकाम रहा। जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गलवान पर बयान के लिए प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना की, तो उनका वो मशहूर बयान याद आ गया, जो उन्होंने 2014 में अपने कार्यकाल के अंत की तरफ दिया था- 'समकालीन मीडिया या संसद के विपक्षी दलों के मुकाबले, इतिहास मुझ पर ज्यादा मेहरबान रहेगा।’

मूर्खता भरी नोटबंदी से लेकर अनुच्छेद-370 को कमजोर करने के फैसले को जबर्दस्ती थोपने और उसके बाद कश्मीर में सख्त शिकंजा कसने और विवादास्पद व फूट डालने वाले कानून लाने तक, मोदी ने पूरे राजनीतिक माहौल को खराब कर दिया है और अपने पड़ोसियों के साथ भारत के रिश्तों को भी बिगाड़ दिया है। प्रधानमंत्री ने ऐसे बहुत से मील के पत्थर लगा दिए हैं, जो उनका इतिहास लिखे जाते समय, उनकी चापलूसी करते नहीं देखेंगे। इसमें कोई शक नहीं है कि मोदी का शुमार, सबसे लोकप्रिय नेताओं में होता है। उनके जैसा अनुकरण आजाद भारत में शायद पहले कभी नहीं देखा गया। चुनावों को कवर करने और दूसरे आयोजनों के सिलसिले में मैंने काफी सफर किया है और उनकी जबर्दस्त लोकप्रियता देखी है। ये लोकप्रियता हर जेंडर, हर जगह और हर सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि में मिलती है।

जबर्दस्त साख और लोगों के साथ जुड़ने की विलक्षण क्षमता ने ही मोदी को इस स्थान पर बिठाया हुआ है और बिठाए रखेगी। उनकी गलतियों से कोई फर्क नहीं पड़ता। विपक्ष के तीखे हमले उनके कुशल अभिनय के सामने फीके पड़ जाते हैं और वो सुनिश्चित करते हैं कि चीजों को घुमाने की उनकी कला, बड़ी से बड़ी चुनौतियों पर भारी पड़ जाती है। अभी तक किसी भी चीज ने मोदी को क्षति नहीं पहुंचाई है- चाहे वो नवम्बर 2016 को एक ही बार में, नोटबंदी का मूर्खता भरा फैसला हो या उसके कुछ समय बाद ही, बिना सोचे समझे जल्दबाजी में जीएसटी लागू करना हो, दोनों का ही हर वर्ग के मतदाताओं पर विपरीत प्रभाव पड़ा। और फिर भी, जब भी मोदी पर हमला होता है, वो और मजबूत हो जाते हैं। कोई इस बात को नहीं भूल सकता कि 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले, कैसे पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का चौकीदार चोर है और राफेल सौदे में भ्रष्टाचार का आरोप, जो मोदी पर सीधा हमला था, उल्टे पड़ गए।

बिना कुछ सवाल पूछने वाले मतदाता, जो प्रधानमंत्री की कही कुछ भी बात मान लेते हैं और एक बिखरा हुआ, बेमेल और अक्सर डरा हुआ विपक्ष, मोदी की सबसे बड़ी ताकत रहे हैं। इसलिए वर्तमान, प्रधानमंत्री पर मेहरबान है। लेकिन भविष्य में उन्हें किस चीज के लिए याद किया जाएगा और वो अपने पीछे क्या विरासत छोड़कर जाएंगे? बहुत से प्रतिकूल नीतिगत फैसलों में, खासकर आर्थिक मोर्चे पर, नोटबंदी, और उसके बाद 'त्रुटिपूर्ण’ और जल्दबाजी में लाया गया जीएसटी, लिस्ट में सबसे ऊपर होंगे, जिनके नकारात्मक असर अर्थव्यवस्था में अभी तक देखे जा रहे हैं। जब मोदी ने उन्हें बड़े आर्थिक सुधार बताकर देश के सामने पेश किया, तो उनका उद्देश्य क्रमश: काले धन को कम करना और अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था को औपचारिक रूप देना था लेकिन सच्चाई ये है कि वो उस अर्थव्यवस्था पर दोहरी मार थी, जो उस समय तक ठीक से चल रही थी। वो उनका पहला कार्यकाल था। अपने दूसरे कार्यकाल में, जहां वो और भी बड़े जनादेश के साथ लौटे थे, मोदी सरकार ने कई ऐसे कानून पारित किए, जिन्होंने भारत के सामाजिक ताने-बाने में तनाव पैदा कर दिया और उसमें ऐसा ध्रुवीकरण कर दिया, जैसा पहले कभी नहीं हुआ।

मोदी को उस बदनामी के लिए याद किया जाएगा कि उन्होंने एक ऐसी पार्टी की सरकार की अगुवाई की, जिसने तमाम राज्यों में ध्रुवीकरण की राजनीति की। इतिहास नहीं भूलेगा जब अमित शाह ने गैर-कानूनी प्रवासियों की तुलना 'दीमकों’ से की और कहा कि उन्हें बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया जाएगा। उस समय मोदी थे, जो भारत के प्रधानमंत्री थे। इतिहास मोदी पर मेहरबान नहीं रहेगा, क्योंकि उन्होंने असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को, जातीय मुद्दे से सांप्रदायिक मुद्दे में तब्दील कर दिया या विवादास्पद नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लेकर आए। तीन तलाक कानून, आरटीआई और यूएपीए जैसे कानूनों में संदेहास्पद बदलाव और 'बाहरी’ को लेकर कट्टर राष्ट्रवाद- ये सब दर्शाते हैं कि कैसे मोदी सरकार का पूरा जोर, सिर्फ अपने संकुचित विजन को पूरा करने पर रहा है। कोविड संकट अभूतपूर्व भी है और निष्ठुर भी, लेकिन मोदी सरकार का श्रम संकट से निपटना, उसकी लापरवाही और राज्यों के ऊपर हावी होकर, संघीय ढांचे को कमजोर करने की उसकी कोशिश पर, हमेशा सवाल उठते रहेंगे।

सरकार और भाजपा के अंदर प्रतिभा की कमी और दूसरी पीढ़ी के ठोस नेताओं को तैयार करने या योग्य लोगों को रोके रखने की उनकी असमर्थता भी, मोदी की सबसे बड़ी कमजोरियां रही हैं। मोदी ने भारत की विदेश नीति को जिस तरह से संभाला है, वो भी उन्हें एक खराब स्थिति में दिखाता है। चाहे वो चीन के साथ एलएसी पर चल रहा गतिरोध हो, जिसमें 20 भारतीय सैनिक मारे गए हैं या लड़ाकू नेपाल का इकतरफा ढंग से अपना नक्शा बदलकर, भारत के इलाके को उसमें दिखाना हो या फिर कश्मीर में सुरक्षा बलों पर हो रहे निरंतर हमले हों, भारत को अपने पड़ोसियों से जितनी लगातार चुनौतियां अब मिल रही हैं, उतनी पहले कभी नहीं मिलीं।

सर्वदलीय बैठक में गलवान पर मोदी के बयान ने हंगामा खड़ा कर दिया, जो इसे और भी दर्शाता है कि वो मतदाताओं को खुश करने में लगे राजनेता की तरह सोचते हैं, बजाय ऐसे लीडर के जो भौगोलिक और सामरिक नजरिए से सोचता हो। बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे ने बांग्लादेश के साथ रिश्तों पर असर डाला है जबकि राजपक्षा बंधुओं की अगुवाई में, श्रीलंका के रिश्ते भी भारत के साथ बहुत मैत्रीपूर्ण नहीं हैं और वो चीन के साथ निकटता के लिए जाना जाता है।

ऐसा नहीं कहा जा सकता कि मोदी ने, कुछ भी हासिल नहीं किया है। उनके पहले कार्यकाल में रखी गई कल्याण की बुनियाद- ग्रामीण आवास मुहैया कराने से लेकर कुकिंग गैस कनेक्शंस, गांवों में बिजली, स्वास्थ्य बीमा, स्कीमों को लागू करने में आ रही खामियां को दूर करने के लिए आधार पर जोर और गरीबों तक लाभ पहुंचाने के लिए सामाजिक-आर्थिक जातीय गणना का मजबूती से इस्तेमाल- ये सभी नीतिगत कदम बहुत लोकप्रिय, उपयोगी और ठोस साबित हुए हैं। कूटनीतिक रूप से, भारत-अमेरिका के बीच बढ़ते रिश्ते, मोदी सरकार की विदेश नीति की एक प्रमुख उपलब्धि रही है। 2016 में सीमा पार हुई सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 में बालाकोट हवाई हमले ने भी मोदी की ताकत को बढ़ाया है। लेकिन ऐसा लगता है कि कल्याण और शासन पर मोदी सरकार का फोकस, दूसरे कार्यकाल में गायब ही हो गया है। पिछले एक साल में, ज्यादा अहम मुद्दों को छोड़कर, मोदी सिर्फ बहुसंख्यकवाद और राष्ट्रवाद के अपने संकीर्ण विजन को पूरा करते और उन ऐतिहासिक मुद्दों को खत्म करते दिखाई दिए हैं, जो उनके प्रमुख मतदाता वर्ग के लिए महत्व रखते हैं।

मोदी शायद अभी कुछ और समय तक चुनाव जीतते रहेंगे लेकिन वोट पाने की अपनी कमाल की क्षमता के अलावा, दीर्घकाल में उन्हें किस चीज के लिए याद किया जाएगा? ये वो सवाल है जो मोदी के सामने खड़ा होगा। अगर वो चाहते हैं कि इतिहास उन्हें एक राष्ट्र-निर्माता के रूप में याद रखे, न कि सिर्फ एक चुनाव जीतने वाली और धारा प्रवाह बोलने वाली मशीन की तरह, तो उन्हें अपना अंदाज बदलना होगा। लेकिन तमाम तरह के बदलाव और क्रांतिकारी निर्णय के बाद भी मोदी की छवि राष्ट्र निर्माता की नहीं बन पाई है। अब देखना यह है कि वे आगे किस तरह के कदम उठाते हैं।

अगली चुनावी चुनौतियां

महामारी का प्रकोप बढ़ने और लॉकडाउन की तमाम कमियों के बीच भाजपा और मोदी को इसी साल बिहार और अगले साल पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल जैसे अहम राज्यों के विधानसभा चुनावों का सामना करना है। बिहार और बंगाल भाजपा के लिए अहम मुकाबले हो सकते हैं और वह वहां की सत्ता हासिल करने की कोशिश करेगी। यह इसलिए भी जरूरी है कि भाजपा लगातार कई राज्य हार चुकी है या जैसे-तैसे जीती है या फिर ऑपरेशन कमल के जरिए सत्ता हथियाई है। यह भी गौरतलब है कि दूसरे कार्यकाल में कश्मीर, सीएए जैसी कथित उपलब्धियां महाराष्ट्र और हरियाणा में लोगों को आकर्षित नहीं कर पाई थीं। यही वजह है कि महाराष्ट्र में विपक्षी गठजोड़ को अस्थिर करने की सुगबुगाहटें भी तेज हैं। बहरहाल, अब देखना है कि मोदी का करिश्मा कितना काम करता है। लेकिन पहला साल तो उसके लिए मिला-जुला रहा है। जहां तक पार्टी का मसला है तो वहां यह साफ है कि भाजपा में या मंत्रिमंडल में केंद्रीय नेतृत्व के फैसले ही सुप्रीम हैं। अगर आप केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्यों की सक्रियता और फैसलों में भागीदारी का आंकलन करें, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के फैसलों की छाप ही आपको नजर आएगी। यही हाल उनकी पार्टी भाजपा का है। जेपी नड्डा अध्यक्ष तो बन गए हैं लेकिन कमान पूरी तरह उनके हाथ में है, यह कहना जल्दबाजी होगी।

आर्थिक बहाली के उपायों का टोटा

आर्थिक मोर्चे पर जहां सरकार को तेजी से काम करना चाहिए था, वहां उसके फैसले कारगर साबित नहीं हुए। पांच जुलाई को 2019-20 के लिए पूर्ण बजट पेश किया गया और उसमें देश की अर्थव्यवस्था को 2024 तक पांच ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य घोषित करने के साथ ही बजट को इसे हासिल करने का रोडमैप बताया गया। हालांकि, यह बजट फरवरी, 2019 में पेश अंतरिम बजट का विस्तार ज्यादा और नया बजट कम था। इसके बाद फरवरी, 2020 में चालू साल (2020-21) का बजट पेश किया गया, जिसमें अर्थव्यवस्था को मंदी से उबारने की कोई मजबूत रणनीति नहीं दिखी। इसके राजस्व और विकास दर के लक्ष्यों पर भी सवाल खड़े हुए, क्योंकि पिछले वित्त वर्ष से ही आर्थिक विकास दर गिरावट के नए रिकार्ड भी बना रही है। वहीं, 25 मार्च से लागू देशव्यापी लॉकडाउन ने आर्थिक मोर्चे पर स्थिति को संभालने की नई चुनौती खड़ी कर दी है। रिजर्व बैंक ने भी मान लिया है कि चालू साल में अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आ गई है। एसबीआई रिसर्च के ताजा अनुमान में कहा गया है कि इस सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में पांच फीसदी की गिरावट आ सकती है जबकि पहली तिमाही में यह गिरावट 40 फीसदी की हो सकती है। तमाम रेटिंग एजेंसियां और वैश्विक संगठन इसी तरह के अनुमान जारी कर रहे हैं। कोविड-19 महामारी से पैदा आर्थिक संकट ने करोड़ों लोगों को बेरोजगार कर दिया है और तमाम कंपनियां बंद होने की कगार पर हैं।

 - दिल्ली से रेणु आगाल

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