उपेक्षा का दंश
03-Sep-2020 12:00 AM 464

 

भारत विश्व का सबसे युवा देश है। लेकिन यहां की राजनीति में अभी भी बुजुर्गियत हावी है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि जब भी कोई महत्वाकांक्षी युवा नेता आगे बढ़ने की कोशिश करता है तो उसे उपेक्षा ही हाथ लगती है। खासकर कांग्रेस में तो यह परंपरा सी बन गई है। मप्र कांग्रेस में युवा विधायकों और नेताओं की भरमार है, लेकिन संगठन में वे हाशिए पर हैं। शायद यही वजह है कि कांग्रेस जनप्रिय नहीं हो पा रही है।

देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस दिन पर दिन अपना वजूद खोती जा रही है। इसकी वजह यह है कि पार्टी में युवा नेतृत्व को हमेशा हाशिए पर रखा जाता रहा है। कांग्रेस का इतिहास रहा है कि पार्टी में हमेशा से ही बुजुर्गों के हाथ में नेतृत्व रहता है, सिर्फ कुछ अपवादों को छोड़ दें तो। अगर मप्र की बात करें तो पिछले दो दशक के दौरान अरूण यादव ही एकमात्र ऐसे नेता रहे जिनको युवा नेतृत्व के तौर पर पार्टी की कमान सौंपी गई थी। यानी यहां युवा नेतृत्व हाशिए पर रहा है। युवा नेताओं की उपेक्षा, गुटबाजी और हवाहवाई नेताओं के बढ़ रहे महत्व के चलते 15 साल बाद सत्ता में आई कांग्रेस 15 माह में ही सत्ता से बाहर हो गई। यही नहीं भारतीय राजनीति का सबसे चमकदार चेहरा ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस को अलविदा कह दिया। लेकिन पार्टी ने इससे भी सबक नहीं लिया। इसका परिणाम यह हुआ है कि कांग्रेस के अन्य युवा विधायक भी नेतृत्व की चाह में कुलबुलाने लगे हैं।

कांग्रेस के एक वरिष्ठ विधायक कहते हैं कि बिल्ली को हमेशा छींका टूटने का इंतजार रहता है। लेकिन अब छींका टूटने का इंतजार करने की जगह पर छींका तोड़ने की जोर आजमाइश भी करनी पड़ती है। कांग्रेस की अदूरदर्शी सोंच की वजह से सत्ता का छींका टूटकर भाजपा के पक्ष में चला गया है। शायद यही वजह है कि पार्टी का युवा वर्ग पद और सम्मान पाने के लिए आवाज उठाने लगा है। बिल्ली की तरह छींका टूटने का इंतजार करने की जगह वह छींका तोड़ने के लिए उछलकूद करने लगे हैं। पार्टी के एक पदाधिकारी कहते हैं कि यह कांग्रेस का पुराना मर्ज है कि पार्टी में युवा नेतृत्व को हाशिए पर रखा जाता है। वह कहते हैं कि अब समय बदल गया है। भाजपा में युवाओं को आगे लाया जा रहा है। जबकि कांग्रेस में अभी भी बुजुर्ग नेताओं को ही महत्व दिया जा रहा है। लेकिन इस समय का युवा अपने मान-सम्मान के लिए सारी बाधाएं तोड़ने में देर नहीं करता है। इसलिए पार्टी आलाकमान को नीति और नीयत में बदलाव करने की जरूरत है।

कांग्रेस का इतिहास ही बिखराव का रहा है। पार्टी में उचित पद और सम्मान नहीं मिलने के कारण कई नेताओं ने अलग होकर नई पार्टी का गठन किया, जो आज कांग्रेस को चुनौती दे रही है। एक बार फिर कांग्रेस ऊहापोह में है। पार्टी में पुराने और नए नेताओं के बीच गहरी खाई बन गई है। युवा तुर्क विद्रोह के मूड में हैं और उन्हें संभालने तथा राज्यों में पार्टी को मजबूत करने की कोई कोशिश नहीं हो रही है, या ये युवा नेता जरूरत से ज्यादा महत्वाकांक्षी हो गए हैं। आज के माहौल में, जबकि कांग्रेस की एक विपक्ष के रूप में देश में सबसे ज्यादा जरूरत है; यह पार्टी व्यापक जनाधार होते हुए भी एक तरह से अजीब-सी शून्यता की तरफ बढ़ रही है। कांग्रेस के भीतर मंथन का यह दौर क्या देश के सामने एक नई और ऊर्जावान कांग्रेस ला पाएगा? या यह पार्टी एक इतिहास बनकर रह जाएगी? क्या कांग्रेस की ओवरहॉलिंग की जबरदस्त जरूरत है? इस तरह के सवाल राजनीतिक और प्रशासनिक वीथिकाओं में उठ रहे हैं।

गौरतलब है कि 2018 में जब मप्र में कांग्रेस सरकार की कमान बुजुर्ग कमलनाथ को दी गई, तब से ही कांग्रेस में नई पीढ़ी की बगावत की आग सुलगने लगी। इसका परिणाम यह हुआ कि ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे युवा नेता को पार्टी छोड़नी पड़ी। सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने से पार्टी में भगदड़ सी मच गई है। वहीं कांग्रेस के युवा विधायकों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा उबाल मारने लगी है। पिछले कुछ माह में युवा विधायकों ने पार्टी नेतृत्व पर सवाल उठाए हैं। वहीं कुछ विधायक पार्टी का नेतृत्व करने के लिए अपनी इच्छा जाहिर कर चुके हैं।

कांग्रेस में युवा नेताओं की एक लंबी कतार है। हालांकि इनमें सबसे ज्यादा चर्चा में वही रहते हैं, जो पहले से राजनीतिक परिवारों से हैं। इससे भी दिलचस्प बात यह है कि इनमें से ज्यादातर राहुल गांधी के समर्थक रहे हैं। मप्र में कांग्रेस से ज्योतिरादित्य सिंधिया के जाने के बाद से उनकी जगह पाने के लिए कई युवा नेता सपना देख रहे हैं। प्रदेश कांग्रेस के एक युवा विधायक कहते हैं कि सियासत में खुद जगह बनाने के परिश्रम से आसान है खाली स्थान में अवसर तलाशना। स्वाभाविक है इस कोशिश में मुकाबला अपनों से हो जाए, फिर जो हालात बनते हैं, वह इन दिनों मप्र कांग्रेस की तस्वीर है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में जाने से कांग्रेस का युवा चेहरा बनने की होड़ सीधे मुख्यमंत्री पद की दावेदारी तक पहुंच गई है। पार्टी में नई पीढ़ी भी उसी पुराने मर्ज का शिकार होती जा रही है, जिसके चलते मप्र में कई क्षत्रपों में टकराव होता रहा। पार्टी कमजोर होती गई। सत्ता की राह 2018 में तभी आसान बनी, जब पार्टी के कई गुटों को प्रभावहीन कर दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया साथ आए। लेकिन सिंधिया को उचित स्थान और सम्मान नहीं मिलने के कारण पार्टी को एक बड़ी बगावत का सामना करना पड़ा।

सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने के बाद से पार्टी के युवा नेताओं की महत्वाकांक्षा उभरकर सामने आने लगी है। पिछले दिनों सड़क से सोशल मीडिया तक कांग्रेस के युवा नेताओं को लेकर जो तमाशा हुआ, वह संकेत है कि आने वाले दिनों में नकुलनाथ, जयवर्धन सिंह और जीतू पटवारी सहित अन्य युवा नेताओं में सियासी खींचतान देखने को मिल सकती है। पर्दे के पीछे दिग्विजय सिंह, कमलनाथ सहित कुछ बुजुर्ग नेता भी हो सकते हैं। सियासी गलियारों में चर्चा है कि कमलनाथ अपनी राजनीतिक विरासत के जरिए नकुलनाथ को, तो दिग्विजय सिंह अपने पुत्र जयवर्धन सिंह को आगे बढ़ा रहे हैं। मौजूदा समय में जीतू की छवि प्रदेश कांग्रेस में ज्योतिरादित्य सिंधिया के बराबर नहीं तो कम भी नहीं है। कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी और महासचिव प्रियंका गांधी का भी जीतू पर खास स्नेह है। ऐसे में लगता तो नहीं है कि नकुलनाथ के हाथों में कुछ आएगा। हां, अगर उपचुनावों में नकुल अपने विधानसभा क्षेत्र में जीत का परचम लहरा देते हैं तो उन्हें एआईसीसी या कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति में बड़ा औहदा जरूर मिल सकता है, लेकिन क्षेत्रीय राजनीति में पीसीसी चीफ पर दांव जीतू और जयवर्धन के अनुभव के सामने फीका पड़ना तय है। इस संबंध में पूर्व मंत्री जयवर्धन सिंह का कहना है कि नकुलनाथ हमारे प्रदेश से इकलौते सांसद हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में इतनी विपरीत परिस्थितियों में वे जीतकर आए हैं जिससे उन्होंने अपनी क्षमता साबित की है। हम सब लोग कांग्रेस के युवा उनके साथ खड़े हैं और उनके पीछे खड़े हैं। अगर एक बार जयवर्धन सिंह को एक तरफ हटा भी दिया जाए तो जीतू पटवारी से पार पाना नकुलनाथ और कमलनाथ दोनों के लिए ही आसान नहीं होगा।

भारतीय राजनीति में 50 साल की उम्र तक के नेता युवा की श्रेणी में आते हैं। इस नजरिए से देखें तो मप्र कांग्रेस में करीब 42 विधायक हैं जो युवा हैं। इनमें प्रदीप पाठक, जयवर्धन सिंह, तरवर सिंह, विनोद दीक्षित, विक्रम सिंह, राहुल सिंह, नीलांशू चतुर्वेदी, सिद्धार्थ कुशवाहा, कमलेश्वर पटेल, सुनील सराफ, विजय राघवेंद्र सिंह, संजय यादव, तरुण भनोट, भूपेंद्र मरावी, ओमकार सिंह मरकाम, नारायण सिंह पट्टा, अशोक मर्सकोले, हिना कांवरे, योगेंद्र सिंह, संजय शर्मा, सुनील उइके, कमलेश प्रताप शाह, विजय रेवनाथ चौरे, नीलेश पूसाराम उइके,  निलय डागा, आरिफ मसूद, बापू सिंह तंवर, प्रियव्रत सिंह, कुणाल चौधरी, सचिन बिरला, सचिन यादव, मुकेश रावत, कलावती भूरिया, उमंग सिंघार, सुरेंद्र सिंह बघेल, हीरालाल अलावा, पांचीलाल मेड़ा, जगदीश पटेल, जीतू पटवारी, महेश परमार, हर्ष गहलोत और मनोज चावला आदि शामिल हैं। वहीं प्रदेश में कांग्रेस के एकमात्र सांसद नकुलनाथ भी युवा हैं। जबकि पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरूण यादव भी अभी 46 साल के हैं। यानी कांग्रेस में युवाओं की भरमार है।

एक तरफ प्रदेश में कांग्रेस बुजुर्ग नेतृत्व के सहारे चल रही है। वहीं भाजपा ने युवा वीडी शर्मा को संगठन की कमान सौंपी है। वीडी भाजपा के लिए भाग्यशाली साबित हुए हैं। उनके प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी सत्ता में वापस आ गई है। यही नहीं वीडी ने जिस तरह सत्ता और संगठन के बीच सामंजस्य बना रखा है, उसे देखकर कांग्रेस युवा भी संगठन में कुछ करके दिखाने के लिए बेचैन हैं। ये सही है कि सियासी दलों की मजबूती उसके नेताओं की परस्पर प्रतिद्वंद्वीता से भी पोषित होती है, लेकिन मप्र कांग्रेस के लिए हमेशा से नुकसानदेह साबित होती रही है, जिसके चलते ही कमलनाथ सरकार डेढ़ साल में ही न केवल विदा हुई, बल्कि भाजपा ने वापसी भी की। अब वही मर्ज नई पीढ़ी में भी देखा जा रहा है, जो पहले की तरह पनपता रहा तो कांग्रेस लंबे समय के लिए सत्ता के वनवास पर जा सकती है, हो सकता है उसे अस्तित्व के लिए भी जूझना पड़े। अपने पुत्रों को आगे बढ़ाने में व्यस्त बुजुर्ग नेताओं को एक बार इस पर भी विचार करना ही चाहिए।

कांग्रेस में छायी खामोशी

मप्र की सत्ता से बाहर होने के बाद अब कांग्रेस संगठन में बदलाव की मांग को लेकर चिंगारी उठती दिखने लगी है। वजह है प्रदेश में संगठन की मजबूती के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया जाना। दरअसल अभी संगठन में आम कार्यकर्ता की जगह बड़े नेताओं के पट्ठों का कब्जा है। सरकार गिरने के बाद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के बीच पूर्व की भांति संबंध भी नहीं रहे हैं। नेता-कार्यकर्ता भी उपचुनाव की बांट जोह रहे हैं। उसके बाद ही उनकी चुप्पी टूटने की संभावना है। प्रदेश में कांग्रेस संगठन की स्थिति का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि उसमें कितने महासचिव, सचिव और प्रवक्ता हैं, यह जानकारी अधिकृत रूप से कहीं नहीं हैं। कमलनाथ ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की एक मई 2018 को जब जिम्मेदारी संभाली थी, उसके बाद विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण के दौरान जितने असंतुष्ट नेता थे, सभी को पद बांटे गए थे। पदों की बंदरबाट में नेता और उसके पद का कहीं रिकॉर्ड नहीं रखा गया, बल्कि लेटरहैड पर सीधी नियुक्ति दे दी गई। लोकसभा चुनाव में भी इसी तरह असंतुष्टों को पद बांटे जाने से संगठन के पिरामिड को और ध्वस्त किया गया।

सिंधिया की जगह कौन लेगा?

ज्योतिरादित्य सिंधिया जबसे कांग्रेस छोड़कर भाजपा में गए हंै, उनकी खाली जगह को पाने के लिए युवा कांग्रेस उतावले हो रहे हैं। अब जाकर प्रदेश में सिंधिया की जगह लेने और कांग्रेस का युवा चेहरा बनने को लेकर पार्टी में युवा नेताओं की गोलबंदी शुरू हो गई है। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के बेटे व सांसद नकुलनाथ की दावेदारी ने सबको चौका दिया है। उन्होंने कहा है कि पिछले मंत्रिमंडल में हमारे जो युवा मंत्री थे जैसे जीतू पटवारी, जयवर्धन सिंह, हनी बघेल, सचिन यादव, ओमकार मरकाम, ये सब अपने-अपने क्षेत्र में आने वाले उपचुनाव में युवाओं का नेतृत्व मेरे साथ करेंगे। नकुल के युवा नेतृत्व के बयान वाले वीडियो सामने आने के बाद सियासी माहौल गरमा गया है। दरअसल, मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सियासत में दिग्विजय सिंह और कमलनाथ पार्टी के वरिष्ठ और बुजुर्ग चेहरे माने जाने लगे हैं। वहीं, ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी से नाता तोड़ने के बाद अब कई नेता युवा चेहरा बनने के लिए अपनी-अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं।

- कुमार राजेन्द्र

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