18-Dec-2013 08:51 AM
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जीत कर भी क्यों होता है हारने का एहसास।

क्या कमी है आखिर मेरे तजुर्बे में। नरेन्द्र मोदी का विजय रथ दिल्ली की तरफ बढ़ रहा है। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान होते हुए यह विजय यात्रा दिल्ली की तरफ कूच कर गई है। राजस्थान और मध्यप्रदेश की जीत ने यह तय कर दिया कि मोदी की लहर तो है। भले ही इसे बुलबुला बताकर खारिज किया जा रहा हो, लेकिन इन परिणामों ने सुनिश्चित कर दिया है कि दिल्ली की सत्ता पर कांग्रेस के दिन गिनेचुने बचे हैं। कांग्रेस उस इतिहास के सहारे है, जिसके चलते राज्यों में जीतने वाली पार्टी को केन्द में बहुमत नहीं मिल पाया, लेकिन इस बार हालात थोड़े पेंचीदा हैं। मान लो कि कांग्रेस का यह दिवा स्वप्र सच भी हो जाए तो भाजपा को रोकने का सामथ्र्य कम से कम कांग्रेस में तो नहीं है। आम आदमी पार्टी अवश्य बहुत तेजी से देश की राजनीति में स्थापित होती जा रही है, और मोदी के लिए असल चेतावनी भी वही है। इसीलिए जो जीत अकल्पित मिली है, उसका जश्र मनाने के बावजूद भाजपा पूरी तरह आवश्वस्त नहीं है। भाजपा के पितृ पुरुष लालकृष्ण आडवाणी ने जीत का श्रेय मोदी को न देकर मुख्यमंत्रियों और कांग्रेस की असफलता को देकर यही संकेत दिया है।
मप्र में शिव
मध्यप्रदेश की जनता ने 2013 के विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित परिणाम दिए हैं। शिवराज सरकार की जीत का अनुमान तो था, किंतु यह जीत इतनी प्रभावशाली होगी यह अनुमान तो स्वयं भारतीय जनता पार्टी ने भी नहीं लगाया था। प्रदेश के हर क्षेत्र में, हर जिले में, हर संभाग में भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस को लगभग धराशायी करते हुए ऐतिहासिक जीत दर्ज की और शिवराज सिंह चौहान मध्यप्रदेश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री बने जिनके नेतृत्व में दो चुनाव जीते गए। इस जीत ने शिवराज की हैट्रिक बनाकर उस मिथक को भी तोड़ा कि पिछले कई दशकों से कोई भी सरकार हैट्रिक नहीं बना पाई थी। उज्जैन में कुंभ के समय अब फिर भाजपा सरकार रहेगी और यह मिथक भी बना रह गया है। इस जीत के कई अर्थ निकाले जा रहे हैं। सत्ता विरोधी रुझान होने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी की सीटों में 22 की संख्या में हुई वृद्धि अभूतपूर्व ही कही जा सकती है। लेकिन क्या यह वाकई चमत्कारिक जीत है। इसका एक अर्थ तो यह निकलता है कि जिस सत्ता विरोधी रुझान की बात कही जा रही थी वह केवल शिवराज सरकार के 10 मंत्रियों और 26 विधायकों के खिलाफ था। लेकिन बाकी जगह केंद्र में सत्तासीन कांग्रेस सरकार की नीतियों और भ्रष्टाचार के खिलाफ जो प्रभावी माहौल बना उसने शिवराज को अभूतपूर्व समर्थन का मार्ग प्रशस्त किया। पहले यह भी कहा जा रहा था कि सत्ता में भले ही भाजपा आए लेकिन शतक तो दोनों दल मारेंगे पर यह अनुमान भी धराशायी हो गया। इसका अर्थ यह है कि कांग्रेस जीतने के लिए नहीं बल्कि हारने के लिए लड़ रही थी। इस पराजय के बाद कांग्रेसियों की कुंठाए जिस रूप में प्रकट हो रही हैं उससे साफ जाहिर होता है कि कांग्रेसी सेना एकजुट नहीं थी और राहुल गांधी के प्रति केवल दिखावे का समर्थन था। असल तो यह है कि सब एक-दूसरे को ठिकाने लगाने में लगे हुए थे। सत्यवृत चतुर्वेदी, कल्पना परुलेकर सहित तमाम ऐसे नेता है जो केंद्र में मणिशंकर अय्यर की तरह मध्यप्रदेश में मुखर हो चुके हैं। यह मुखरता आने वाले दिनों में बढऩे वाली है और इसके बाद कांग्रेस में कुछ और चमत्कार देखने को मिल सकते हैं। बहरहाल यह भविष्य की बात है। पहले मध्यप्रदेश के चुनावी परिदृश्य पर चर्चा।
भाजपा की सुनिश्चित जीत के बाद जब फीके पड़ गए चेहरों के साथ कांतिलाल भूरिया पीसीसी में प्रेस कांफ्रेंस ले रहे थे तो उनकी सबसे बड़ी चिंता यही थी कि पत्रकारों को चाय मिली या नहीं। शायद भूरिया यह सुनिश्चित करना चाहते थे, कि उनसे तीखे सवाल न पूछे जाए। लेकिन तीखे सवाल तो दागे ही जा रहे थे। जल्दबाजी में उन सवालों से बचते हुए और गोलमाल जवाब देते हुए भूरिया ने केवल इतना ही कहा कि हार की समीक्षा की जाएगी। यह वक्तव्य तो वर्ष 2008 में भी सुना जा चुका था। इसमें नया कुछ नहीं था। यदि पराजय की सही समीक्षा करते हुए अगली बार बेहतर रणनीति बनाई जाए तो परिणाम बदल सकते हैं, लेकिन कांग्रेस परिणाम बदलने के लिए तो लड़ ही नहीं रही थी। वह तो बनी-बनाई स्थिति में से कोई रास्ता तलाशना चाहती थी। रास्ता नहीं निकला इसलिए भूरिया ने आलाकमान को इस्तीफे की पेशकश कर दी पर आलाकमान के समक्ष मध्यप्रदेश में ज्यादा विकल्प नहीं हैं। सारे दिग्गजों के इलाकों में कांगे्रस का सफाया हो चुका है। ज्योतिरादित्य सिंधिया, दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, कांतिलाल भूरिया, सुरेश पचौरी के क्षेत्रों में कांग्रेस धराशायी हो गई। थोड़ी बहुत लाज अजय सिंह ने बचाई। पचौरी तो खुद भी चुनाव हार गए। कई दिग्गज पराजित हुए। जनता ने प्रदेश सरकार के भी 10 मंत्रियों को पराजित किया और यह संदेश दिया कि जो अच्छा काम नहीं करेगा वह वापस पवैलियन भेज दिया जाएगा। कुछ मंत्रियों की जीत कठिन भी रही, लेकिन कुछ ने पहले की अपेक्षा बेहतर प्रदर्शन किया। जिन्होंने अपने क्षेत्र में अच्छा काम किया था उन्हें जनता ने पिछली बार की अपेक्षा ज्यादा वोट दिए। दोनों दलों में भितरघात भी हुआ। जिसके चलते नतीजों पर असर आया। कहीं पर लीड भी कम दिखी, लेकिन भारतीय जनता पार्टी का प्रदर्शन अद्भुत था। 138 सीटों पर जीत का अंतर पांच हजार से अधिक रहा। 10 विधायक तो 50 हजार से अधिक के अंतर से जीते। मुख्यमंत्री ने बुधनी से 84 हजार 805 मतों से जीतकर मुख्यमंत्री के रूप में सबसे बड़ी जीत दर्ज की। वे विदिशा से भी 16 हजार से अधिक वोटों से जीते। इंदौर-2 विधानसभा सीट से भाजपा के रमेश मैंदोला ने कांग्रेस के छोटू शुक्ला को 91 हजार 17 वोट से पराजित करके मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के इतिहास की सबसे बड़ी जीत दर्ज की। पहली बार मध्यप्रदेश में किसी सत्तासीन दल ने इतने अधिक वोट प्राप्त किए और इतनी अधिक प्रतिशत वाली जीत दर्ज की। खास बात यह है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही मत प्रतिशत में वृद्धि हुई। भाजपा के 11 प्रतिशत वोट बढ़े और कांग्रेस के 7 प्रतिशत वोट बढ़े। लेकिन कांगे्रस के लिए यह वृद्धि पर्याप्त नहीं थी। संदेश केवल इतना है कि जनता ने तीसरी ताकत को और भी कमजोर कर दिया है। हर जिले में कांग्रेस कहीं संघर्ष में नहीं थी। मैदान में न जाना, कठोर परिश्रम न करना, जनता की भावनाओं का उपहास करना और बड़े नेताओं की चाटुकारिता में लगे रहना यह चरित्र कांग्रेस को डुबा गया। कहते हैं कि लोग कांग्रेस से जुडऩा चाहते हैं लेकिन कांग्रेस लोगों से नहीं जुडऩा चाहती। सचमुच इस बार कांग्रेस से लोगों का मोहभंग स्पष्ट दिखाई दे रहा था। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की यह हार लोकसभा चुनाव के लिए खतरे की घंटी है। यदि इस दृष्टि से आंकलन किया जाए तो मध्यप्रदेश में भाजपा को 25 सीटों पर बढ़त मिली है और यह एक चिंताजनक स्थिति बन चुकी है कांग्रेस के लिए। चिंताजनक राहुल गांधी के लिए भी है, राहुल ने मध्यप्रदेश में 8 रैलियां की थीं जहां पर 47 सीटें हैं जिनमें से कांग्रेस 14 ही जीत पाई। वर्ष 2008 में 18 सीटें जीती थीं। यानि राहुल की सभाओं के बावजूद 4 सीटों का घाटा हो गया। इसके विपरीत नरेंद्र मोदी ने मध्यप्रदेश में 13 स्थानों पर रैलियां की जहां की 72 सीटों में से भाजपा 52 सीटें जीतने में कामयाब रही और उसकी 2008 के मुकाबले तीन सीटें बढ़ भी गईं। यानि नरेंद्र मोदी ने मध्यप्रदेश में भाजपा की सत्ता विरोधी लहर को ध्वस्त करते हुए सत्ता समर्थक लहर में तब्दील कर दिया। चुनाव से पहले कई क्षेत्रों में भाजपा को कमजोर बताया जा रहा था। विश्लेषक मान रहे थे कि बुंदेलखंड, मालवा, महाकौशल, बघेलखंड, चंबल में कांग्रेस की ताकत बढ़ सकती है, लेकिन इसका उल्टा हुआ हर जगह कांग्रेस हारी। कोई भी किला नहीं बचा। बल्कि कई पुराने किले भी ध्वस्त हो गए। दिग्विजय सिंह जैसे नेता अपने ही क्षेत्र में बेटे की जीत का अंतर बढ़ाने में लगे रहे।
भोपाल में कड़े मुकाबले की बात कही जा रही थी। अनुमान था कि कांग्रेस 3 से 4 सीट जीत सकती है, लेकिन नतीजा अनुमान के विपरीत आया। भोपाल के शहर में कांगे्रस को केवल 1 सीट मिली और भोपाल जोन के पांच जिलों की 25 सीटों में से भाजपा 19 सीटें जीत गई। पिछली बार के मुकाबले एक सीट का फायदा हुआ। कांग्रेस पांच सीटों तक सिमट गई। एक निर्दलीय भी जीतने कामयाब रहा। खास बात यह है कि भोपाल जोन में सिरोंज में मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा अच्छी पकड़ होने के बावजूद पराजित हो गए। इछावर में करण सिंह वर्मा भी अपनी जीत दोहरा नहीं पाए। उधर भोजपुर में सुरेश पचौरी को भी हार का सामना करना पड़ा। सीहोर में सुरेश पचौरी के समर्थक सुदेश राय ने चुनाव जीतकर कांग्रेस का गणित बिगाड़ दिया। नर्मदा जोन में भी भाजपा में भितरघात की बात कही जा रही थ्ीा, लेकिन यहां की 11 में से 10 सीटें जीतकर भाजपा ने यह संकेत दिया कि वह एकजुट है और फूट पडऩे की बात महज एक अफवाह है। यहा कंग्रेस को केवल एक ही सीट मिली। भाजपा दो सीटों के फायदे में रही। हरदा से कमल पटेल के हारने की भविष्यवाणी की जा चुकी थी जो पूरी तरह सच साबित हुई। हालांकि सरताज सिंह भी हजारीलाल रघुवंशी के मुकाबले कमजोर माने जा रहे थे लेकिन उन्होंने भारी मतों से जीत हासिल करके उन लोगों के मुंह पर जूता मार दिया जो उनकी सीट कटवाना चाह रहे थे। मालवा में तो भाजपा की आंधी चल गई। ज्योतिरादित्य सिंधिया का प्रभाव कहीं नजर नहीं आया। ऐसा लगा कि कांग्रेस में कहीं न कहीं राजा ने महाराजा को बेखदल करने के लिए शतरंज की चालें चली थी। यह अनुमान गलत भी हो सकता है। लेकिन मालवा में सत्ता पक्ष के कुछ नेताओं के बाहुबल के चर्चे चल रहे थे जिससे लगता था कि सीटें घट जाएंगी। मालवा-1 में पांच जिलों की 26 सीटों पर जब परिणाम खुले तो भाजपा ने 22 सीटें जीती ली उसे 8 सीटों का फायदा हुआ। कांग्रेस तीन तक सिमट गई। वर्ष 2008 में कांग्रेस ने 12 सीटें जीतीं थी। निर्दलीय कल सिंह ने थांदला से भाजपा और कांग्रेस के दिग्गजों को हरा दिया। यहां कांग्रेस के अश्विन जोशी और तुलसी सिलावट की पराजय से पार्टी सकते में है। भारतीय जनता पार्टी के जीतू जिराती को अंदरूनी कलह के कारण पराजय का मुंह देखना पड़ा। मालवा-2 जोन में भी छह जिलों की 24 सीटों पर भाजपा की आंधी चली। वर्ष 2008 में भाजपा के 14 और कांग्रेस के पास 9 सीटें थी। कांग्रेस सिमटकर एक सीट तक सीमित रह गई और भाजपा ने 23 सीटें जीत ली। कांग्रेस की कल्पना परूलकर, हुकुम सिंह कराड़ा, सुभाष सौजतियां, दिलीप गुर्जर पराजित हो गए। परुलेकर ने तो पराजय का ठीकरा प्रेमचंद गुड्डू और दिग्विजय सिंह के सिर पर फोड़ दिया। यही हाल निमाड़ में है। यहां 4 जिलों की 16 सीटों पर भाजपा ने कांग्रेस को अच्छी टक्कर दी। हालांकि निवाड़ में वर्ष 2008 की तुलना में कांग्रेस को तीन सीटों का फायदा हुआ है। इस बार भाजपा 14 के मुकाबले 11 ही सीटें जीत पाई कांग्रेस ने 5 सीटें जीतीं उसको 2008 में 2 सीटें ही मिली थी। भाजपा के बड़वानी से विधायक प्रेम सिंह पटेल पराजित हो गए।
बुंदेलखंड ने सबसे ज्यादा चौंकाने वाले परिणाम दिए। कहा जा रहा था कि कांग्रेस इस बार बुंदेलखंड में भाजपा को बुरी तरह हराएगी, लेकिन इसका उल्टा हो गया। झांसी में जब नरेंद्र मोदी की सभा हुई थी उसके बाद बुंदेलखंड में मोदी की चर्चा ने जोर पकड़ा था बाद में शिवराज सिंह की जनआशीर्वाद यात्रा भी निकली। मतदान से कुछ समय पूर्व बुंदेलखंड में मोदी की सभाएं हुई। इन दिग्गज नेताओं की मौजूदगी ने माहौल बदल डाला। भाजपा पिछली बार बुंदेलखंड की 26 में 14 सीटें जीत पाई थी इस बार यह आंकड़ा 20 तक पहुंच गया यानि छह सीटों का फायदा हुआ। इसमें कहीं न कहीं उमा भारती की भाजपा में वापसी का असर भी रहा, भले ही उनका भतीजा चुनाव हार गया। रामकृष्ण कुसमारिया, बृजेश सिंह और दशरथ लोधी की पराजय भाजपा के लिए झटका है। कांग्रेस के भी गोविंद राजपूत, यादवेंद्र सिंह और बृजेंद्र सिंह राठौर जैसे दिग्गज धराशायी हो गए। जयंत मलैया ने पिछली बार की जीत का अंतर बढ़ाने में कामयाबी हासिल की। बुंदेलखंड पैकेज को मुद्दा बनाने की कांग्रेस की चाल कामयाब नहीं हो सकी।
महाकौशल में भाजपा और कांग्रेस के बीच मुकाबला 2008 के ही समान रहा। हालांकि यहां भाजपा को एक सीट का फायदा मिला है। यहां की 38 सीटों पर सभी की नजर थी और भाजपा ने 24 सीटें जीतकर कांग्रेस को 13 सीटों तक सीमित कर दिया। सिवनी से दिनेश राय मुनमुन की निर्दलीय के रूप में जीत इस क्षेत्र में एक अप्रत्याशित परिणाम ही कहा जाएगा। भाजपा के मंत्री अजय विश्नोई और पूर्व मंत्री गंगाबाई उरेती पराजित हो गई। महाकौशल में कांग्रेस को फायदे की भविष्यवाणी की गई थी, लेकिन लगता है कांग्रेस के प्रति यहां कोई सकारात्मक माहौल नहीं था।
विंध्य एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहां कांग्रेस एकजुट होकर लड़ी। यहां कांग्रेस का संगठन ज्यादा मजबूत दिखाई दे रहा था। भाजपा को विंध्य और महाकौशल से विशेष खतरा महसूस हो रहा था। विंध्य में भाजपा के विधायकों को अपनों का भी प्रतिरोध झेलना पड़ा। वर्ष 2008 में भाजपा ने विंध्य से 24 सीटें जीती थी। इस बार उसकी 8 सीटें घट गईं और वह 16 सीटों पर आ गई। कांग्रेस वर्ष 2008 में 2 सीटें ही जीत पाई थी इस बार विंध्य में कांग्रेस ने 12 सीटें जीतकर भाजपा को अच्छी टक्कर दी। बसपा भी 2 सीटें जीतने में कामयाब रही। भाजपा के मंत्री जगन्नाथ सिंह, पूर्व मंत्री बिसाहूलाल सिंह और सुरेंद्र सिंह गेहवार की हार ने भाजपा के प्रदर्शन को प्रभावित किया। ग्वालियर में भाजपा फायदे में रही। ग्वालियर-1 में 4 जिलों की 20 सीटों पर भाजपा 14 सीटें जीतने में कामयाब रही। यहां महाराजा की बिल्कुल भी नहीं चली। कांग्रेस को 4 सीटें मिली। इस तरह भाजपा छह सीटों के फायदे में रही। हालांकि भाजपा के दिग्गज अनूप मिश्रा का हारना भाजपा के लिए चिंता का विषय है। ग्वालियर-2 में भारतीय जनता पार्टी दो सीटों केे नुकसान में रही। यहां पर कांग्रेस को भाजपा के मुकाबले ज्यादा सीटें मिली हैं। 4 जिलों की 14 सीटों में से कांग्रेस 8 सीटें जीत सकी है। जबकि भाजपा छह सीटों तक ही सिमट गई।
जीत-हार का विश्लेषण
कांग्रेस क्यों हारी और भाजपा क्यों जीती इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि क्या कांग्रेस जीतने के लिए लड़ रही थी। कांग्रेस की रणनीति देखकर लगता था कि वह 2018 की चुनावी तैयारियों को अंजाम दे रही है। 2013 में तो वाकओवर ही नजर आ रहा था। जनता का झुकाव शिवराज की तरफ था। हालांकि मंत्रियों और विधायकों से उसकी नाराजगी थी। इसके विपरीत कांग्रेस के प्रति जनता का झुकाव दिखाई नहीं दिया। क्योंकि पिछले पांच वर्षों में कांग्रेस कभी एकजुट नहीं दिखी। चुनाव के समय तक नेता एक-दूसरे की टांग खींचते रहे। कहीं-कहीं तो अकेले प्रत्याशियों ने ही कमान संभाल ली थी क्योंकि उनके क्षेत्रों में सभा करने के लिए बड़ा नेता ही नहीं था। ऊपर से शिवराज सरकार की लाड़ली लक्ष्मी, मुख्यमंत्री कन्यादान, जननी सुरक्षा, बुुजुर्ग तीर्थ यात्रा जैसी योजनाओं का जनता पर भावनात्मक असर पड़ा। लगभग सभी प्रत्याशियों ने उन हितग्राहियों को जनता के सामने खड़ा किया जिन्होंने इन योजनाओं से लाभ उठाया था। इसका चमत्कारिक असर हुआ। यह एक बेहतरीन रणनीति साबित हुई। उधर प्रदेश के बड़े कांग्रेसी नेता निरंकुश दिखाई दिए। पहली पंक्ति के नेता तो चुनाव प्रचार में कहीं नजर ही नहीं आ रहे थे। जबकि भाजपा संगठन दो साल पहले से चुनाव में जुट गया था। लोगों की जिम्मेदारी तय हो चुकी थी। शिवराज की ब्रांडिंग आक्रामक तरीके से की जा रही थी। काम भले ही कम किया लेकिन काम का प्रचार सुनियोजित ढंग से किया गया। कांग्रेसी नेता एक-दूसरे की जड़ खोदते रहे। मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा न होना भी एक बड़ी कमी थी। क्योंकि नेतृत्व कौन करेगा यह पता ही नहीं चल रहा था। नेताओं के विरोधाभाषी बयान भी जनता को भ्रमित कर रहे थे। नरेंद्र मोदी ने शिवराज की जीत को और पुख्ता किया। पहले पहल यह लग रहा था कि मुस्लिम बहुल इलाकों में कांग्रेस के पक्ष में ध्रुवीकरण हो सकता है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मुस्लिम बहुल इलाकों में भी कांग्रेस हारी है। कहा जा रहा है कि मोदी ने शिवराज की जीत को और भी ज्यादा सुनिश्चित किया। उन्होंने केंद्र सरकार की महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर जमकर खिंचाई की जिसके कारण जो माहौल भाजपा सरकार के खिलाफ हो सकता था वह केंद्र सरकार के खिलाफ हो गया। केंद्र की गल्तियों का खामियाजा मध्यप्रदेश की कांग्रेस ने भुगता। चुनाव से पहले जो प्रशासनिक सर्जरी की गई उसका असर भी कहीं न कहीं इन चुनावों पर दिखाई दिया है।
शिवराज ने बहुत सोच-समझकर लोगों को जिम्मेदारियां दी और उन्होंने बखूबी निभाई। जबकि कांग्रेस अपने परंपरागत वोट बैंक आदिवासी अल्पसंख्यक और दलित वर्गों को साधने में नाकामयाब रही। कांग्रेस द्वारा केंद्र में प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक ने भी कोई खास असर नहीं डाला। हालांकि यह भी सच है कि जनता ने कहीं-कहीं भाजपा को भी कड़ा संदेश दिया है। जैसे राजस्व मंत्री करण सिंह वर्मा की 28 वर्ष बाद हार रामकृष्ण कुसमारिया की 35 वर्ष बाद हार का संदेश समझने की आवश्यकता है। महिलाओं के प्रति दोनों ही दलों ने कंजूसी दिखाई थी, लेकिन चुनावी मैदान में उतरी भाजपा की 28 महिलाओं में से 22 ने जीतकर यह बताया कि वे कम नहीं हैं। हालांकि कांग्रेस की कुल छह महिलाएं ही जीत पाईं। माया सिंह की जीत को लेकर कुछ विवाद भी हुआ वे पुनर्मतगणना में ही जीत पाईं।