31-Dec-2013 07:00 AM
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गिरोह का पूरा नाम मध्यप्रदेश व्यावसायिक परीक्षा मंडल... प्रचलित नाम व्यापमंÓ... इलाका - मध्यप्रदेश...
व्यापमं... जी हां यही नाम है मध्यप्रदेश के सबसे बड़े संगठित आपराधिक गिरोह का... इस गिरोह में अधिकारियों, दलालों के साथ-साथ खादीधारी नेता भी हैं तो खाकी वर्दीधारी पुलिस भी, इस गिरोह में भाजपा सत्ता संगठन से जुड़े

मठाधीश भी हैं तो इन गिरोहबाजों से गलबहियां डाल दोस्ती निभाने वाले कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टियों के अय्यार भी।
मध्यप्रदेश के ज्ञात इतिहास में शायद ही किसी गिरोह ने इतने योजनाबद्ध ढंग से पूरे प्रदेश की व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों और सभी सरकारी नौकरियों पर अपना कब्जा किया होगा। इनके बिना मर्जी के न तो कोई डॉक्टर, इंजीनियर बन सकता है और न ही किसी की मजाल है जो इनको चौथÓ दिए बिना कोई सरकारी नौकरी हासिल कर ले। अफसर नेता और दलाल किस तरह संगठित गिरोह बनाकर किसी उद्योग की तरह इस पूरे कारोबार को चला रहे थे इसे समझने के लिए पहले जान लें कि आखिर व्यापमं है क्या... 1970 में प्रदेश के शासकीय मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के लिए मध्यप्रदेश चिकित्सा बोर्ड का गठन हुआ बाद में इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश के लिए भी 1981 में एक बोर्ड बना। 1982 में इन दोनों को मिलाकर व्यावसायिक परीक्षा मंडल का गठन हुआ। यूं तो इसके गठन के शुरुआत से ही गड़बडिय़ों की छुटपुट खबरें हमेशा आती रही। लेकिन सन् 2000 के बाद ऐसे लोगों की संख्या बढऩे लगी जो व्यापमं के सिस्टम में सेंध लगाकर मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में सीटें हासिल करने लगे। 2003 में भाजपा के सत्ता में आने और व्यावसायिक शिक्षा के बढ़ते व्यावसायीकरण के चलते लोगों को व्यापमं एक दूध देती गाय नजर आने लगी। 2005 के आसपास जब व्यापमं के पास सरकारी नौकरियों की भर्ती का जिम्मा मिलना शुरू हुआ तो इसे कामधेनु बनते देर नहीं लगी। सन् 2006 के बाद से इसने एक संगठित गिरोह का रूप लेना शुरू किया और 2007-08 आते-आते यह अंडरवल्र्ड की तर्ज पर पूरी तरह एक उद्योग बन गया। इस खबर में आगे हम इस गिरोह की कार्यप्रणाली, इसके सामने आ चुके और पर्दे के पीछे बैठे चेहरों के बारे में जानेंगे... व्यापमं जब जन्मा था तो इसका उद्देश्य और कार्यप्रणाली गंगा के उद्गम के समान ही साफ-सुथरी थी... धीरे-धीरे इस गंगा में पंकज त्रिवेदी, नितिन महिंद्रा, सुधीर शर्मा, लक्ष्मीकांत शर्मा, डॉ. विनोद भंडारी, डॉ. अजय शंकर मेहता, संजीव सक्सेना, डीआईजी आरके शिवहरे जैसे न जाने कितनी नदी-नाले मिलते गए... व्यापमं की गंगा मैली और विशाल होती गई... और आखिरकार यह गंगा बंगाल की खाड़ी में जाकर मिल गई... इस गंगा में मिलने वाले बहुत से गंदे नदी-नालों की पहचान तो हो चुकी है पर यह किस बंगाल की खाड़ी में जाकर मिलती है इसका पता लगना अभी बाकी है।
मेडिकल का मटियामेट
पाक्षिक अक्स पत्रिका पिछले 2 सालों से लगातार मध्यप्रदेश में मेडिकल मॉफिया के खिलाफ मुहिम चलाती रही है लेकिन जब मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है...Ó की तर्ज पर जिम्मेदार जगहों पर जलालत की हद तक गिरने वाले लोग बैठे हो तो क्या सुधार होता। मेडिकल घोटाले के लिए गड़बडिय़ां दो स्तरों पर हुईं एक तो व्यापमं के स्तर पर और दूसरी पीएमटी के परीक्षा नियम बनाने के लिए जिम्मेदार मध्यप्रदेश के चिकित्सा शिक्षा विभाग के स्तर पर। 2004 के बाद प्रदेश में निजी मेडिकल कॉलेज आकार लेने लगे 2009-10 तक आते-आते इनकी संख्या छह पहुंच गई। यूं तो नियम यह था कि निजी मेडिकल कॉलेजों में 50 प्रतिशत सीटें राज्य सरकार के कोटे से भरी जाएंगी, लेकिन निजी कॉलेजों को सारी सीटें चाहिए थी, इसके लिए उन्होंने डॉ. जगदीश सागर, संजीव शिल्पकार, सुधीर रॉय और आईएएस अधिकारी के रिश्तेदार तरंग शर्मा जैसे दलालों का हाथ थामा और दलाल अपने मनचाहे छात्रों को पास करवाने के लिए यूपी, बिहार, राजस्थान से जिन स्कोररÓ को लेकर आते थे, उनका उपयोग करना शुरू किया। ये स्कोररÓ जिन मुन्ना भाइयों को नकल करवाते थे वे तो सरकारी कॉलेजों में प्रवेश ले लेते थे और स्कोरर अच्छे नंबर आने के बावजूद सिर्फ और सिर्फ निजी कॉलेजों में सीटें ब्लाक कर लेते थे तथा प्रवेश की अंतिम तारीख 30 सितंबर को अपना नाम वापस ले लेते थे। खाली हुई सीटों पर निजी मेडिकल कॉलेज संचालक तगड़ा डोनेशन लेकर मनचाहे छात्रों को प्रवेश दे देते थे पर यहां समस्या यह खड़ी हुई कि कई स्कोरर ऐसे थे जिनकी उम्र 25 वर्ष से ज्यादा थी। देशभर की सारी परीक्षाओं में मेडिकल के लिए अधिकतम प्रवेश सीमा 25 वर्ष है। यहां पर काम आए चिकित्सा शिक्षा विभाग के जिम्मेदार नेता, अधिकारी जिन्होंने पीएमटी के जरिए प्रवेश के लिए न्यूनतम उम्र सीमा 17 वर्ष तो रखी लेकिन अधिकतम उम्र सीमा 25 वर्ष करने का नियम नहीं बनने दिया। नतीजा यह हुआ कि निजी मेडिकल कॉलेज सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय 50 प्रतिशत सीटों की सीमा के बजाए वास्तविक रूप से 80 प्रतिशत सीटों तक पर कब्जा करने लगे। इसके लिए इन तीन उदाहरणों पर ध्यान देना काफी होगा।
1. सन् 2013 की पीएमटी परीक्षा में 876 छात्रों के रोल नंबर नियम तोड़कर आगे पीछे सेट किए गए। 2012 में 701 छात्रों के रोल नंबर आगे-पीछे सेट किए गए। दोनों ही वर्षों में चयनित स्कोररÓ छात्रों ने निजी मेडिकल कॉलेजों को चुना (बाद में प्रवेश नहीं लिया) और इनके पीछे बैठे नकलची मुन्नाबाइयों ने सरकारी कॉलेज चुनाव इस वर्ष ऐसे 117 छात्रों की पहचान कर सरकार मेडिकल कॉलेजों से निष्कासित किया जा चुका है।
2- मोहनलाल जाट ने पीएमटी की मेरिट लिस्ट में छठा स्थान प्राप्त किया इसके पीछे बैठे नमन पाटीदार ने तो महात्मा गांधी मेडिकल कॉलेज इंदौर में प्रवेश लिया, लेकिन जाट ने सरकारी कॉलेजों को चुनने के बजाए पीपुल्स मेडिकल कॉलेज भोपाल को अपनी पहली पसंद बनाया। अब यह एसटीएफ की जांच का विषय है कि मोहनलाल जाट ने प्रवेश क्यों नहीं लिया।
3. अरविंदो मेडिकल कॉलेज के अशोक कुमार का मामला लें तो जनाब 35 साल के हो चुके हैं। मेरिट में 42वां स्थान हासिल करने के बावजूद इन्होंने अरविंदों मेडिकल कॉलेज इंदौर का चयन किया। यह बात अलग है कि प्रवेश लिया की नहीं। ऐसा ही मामला भोपाल के एलएन मेडिकल कॉलेज का है जहां एक 39 वर्षीय छात्र को सीट एलाट हुई।
स्कोररÓ यानी वे होशियार छात्र जो अपने पीछे बैठे छात्र को नकल करवाते थे। नकल करने वाला छात्र स्कोररÓ के पीछे बैठे इसका जिम्मा व्यापमं के चीफ सिस्टम एनालिस्ट और परीक्षा नियंत्रक पंकज त्रिवेदी जैसे लोगों के पास था। जो कम्प्यूटर में हेर-फेर कर स्कोररÓ और मुन्ना भाई के रोल नंबर एक साथ करते थे।
पोस्ट ग्रेज्युएट मेडिकल कोर्स
वह तो भला हो प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का जिन्होंने तमाम दबावों को दरकिनार कर इस वर्ष प्रदेश के सभी मेडिकल कॉलेजों में ऑल इंडिया इंट्रेन्स एग्जाम (नीट) के जरिए प्रवेश का फैसला लिया नहीं तो 2013 की कहानी भी वही होती जो 2006 से चली आ रही है। जहां पीजी कोर्स की सीटें मनमाने ढंग से हथियाई जाती रही। निजी मेडिकल कॉलेजों जैसे अरविंदो मेडिकल कॉलेज, पीपुल्स मेडिकल कॉलेज में जब पीजी मेडिकल कोर्स (एमएस, एमडी, गायनिक आदि) शुरू हुए तो इन सीटों पर निजी कॉलेज संचालकों की गिद्ध दृष्टि पड़ी। ये गिरोहबाज व्यापमं के अधिकारियों के साथ मिलकर अपने कॉलेजों की सीटें तो हथियाने ही लगे इन्होंने सरकारी पीजी सीटों पर भी डाका डालना शुरू कर दिया। इस कारगुजारी को अंजाम देने के लिए पैसे लेकर पेपर लीक करने जैसा परंपरागत तरीका तो था ही, सूचना के अधिकार जैसे अधिनियम का भी जमकर उपयोग किया। परीक्षा के दौरान कांपियां खाली छोड़ दी जाती थीं बाद में कम्प्यूटर के डाटा में मनचाहे नंबर भर दिए जाते थे ताकि मेरिट सुनिश्चित हो सके। इसके बाद सूचना के अधिकार के तहत उत्तर पुस्तिका (ओएमआर शीट) निकलवाई जाती और कम्प्यूटर डाटा में दर्ज नंबरों के अनुसार उसमें सही उत्तरों पर गोले भर दिए जाते हैं। पीजी घोटाले के अहम किरदारों में अरविंदों मेडिकल कॉलेज का जीएम प्रदीप रघुवंशी और एसटीएफ के डर से मॉरीशश में छिपा बैठा मालिक डॉ. विनोद भंडारी भी है। इसे इन दो उदाहरणों से और समझे।
1. 2012 की प्री पीजी परीक्षा के टॉप 12 लोगों में से 8 एक ही कॉलेज अरविंदों मेडिकल कॉलेज इंंदौर के हैं।
2. इसका फायदा उठाने वालों में डीआईजी आरके शिवहरे भी हैं। जिन्होंने अपनी बेटी नेहा शिवहरे और दामाद आनंद मोहन गुप्ता की मेरिट ऐसे ही सुनिश्चित की तो वरिष्ठ आईएएस अधिकारी केसी जैन भी हैं जिन्होंने अपने बेटे अनुराग जैन का प्रवेश भी ऐसे ही पिछले दरवाजे से करवाया।
प्रवेश, भर्ती, नियामक संस्थाओं में नियुक्ति
व्यापमं के परीक्षा नियंत्रक और डायरेक्टर दोनों पदों पर पंकज त्रिवेदी को बिठाया गया नियम आड़े आए तो नियमों में संशोधन कर दिया गया।
राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर लंबे समय से पंकज त्रिवेदी के भाई पीयूष त्रिवेदी विराजमान हैं। इनकी शैक्षणिक योग्यता से लेकर कार्यप्रणाली तक पर सवाल उठे पर जब सत्ता और सत्ता के दलालों का वरदहस्त हो तो फिर क्या। संचालक चिकित्सा शिक्षा के पद पर लंबे समय तक डॉ. एस.सी. तिवारी काबिज रहे जिन्होंने निजी मेडिकल कॉलेजों की मनमानी पर सिर्फ कागजी तीर चलाए। उससे पहले डॉ. एसके सैनी विराजमान रहे जो अब पीपुल्स मेडिकल कॉलेज में अपनी सेवाए दे रहे हैं। निजी विश्वविद्यालय नियामक कमेटी के पद पर डॉ. अखिलेश पाण्डेय विराजमान हैं। निजी विश्वविद्यालयों ने मनमानी की पर ये मौन साधे रहे। इनकी नियुक्ति का रास्ता भी सुधीर शर्मा, लक्ष्मीकांत शर्मा नामक मैली हो चुकी गंगा से होकर बताया जाता है। व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश और फीस संबंधी अनियमितताओं पर रोक लगाने और कार्रवाई करने का जिम्मा जिस प्रवेश एवं फीस नियामक समिति (एएफआरसी) पर है उसके सर्वेसर्वा के पद पर लंबे समय तक वो हर्षवर्धन तिवारी विराजमान रहे जिन्हें आर्थिक अनियमितता, अक्षमता और भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने धारा 52 का उपयोग कर हटवाया था। पुलिस भर्ती प्रक्रिया से जुड़े पद पर लंबे समय तक एम.पी. द्विवेदी का कब्जा रहा वहीं एडीजी चयन केएन तिवारी ने भी नियमों में बदलाव से प्रदेश को होने वाले नुकसान से आंखें मूंदे रखी।
ऐसे ही उच्च और तकनीकी शिक्षा का जिम्मा लंबे समय तक लक्ष्मीकांत शर्मा के पास रहा जिनके ओएसडी ओपी शुक्ला व्यापमं और उच्च शिक्षा से जुड़ी दूसरी संस्थाओं को अप्रत्यक्ष रूप से मनमाने ढंग से चलाते रहे। यह बात अलग है कि अब दोनों आरोपियों की सूची में शुमार हैं।
नौकरियों पर कब्जा
प्रवेश प्रक्रिया पर कब्जा करने के बाद अब बारी आती है सरकारी नौकरियों की। पहले व्यापमं के पास सब इंस्पेक्टर और संविदा शिक्षक भर्ती जैसी परीक्षाएं ही प्रमुख रूप से थी बाद में जब हजारों पुलिस आरक्षकों की भर्ती का जिम्मा जुलाई 2012 में व्यापमं के पास पहुंचा तो गिरोह की और भी चांदी हो गई। आज व्यापमं के पास 40 से अधिक विभागों में भर्ती का जिम्मा है और कड़वी हकीकत यह है कि इनमें से कोई भी भर्ती परीक्षा घोटाले से परे नहीं है। यदि जानकार घोटाले का आकार पांच हजार करोड़ से ज्यादा बताते हैं तो उसे अतिश्योक्ति मानने का कोई आधार हमारे पास नहीं है। भर्ती घोटाले के लिए सिर्फ व्यापमं ही जिम्मेदार नहीं है इसमें बराबर के साथी हैं वरिष्ठ आईपीएस और आईएएस अफसरों के साथ विधायिका में बैठे जिम्मेदार लोग। भर्ती परीक्षाओं में दो स्तरों पर खेल खेला गया एक तो व्यापमं के स्तर पर पेपर लीक करने, कम्प्यूटर डाटा में हेरफेर कर मनचाहा नंबर देने और फिर सूचना के अधिकार के जरिए उत्तर पुस्तिका निकालकर उसमें सही उत्तरों पर गोले भरने का। दूसरी गड़बड़ी नियम बनाने के स्तर पर हुई। नियम बनाने का जिम्मा और उसे पारित करने की जिम्मेदारी पुलिस विभाग, गृह विभाग और उसके मंत्रियों पर थी। नियम के स्तर पर कैसे दलालों के आड़े आ रहे नियम बदले गए इसे हम सब इंस्पेक्टर, पुलिस आरक्षक और परिवहन आरक्षक परीक्षा के भर्ती नियमों में किस तरह हेरफेर किए गए और कैसे गैंग ऑफ व्यापमंपुर ने उससे फायदा उठाया, से समझते हैं।
सब इंस्पेक्टर
बदले फिजिकल टेस्ट के मानक
सब इंस्पेक्टर की भर्ती परीक्षा का जिम्मा 2005 में व्यापमं के पास आया। जब दलालों का दायरा बढ़ा तो कुछ नियम आड़े आने लगे जैसे पिछले दरवाजे से लिखित परीक्षा में छात्रों को पास तो करवा दिया जाता था, लेकिन उनके सौ नंबरों के फिजिकल का जिम्मा पुलिस विभाग के पास ही रहा। यदि कोई अभ्यर्थी 33 प्रतिशत नंबर नहीं ला पाता था तो वह सब इंस्पेक्टर के लिए डिस्क्वालीफाई हो जाता था। ऐसे में जब गैंग के ग्राहक फिजिकल में फेल होने लगे तो पैसे वापस करने पड़ जाते थे। इसका रास्ता गैंग ऑफ व्यापमंपुर ने यह निकाला कि फिजिकल के क्वालीफाइंग नंबर 33 प्रतिशत से कम कर 20 प्रतिशत कर दिए। जाहिर है की नियम बदलने के पीछे कारण मध्यप्रदेश में कुपोषण की बढ़ी हुई दर नहीं थी कि यहां स्वस्थ उम्मीदवार ही नहीं मिल रहे थे।
पुलिस आरक्षक:बदले 25 साल पुराने नियम
एक वक्त था जब मध्यप्रदेश पुलिस की टीमें प्रदेश के बाहर कैंप कर आरक्षकों की भर्ती करती थीं। नतीजा यह रहा कि बाहरी राज्यों के आरक्षकों का प्रतिशत प्रदेश पुलिस में ज्यादा बढ़ गया। जब प्रदेश में शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ा तो यहां के युवाओं को पुलिस भर्ती में प्राथमिकता देने के लिए 80 के दशक में प्रदेश के रोजगार कार्यालय में पंजीयन आवश्यक होने का नियम जोड़ा गया और फिर 1998 में दिग्विजय सिंह के शासनकाल में यह नियम जोड़ा गया कि पुलिस आरक्षक में भर्ती के लिए मध्यप्रदेश से 10वीं-12वीं पास होना जरूरी है। जब जुलाई 2012 से लगभग 15 हजार आरक्षकों की भर्ती का जिम्मा व्यावसायिक परीक्षा मंडल भोपाल के पास पहुंचा तो गैंग के दलालों के सामने यह समस्या खड़ी हो गई कि प्रदेश के बाहर के लोगों को कैसे नौकरी दिलवाई जाए। बाहरी राज्यों से पैसा भी ज्यादा मिलता था और किसी विवाद की स्थिति में मीडिया की नजरों में आने और पोल खुलने का डर भी कम था। इस समस्या का समाधान गैंग ऑफ व्यापमंपुर ने यह निकाला कि उपरोक्त दोनों नियम हटा दिए। नतीजा यह हुआ कि दलालों को एक की भर्ती के लिए 2-3 लाख के बजाए 6 से 10 लाख रुपए तक मिलने लगे। मतलब गैंग ऑफ व्यापमंपुर का भी हिस्सा बढ़ गया। गैंग ऑफ व्यापमंपुर ने रोजगार कार्यालय में पंजीयन आवश्यक होने का नियम हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के 17 साल पुराने उस फैसले की आड़ ली जो यूपीएससी की परीक्षाओं के संबंध में था और मध्यप्रदेश से 10वीं, 12वीं पास होने के नियम को हटाने के लिए मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के 7 साल पुराने उस फैसले की आड़ ली जो संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं से संबंधित था। इतने से भी जी नहीं भरा तो तथाकथित कारणों (जाहिर है कुपोषण नहीं) का हवाला देकर फिजिकल टेस्ट के मानक शिथिल कर दिए गए। जैसे पहले 800 मीटर दौड़ दो मिनट 30 सेकेंड में पूरी करनी पड़ती थी अब 2 मिनट 50 सेकेंड में। दूसरे कुछ टेस्ट हटा ही दिए गए।
यह शिवराज के कारिंदों का दोमुंहापन नहीं तो और क्या है कि एक तरफ जब दूसरे राज्य बाहरी लोगों को अपने यहां सरकारी नौकरी हथियाने से रोकने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपना रहे हों मध्यप्रदेश के जिम्मेदार अफसर, नेता ऐसे नियम बना रहे हों जो प्रदेश के युवाओं का हक मारते हों।
परिवहन आरक्षक: फिजिकल का नियम ही हटा दिया
गैंग ऑफ व्यापमंपुर के सामने यह समस्या भी आई कि उनके कई ऐसे ग्राहक जो सब इंस्पेक्टर आदि की लिखित परीक्षा में तो चयनित हो गए लेकिन फिजिकल टेस्ट (दौड़, लंबी कूद, गोला फेंक आदि) में फेल हो जाने के कारण चयनित नहीं हो पाए। ऐसे ग्राहकों के सामने आरटीओ कांस्टेबल जैसी कमाऊ नौकरी का विकल्प रखा। पर यहां भी फिजिकल टेस्ट की समस्या जस की तस थी। इसका विकल्प गैंग ऑफ व्यापमंपुर ने यह निकाला कि परिवहन आरक्षक के भर्ती नियमों में फिजिकल टेस्ट का प्रावधान ही हटा दिया।
घोटालों के किरदार
पंकज त्रिवेदी
कभी शिक्षक थे बच्चों को नैतिक गुण सिखाया करते थे आज अनैतिकता की सारी सीमा लांघी। राजनीतिक पहुंच और तिकड़म से व्यापमं के डायरेक्टर बने। नियमों को बदलकर इनको परीक्षा नियंत्रक के साथ-साथ डायरेक्टर भी बनाया गया। अपने कार्यकाल के दौरान 60 से अधिक प्रवेश एवं भर्ती परीक्षाओं में जमकर घोटाला किया।
नितिन महिंद्र
पीएमटी/प्री-पीजी और सभी नौकरी भर्ती घोटाले का मास्टर माइंड। व्यापमं के चीफ सिस्टम एनालिस्ट के इशारों पर चलता था व्यापमं। त्रिवेदी का दायां हाथ। दलाल गिरोहों से सीधे संपर्क में रहा। किस रोल नंबर के नंबर बढ़ाने हैं और क्या हेरा-फेरी करनी है, किससे कितना पैसा लेना है यह सारा हेरफेर, हिसाब इसी के पास।
अजय सेन
व्यापमं का सिस्टम एनालिस्ट महिंद्रा के साथ मिलकर साफ्टवेयर में रोल नंबर फीड किए और बाद में डाटा बदलने का काम किया।
डॉ. विनोद भंडारी
अरविंदों मेडिकल कॉलेज के चेयरमैन मेडिकल माफिया में सिरमौर। व्यापमं में अच्छी पकड़ के चलते पीजी की सीटें हथियाने का काम किया। एसटीएफ को इनकी तलाश है, फिलहाल एसटीएफ से भागकर इलाज के नाम पर मॉरीशस में हैं। एसटीएफ घोषित कर सकती है फरार।
प्रदीप रघुवंशी
अरविंदों मेडिकल कॉलेज के चेयरमैन डॉ. विनोद भंडारी का सबसे विश्वासपात्र और कॉलेज का जीएम महिंद्रा व त्रिवेदी से विशेष रिश्ता, पीएमटी-पीजी में कई फर्जी एडमिशन करवाने के साथ-साथ भर्ती घोटाले में भी आरोपी।
डॉ. जगदीश सागर
पीएमटी घोटाले का प्रमुख आरोपी सबसे बड़ी गैंग इसी की थी। पूछताछ में अब तक एक हजार को डॉक्टर बनाने का खुलासा। पोस्ट ग्रेज्युएशन करते हुए इंदौर में गिरोह का अड्डा बनाया। नितिन महिंद्रा के संपर्क में आने के बाद प्रवेश के लिए सेटिंग कर स्कोरर और छात्रों को आगे-पीछे बिठवाकर चयन करवाने में माहिर। 317 नाम वर्ष 2013 में महिंद्रा को दिए गए 8 साल से सक्रिय अब तक एक हजार को फर्जी तरीके से डॉ. बनवाया।
डॉ. अजयशंकर मेहता
भोपाल केयर हॉस्पिटल के कर्ताधर्ता। रसूखदार लोगों की हड्डियां जोड़ते-जोड़ते जुड़े संबंधों का फायदा मिला और जनअभियान परिषद के उपाध्यक्ष का पद पा लिया। ये और इनके मैनेजर दोनों पर भर्ती घोटाले में एफआईआर, एसटीएफ कर चुकी पूछताछ। व्यापमं घोटाले के मास्टर माइंड नितिन महिंद्रा से कारोबारी रिश्तों की भी हो रही पड़ताल।
तरंग शर्मा
आईपीएस अधिकारी का रिश्तेदार सुधीर रॉय और महिंद्रा के बीच की कड़ी। यह व्यक्ति चौथे मॉड्यूल का सरगना था। पहले गिरफ्तार हुआ और बाद में जमानत मिली, लेकिन अब फिर से गिरफ्तार।
संदीप शिल्पकार
पीएमटी घोटाले के तीसरे मॉड्यूल का प्रमुख पहले सागर के साथ मिलकर घोटाला किया बाद में अलग गिरोह बनाया। राजस्थान से निजी कॉलेजों के लिए सीट ब्लाकर्स का इंतजाम। इस वर्ष 92 छात्रों के नाम महिंद्रा को दिए।
सुधीर शर्मा
झाबुआ में सरस्वती शिशु मंदिर से शुरुआत, पेशे से शिक्षक, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और आरएसएस में गहरी पैठ के कारण सत्ता के निकट पहुंचे। खनन कारोबार में सक्रिय होने के बाद इतने प्रभावी बने की नियुक्ति कराने में सीधे हस्तक्षेप करने लगे। पीएम टी और प्री-पीजी घोटाले के सूत्रधार पंकज त्रिवेदी के प्रमुख खैर-ख्वाह।
आरके शिवहरे
2012 में प्री-पीजी में बेटी और दामाद का एडमीशन करवाया बाद में खुद इस लाभ के धंधे से जुड़े। सब इंस्पेक्टर परीक्षा में तीन लोगों के चयन के लिए 45 लाख देने का हिसाब महिंद्रा के कम्प्यूटर से मिली लेटेस्ट-2012Ó फाइल में दर्ज।
सी.के. मिश्रा
व्यापमं में परीक्षा प्रभारी व सहायक प्रोग्रामर। आंकड़ों में हेरफेर करने में माहिर। स्कोरर व छात्रों के रोल नंबर आगे-पीछे सेट करता था।
संजीव सक्सेना
हाल ही में भोपाल में कांग्रेस के नेता उमाशंकर गुप्ता के खिलाफ विधानसभा चुनाव लड़ा पर हार गए। 2006 में जब मेडिकल का पर्चा आउट हुआ था उस वक्त भी चर्चा में आए।
ओपी शुक्ला
एडिशनल कलेक्टर रेंक के शुक्ला लक्ष्मी कांत शर्मा के ओएसडी रहे। भर्तियों में दलाली का आरोप। एफआईआर दर्ज, एसटीएफ कर रही तलाश। मंत्री के बंगले से ही लाखों का लेन-देन। फिलहाल फरार।
धनराज यादव
राज्यपाल रामनरेश यादव के ओएसडी रहे धनराज यादव ने सरकारी भर्तियों में अपने रसूख का इस्तेमाल कर नौकरियां दिलवाई। एफआईआर दर्ज होने के बाद इस्तीफा फिलहाल अज्ञातवास में।
लक्ष्मीकांत शर्मा
पूर्व उच्च एवं तकनीकी शिक्षा मंत्री। हाल ही में चुनाव हारे। सुधीर शर्मा से रिश्तों के चलते विवाद में रहे। संविदा शिक्षक भर्ती घोटाले में दर्ज दो एफआईआर में इनके ओएसडी ओपी शुक्ला के साथ-साथ इनका भी नाम। एसटीएफ कर चुकी पूछताछ।
गंगाराम
सागर का दाहिना हाथ। सागर के लेन-देन का हिसाब रखता था। ग्रामीण मालदार लोगों से संपर्क में। ग्राहक लाने का काम सागर से लगभग 25 सौ बार बातचीत की।