टूट रहा सब्र का बांध
03-Apr-2020 12:00 AM 347

ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रकरण से कांग्रेस के अंदर मौजूद युवा मिलिंद देवड़ा, मुकुल वासनिक, मल्लिकार्जुन खड़गे, राजीव शुक्ला और सुरजेवाला सहित कई दिग्गज राज्यसभा जाने की राह देख रहे थे लेकिन सपना टूटा। राहुल एंड टीम के ये सदस्य अब पांच साल इंतजार करने के मूड में नहीं दिख रहे। अब देखना यह है कि कांग्रेस अपने इन नेताओं को किस तरह संतुष्ट कर पाती है।

देश की राजनीति के मौजूदा हालातों को देखते हुए यह लाख टके का सवाल है कि आखिर राहुल गांधी की टीम के सदस्य अब क्या करेंगे? राहुल के करीबी दूसरी पीढ़ी के ये नेता राज्यसभा न जाने का दंश मन में दबाए पूरे 5 साल क्या रह सकेंगे? वैसे तो इस टीम के कैप्टन और राहुल के सबसे निकट माने जाने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अन्य सभी को राह दिखा दी है। बीते दिनों सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ भाजपा का हाथ थाम लिया है। सिंधिया के इस फैसले से मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार बन गई है। अब निगाहें केवल राहुल एंड टीम सदस्यों के अगले कदम पर टिकी हैं कि ये सिंधिया की राह चलेंगे या फिर कुछ समय इंतजार करेंगे क्योंकि इन सभी के सब्र का बांध टूटता जा रहा है।

वैसे तो राजनीति में भी ये कहा जाता है कि सब्र का फल मीठा होता है लेकिन फिलहाल कांग्रेस में मीठा फल तो कम से कम मिलता नहीं दिख रहा। आम चुनाव में करारी शिकस्त के बाद कुछ युवा नेताओं की नजरें राज्यसभा सीट पर थी, इनमें मुकुल वासनिक, शैलजा कुमारी, मल्लिकार्जुन खड़गे, राजीव शुक्ला, मिलिंद देवड़ा, रणदीप सिंह सुरजेवाला सहित लिस्ट में कई नाम हैं। इनमें से एक नाम ज्योतिरादित्य सिंधिया का भी था। उनकी भी कांग्रेस को लेकर पहली कुंठा यही थी कि मध्यप्रदेश से उनके राज्यसभा जाने की संभावना क्षणिक भर थी। जहां से पहले ही दिग्विजय सिंह का राज्यसभा जाना तय था। ऐसे में सिंधिया अगले पांच साल इंतजार नहीं करना चाहते थे, सो उन्होंने अपनी राह बदली और नाथ को छोड़ भाजपा के पास चले गए।

यही स्थिति कमोवेश राहुल की बाकी बची टीम की है। मुकुल वासनिक का नाम इस बार महाराष्ट्र से करीब-करीब तय माना जा रहा था लेकिन उनकी जगह राजीव सातव को राज्यसभा उम्मीदवार बना दिया गया। सातव पहली बार 2014 में मोदी लहर के बावजूद आम चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। उस समय लोगों की जुंबा पर उनका नाम आया और राहुल गांधी तो उन पर ऐसे मेहरबान हुए कि उन्हें गुजरात का प्रभारी तक बना दिया। राहुल गांधी से उनकी निकटता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद भी सातव राज्यसभा चले जाएंगे। छोटे से राजनीतिक करियर में सातव का राज्यसभा में जाना सिर्फ मुकुल वासनिक ही नहीं कई बड़े और दिग्गज नेताओं का दिल जलाने जैसा है। इनमें मल्लिकार्जुन खड़गे, राजीव शुक्ला, रजनी पाटिल और मिलिंद देवड़ा सबसे आगे हैं।

ये सभी महाराष्ट्र के दिग्गज नेताओं में शामिल हैं और सभी राज्यसभा जाने वाले मजबूत दावेदारों में शामिल थे। मल्लिकार्जुन खड़गे तो इन सभी में सीनियर हैं और कहा जा रहा है कि जून महीने में राज्यसभा की कर्नाटक से खाली हो रही चार सीटों में एक से उनका उच्च सदन जाना पक्का है। लेकिन अन्य सभी के पास दो साल तक इंतजार करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। दो साल बाद जब महाराष्ट्र से कुछ सीटें खाली होंगी तब इनका नंबर भी आएगा या इंतजार और लंबा होगा, ये कह पाना भी कंफर्म नहीं है। वहीं मिलिंद देवड़ा के बारे में तो काफी गर्मागर्म चर्चा है कि वे निश्चित तौर पर सिंधिया का रास्ता अपनाएंगे, तभी उनके मौजूदा राजनीतिक करियर को रफ्तार मिलेगी, वरना फिलहाल तो कांग्रेस में कुछ हासिल नहीं होना है। फिलहाल उनकी ओर से इस संबंध में कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है।

इसी तरह रणदीप सिंह सुरजेवाला का नाम भी राज्यसभा जाने वाले संभावितों में शामिल था। उन्हें या तो राजस्थान या फिर अन्य किसी सीट से उच्च सदन भेजा जाना पक्का था। हालांकि वे न तो हरियाणा विधानसभा और न ही अन्य किसी सदन के सदस्य हैं लेकिन केंद्र की भाजपा सरकार के खिलाफ कांग्रेस के तीखे हमलों की कमान वे और उनकी टीम बखूबी संभाल रही है, लेकिन राज्यसभा का मौका तो उन्हें भी नहीं मिला। वजह रही कि हरियाणा में राज्यसभा की केवल एक ही सीट कांग्रेस के पास थी और यहां से पहले ही दो दावेदार मौजूद थे। जिसमें प्रमुख दावेदार मानी जा रही कुमारी शैलजा तक को भूपेंद्र सिंह हुड्डा की जिद या यूं कहें पॉलिटिकल ब्लैकमिंग के चलते पीछे हटाना पड़ा।

अब बात करें उत्तरप्रदेश की, तो यहां से पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद और आरपीएन सिंह भी कुछ न कुछ हासिल करने की फिराक में थे लेकिन हाथ उनके भी कुछ न लगा। हालांकि इस साल के अंत में उप्र से राज्यसभा की 10 सीटें खाली हो रही हैं लेकिन यहां से करीब 8 सीटें भाजपा और एक सीट सपा के पास है। एक सीट पर लड़ाई है जिस पर कांग्रेस का दावा न के बराबर होगा।

बात करें बिहार की तो भाजपा छोड़ कांग्रेस में शामिल हुए एक्टर और पूर्व सांसद शत्रुघ्न सिन्हा यहां से राज्यसभा में घुसने की फिराक में थे। गठबंधन के चलते राजद ने एक सीट कांग्रेस को छोड़ने का वायदा लोकसभा चुनाव में कर भी दिया था लेकिन ऐन वक्त पर राजद ने दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर शत्रुघ्न को निराश कर दिया। बताया तो ये भी जा रहा है कि शत्रुघ्न सिन्हा ने पश्चिम बंगाल में टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी की मदद से भी उच्च सदन में जाने का जुगाड़ लगाया था लेकिन बात नहीं बनी।

फिर एक बार नजर डालें हरियाणा की राजनीति पर तो यहां से सोनिया गांधी की करीबी और पिछली बार की राज्यसभा सांसद कुमारी शैलजा का राज्यसभा टिकट पक्का था। हरियाणा प्रदेशाध्यक्ष शैलजा की यहां मजबूत दावेदारी को देखते हुए ही सुरजेवाला ने अपना नाम आगे नहीं बढ़वाया। लेकिन पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने समर्थित विधायकों के दम पर अपने बेटे दीपेंद्र हुड्डा का टिकट फाइनल करा दिया और कुमारी शैलजा को सदन जाने से दूर कर दिया। पूर्व लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार भी कुछ ऐसी ही परिस्थितियों के चलते राज्यसभा का सफर तय नहीं कर सकी।

देखा जाए तो कांग्रेस के असंतुष्ट दिग्गजों की लिस्ट काफी लंबी है लेकिन सिंधिया के भाजपा में जाने के बाद भी अभी तक इंतजार कर रहे हैं। उनके इंतजार की वजह मध्यप्रदेश भी है। इनमें से अधिकांश नेताओं ने लंबे समय तक पार्टी की भक्ति की है और कांग्रेसी विचारधारा में रचे बसे हैं, यही वजह है कि वे आगे का रास्ता तय करने में संकोच कर रहे हैं।

वहीं राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि चूंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया का भाजपा में जाने का फैसला अंगारों पर चलने जैसा है, ऐसे में राहुल एंड कंपनी के ये सदस्य केवल सिंधिया का भाजपा में हश्र देख रहे हैं। अगर उनके साथ सबकुछ अच्छा हुआ तो ये एक-एक कर 'महाराज’ की राह पकड़ेंगे और अगर नहीं तो फिर आगामी कुछ साल इंतजार करने के अलावा इनके पास कोई विकल्प नहीं है।

कांग्रेस में बुजुर्ग नेतागण किस कदर हावी हो चुके हैं, इसके कई उदाहरण हैं। मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कड़ी मेहनत के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार थे, लेकिन तब जिम्मेदारी न सिर्फ कमलनाथ को सौंपी गई, बल्कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से भी सिंधिया को वंचित रखा गया। इसी तरह, पड़ोसी राज्य राजस्थान में सचिन पायलट को उप-मुख्यमंत्री पद से संतोष करना पड़ा और अब खबर यह है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उन्हें पर्याप्त तवज्जो नहीं दे रहे। आरपीएन सिंह, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा जैसे तमाम युवा नेताओं की भी कुछ यही कहानी है। युवा बनाम बुजुर्ग की यह तनातनी इतनी अधिक है कि मिलिंद देवड़ा खुलेआम

संजय निरुपम से उलझ चुके हैं, तो पी चिदंबरम और शर्मिष्ठा मुखर्जी ट्विटर पर एक-दूसरे के सामने आ चुके हैं।

ज्योतिरादित्य सिंधिया का भाजपा का दामन थामना कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है। चूंकि पार्टी के तमाम दूसरे युवा नेता भी उनके संपर्क में हैं, इसलिए संभव है कि आने वाले दिनों में इस तरह की कुछ और टूट से पार्टी का सामना हो। सचिन पायलट और मिलिंद देवड़ा के भाजपा नेताओं के संपर्क में रहने की खबरें भी हैं। जाहिर है, गत दिनों घटनाक्रम के दो संदेश स्पष्ट हैं। पहला यह कि कांग्रेस टूट रही है और दूसरा, नेहरू-गांधी परिवार का यह निजी नुकसान है। यह सब जानते हैं कि माधवराव सिंधिया जिस तरह गांधी परिवार के करीबी थे, ज्योतिरादित्य सिंधिया की भी वही नजदीकी रही है। यही वजह है कि जब कैप्टन अमरिंदर सिंह को लोकसभा में पार्टी के उप-नेता पद से इस्तीफा दिलवाकर पंजाब भेजा गया, तो ज्योतिरादित्य सिंधिया को यह पद देने की मांग उठी। मगर सोनिया गांधी ने इस आवाज को अनसुना कर दिया, क्योंकि उन्हें आशंका थी कि इससे राहुल गांधी के कद पर असर पड़ सकता है। फिर भी, जिस तरह राहुल और ज्योतिरादित्य एक-दूसरे के करीब थे, उससे यही लगा कि ज्योतिरादित्य उन दिनों को भूल चुके हैं और पार्टी में अपने लिए नई जगह देख रहे हैं।

कांग्रेस को खुद से पूछना है

ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रकरण से कांग्रेस के अंदर मौजूद युवा और बुजुर्ग नेताओं के मतभेद खुलकर सामने आ गए हैं। यहां युवा का मतलब राहुल गांधी की टीम से है, जबकि बुजुर्ग यानी सोनिया गांधी के करीबी नेतागण। यह मनमुटाव तो तभी से कायम है, जब सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी की ताजपोशी करना चाहती थीं। सोनिया गांधी के इन करीबियों का मानना था कि राहुल गांधी के पार्टी प्रमुख बन जाने से उनकी उपयोगिता खत्म हो जाएगी और वे किनारे कर दिए जाएंगे। इसीलिए उन्होंने बार-बार इसकी राह में बाधा डाली, फिर भी वे सोनिया गांधी को रोक न सके। मगर पिछले साल लोकसभा चुनाव में शिकस्त के बाद जब राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष की अपनी जिम्मेदारी छोड़ दी, तब बुजुर्ग नेताओं की वही पुरानी टीम फिर से सक्रिय हो गई और उसने पार्टी पर अपनी पकड़ मजबूत बना ली। इससे युवा नेताओं को काफी तकलीफें हो रही थीं। साफ है, इन मुश्किलों से निजात पाने की शुरुआत ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पार्टी छोड़कर की है।

क्या कांग्रेस का अस्तित्व खतरे में है?

सवाल है कि क्या कांग्रेस अब पूरी तरह खत्म हो जाएगी? नहीं, अभी ऐसा नहीं कहा जा सकता। कांग्रेस के अंदर और बाहर कई ऐसे नेता हैं, जो इसके अस्तित्व को बचाए रखने के हिमायती हैं। ममता बनर्जी, शरद पवार जैसे नेता तो यह मानते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी का विकल्प सिर्फ कांग्रेस बन सकती है। हां, यह जरूर है कि नेहरू-गांधी परिवार की छाया से इसकी मुक्ति का सपना सभी देख रहे होंगे। जाहिर है, यह पूरा प्रकरण कांग्रेस और इसके शीर्ष परिवार के लिए खतरे की घंटी है। पार्टी को इस पर जमकर मंथन करना होगा। इसका क्या नतीजा निकलेगा, यह तो वक्त बताएगा, लेकिन संभव है कि पार्टी अब नेहरू-गांधी परिवार से बाहर निकलने की सोचे।

-  इन्द्र कुमार 

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