मप्र की 28 सीटों पर हुआ उपचुनाव किसी विधानसभा चुनाव से कम नहीं था। इस चुनाव परिणाम पर प्रदेश सरकार का भविष्य निर्भर था। इस चुनाव में अधिक से अधिक सीटें जीतने के लिए पार्टियों ने वह सभी हथकंडे अपनाए जो नैतिक और अनैतिक भी थे। लेकिन उपचुनाव जीतने में माहिर मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस बार भी करिश्मा दिखाया और 19 सीटें जीतकर न केवल अपनी सरकार बरकरार रखी, बल्कि भाजपा को भी मजबूती प्रदान की।
मप्र की 28 सीटों पर हुए उपचुनाव के परिणाम ने यह साबित कर दिया है कि वाकई मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मप्र की राजनीति के सिरमौर हैं। इस बात पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ट्वीट करके मुहर लगा दी है। इस उपचुनाव में शिवराज सिंह चौहान ने अपनी मामा की छवि के साथ चुनाव प्रचार किया। इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस ने भाजपा प्रत्याशियों को हराने के लिए जो भी हथियार चलाए थे, सब असफल रहे। शिवराज के आगे न प्रदेश कांग्रेस प्रमुख व पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ कोई कमाल कर पाए, और न 'गद्दार’ व 'आइटम’ जैसे कांग्रेस के जुमलों का जनता पर कोई असर हुआ। प्रदेश में 28 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा ने 19 सीटों पर जीत दर्ज कर और मजबूती पा ली है। अब भाजपा के 126 विधायक हो गए हैं जबकि बहुमत के लिए 115 (एक सीट खाली है) विधायक ही पर्याप्त हैं।
प्रदेश की जनता ने कांग्रेस नेता व पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ तथा दिग्विजय सिंह की जोड़ी को नकार दिया है। ग्वालियर-चंबल अंचल की कुछ सीटों को छोड़कर शेष प्रदेश की सीटों पर कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है। अधिक सीटों पर उपचुनाव की वजह से इसे सत्ता का 20-20 मैच भी माना जा रहा था।
मप्र में हुए उपचुनावों के नतीजों ने यह साबित कर दिया है कि शिवराज सिंह चौहान का सितारा अभी भी बुलंद है। मप्र के लोगों में 'मामा’ के प्रति अभी तक थकान पैदा नहीं हुई है। लोगों ने नोटबंदी की विभीषिका, जीएसटी के कुलांचे, कोरोना की महामारी और बेरोजगारी आदि कई समस्याओं का सामना किया लेकिन इसके बावजूद शिवराज सरकार के प्रति उसका विश्वास डिगा नहीं है। गौरतलब है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के 22 समर्थक विधायकों ने इसी वर्ष मार्च में विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर और कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया था। इससे कमलनाथ सरकार अल्पमत में आ गई थी और उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था। इसके बाद शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी।
भाजपा हुई दमदार
मप्र की 28 विधानसभा सीटों पर धमाकेदार जीत के साथ भाजपा ने अगले तीन साल के लिए सत्ता में रहने की चाभी हासिल कर ली है। दलबदल पर ठप्पा लगाकर जनता ने भाजपा और शिवराज को बेखटके राज करने का मौका दे दिया है। कोरोनाकाल में 28 सीटों पर हुए उपचुनाव में न तो भाजपा और न ही कांग्रेस की राह आसान थी। वहीं दोनों ही दलों के सामने कई चुनौतियां भी थीं। दोनों दलों के सामने सबसे बड़ी चुनौती मतदाताओं को उनके घरों से बाहर लाने की थी। लेकिन चुनाव आयोग द्वारा पैदा किए गए विश्वास और राजनीतिक पार्टियों के आव्हान पर मतदाता वोट डालने निकले और रिकार्ड 71 प्रतिशत से अधिक वोटिंग हुई। पूरे चुनाव काल में देखें तो भाजपा और उसके प्रत्याशियों को कई जगह नाराजगी का सामना करना पड़ा। मतदाता उन पूर्व कांग्रेसी विधायकों और मंत्रियों से विशेष रूप से नाराज थे जिन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया। इसके बावजूद भी, मतदाता कांग्रेस के प्रति उत्साही नहीं थे। इसका सबसे बड़ा कारण कांग्रेस के 15 महीने के शासन से संतुष्ट न होना था।
सरकार के सामने चुनाव बहिष्कार भी बड़ी चुनौती थी। कई लोग अपनी समस्याओं और मांगों को लेकर पहले ही चुनाव बहिष्कार का ऐलान कर चुके थे। कई कर्मचारी संगठन, अतिथि विद्वान, अतिथि शिक्षक, संविदा कर्मी, पटवारी भर्ती नियुक्ति समेत रोजगार और सरकारी भर्तियां न निकालने से नाराज युवाओं द्वारा चुनाव बहिष्कार की आशंका थी। ऐसे में शिवराज ने मोर्चा संभाला और सभी को विश्वास दिलाया कि उनकी सरकार में अभी वे टेम्प्रेरी मुख्यमंत्री हैं। आप वोट देकर भाजपा को जिताइए और मैं परमानेंट मुख्यमंत्री होते ही आपकी मांगे पूरी कर दूंगा। मतदाताओं ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सरकार पर मुहर लगाते हुए 28 में से 19 सीटें भाजपा की झोली में डाल दीं।
9 मंत्रियों को मिली जीत
28 सीटों पर हुए उपचुनाव में 12 मंत्रियों (तुलसी सिलावट और गोविंद सिंह राजपूत को इस्तीफा देना पड़ा था) सहित 355 उम्मीदवार मैदान में थे। उपचुनावों मैदान में उतरे प्रदेश के 12 मंत्रियों में से 3 को हार का सामना करना पड़ा है। दूसरी तरफ, शिवराज कैबिनेट के 9 मंत्री चुनाव जीतने में कामयाब रहे। सभी मंत्री मार्च में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता और विधायक पद से त्यागपत्र देकर भाजपा में शामिल हुए थे। इनमें अधिकांश ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक हैं। उपचुनाव के घोषित हुए परिणामों के अनुसार, प्रदेश सरकार में सिंधिया समर्थक 2 मंत्री इमरती देवी डबरा से 7,633 मतों के अंतर और गिर्राज दंडोतिया दिमनी से 26,467 वोटों के अंतर से चुनाव हार गए हैं। इसके अलावा एक अन्य मंत्री एदल सिंह कंषाना भी सुमावली सीट से 10,947 मतों से चुनाव हार गए हैं। वहीं 9 मंत्री ओपीएस भदौरिया (मेहगांव), प्रद्यम्न सिंह तोमर (ग्वालियर), सुरेश धाकड़ (पोहरी), महेन्द्र सिंह सिसोदिया (बामोरी), ब्रजेन्द्र सिंह यादव (मुंगावली), डॉ. प्रभुराम चौधरी (सांची), राज्यवर्धन सिंह दत्तीगांव (बदनावर) (सभी सिंधिया समर्थक) तथा बिसाहूलाल सिंह (अनूपपुर) और हरदीप सिंह डंग (सुवासरा) से विजयी रहे। गैर विधायक के तौर पर 6 माह का मंत्री पद का कार्यकाल पूरा होने पर कुछ दिन पहले ही मंत्री पद से त्यागपत्र देने वाले सिंधिया के कट्टर समर्थक तुलसीराम सिलावट (सांवेर) ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी से 53 हजार से अधिक मतों जीत दर्ज की। गोविंद सिंह राजपूत ने सुरखी सीट से चुनाव जीता। इनके अलावा भाजपा के अम्बाह से कमलेश जाटव, भांडेर से रक्षा सिरोनिया, अशोकनगर से जजपाल सिंह जज्जी, मलहरा से प्रद्युम्न सिंह लोधी, हाटपिपल्या से मनोज चौधरी, मांधाता से नारायण सिंह पटेल, नेपानगर से सुमित्रा देवी और जौरा से सूबेदार सिंह भी चुनाव जीतने में कामयाब रहे।
उधर, उपचुनाव में 28 में से कांग्रेस के मात्र 9 प्रत्याशी ही जीत प्राप्त कर सके। जिनमें सुमावली से अजबसिंह, मुरैना से राकेश मवई, दिमनी से रवींद्र सिंह, गोहद से मेवाराम जाटव, डबरा से सुरेश राजे, ग्वालियर पूर्व से सतीश सिकरवार, करैरा से प्रागीलाल कांग्रेस, ब्यावरा से रामचंद्र दांगी और आगर से विपिन वानखेड़े शामिल हैं।
कांग्रेस का मुद्दा नहीं आया काम
कांग्रेस ने उपचुनाव को 'गद्दार’ और 'बिकाऊ-टिकाऊ’ पर फोकस किया था लेकिन ये दोनों ही जुमले कांग्रेस के काम नहीं आए। कांग्रेस के साथ दगाबाजी करने और कथित तौर पर भाजपा के हाथों बिक जाने वाले कांग्रेस के पूर्व विधायक अबकी बार भाजपा के टिकट पर विधानसभा पहुंचने में सफल हो गए। टिकाऊ और बिकाऊ का मुद्दे के साथ उपचुनाव में पूरा जोर लगाने वाली कांग्रेस को एक बार फिर मुंह की खानी पड़ी है। चुनाव परिणाम से यह तो साफ हो गया है कि जनता ने बिकाऊ और टिकाऊ को नकारते हुए शिवराज पर विश्वास जताया है। दरअसल, उपचुनाव में शिवराज और कमलनाथ के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी थी। जिस तरह से सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद उनके समर्थक भी कांग्रेस से इस्तीफा देकर भाजपा में चले गए थे। इसके अल्पमत में आई कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री कमलनाथ को इस्तीफा देना पड़ा और शिवराज ने एक बार फिर प्रदेश की कमान संभाली। इसके बाद उपचुनाव के लिए शिवराज सरकार ने सिंधिया समर्थक अपने 14 मंत्री मैदान में उतारे थे। जिसे मुद्दा बनाकर कांग्रेस ने अपने प्रचार-प्रसार के दौरान खूब टिकाऊ और बिकाऊ का नारा लगाया। लेकिन परिणाम कुछ और निकले। इनमें ज्यादातर ने बड़े अंतर से जीत हासिल की है। तुलसी सिलावट, गोविंद सिंह राजपूत, प्रद्युम्न सिंह तोमर, प्रभुराम चौधरी, राजवर्धन सिंह दत्तीगांव, हरदीप सिंह डंग, महेन्द्र सिंह सिसोदिया और बिसाहूलाल सिंह ने 2018 के चुनाव के मुकाबले उपचुनाव में ज्यादा वोटों से जीते हैं।
मप्र में उपचुनाव के नतीजों ने भाजपा के सत्ता पलट पर मुहर लगाई। कांग्रेस के बिकाऊ वर्सेस टिकाऊ के मुद्दे को खारिज कर दिया। शिवराज के चेहरे पर फिर भरोसा जताया, साथ ही सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने के फैसले को भी सही साबित किया है। प्रदेश में सत्ता का भविष्य तय करने वाले 28 विधानसभा सीटों के उपचुनाव के नतीजों ने साफ कर दिया कि उसे न तो कमलनाथ सरकार की कर्जमाफी आकर्षित कर सकी और न ही सौदेबाजी के आरोप पसंद आए। अधिकांश सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवारों को करारी हार का सामना करना पड़ा है। जनता को न तो पार्टी की आक्रामक रणनीति स्वीकार हुई और न ही संगठन टीम भाजपा के आगे टिक सका। मैदानी मोर्चे पर न तो युवा कांग्रेस नजर आई और न ही छात्र इकाई (एनएसयूआई)। महिला कांग्रेस सहित अन्य प्रकोष्ठों की भूमिका भी नगण्य रही। प्रत्याशियों का भी प्रचार अभियान बिखरा-बिखरा रहा। माना जा रहा है कि चुनाव परिणामों का असर संगठन पर भी पड़ेगा और अब परिवर्तन की आवाज बुलंद होगी। उपचुनाव में जीत हासिल करने के लिए कांग्रेस ने कर्जमाफी के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया सहित कांग्रेस छोड़कर भाजपा में गए विधायकों की सौदेबाजी को मुख्य मुद्दा बनाया था। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ, पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से लेकर कांग्रेस के तमाम नेता इन मुद्दों के ईद-गिर्द ही चुनाव अभियान को केंद्रित रखे रहे। कर्जमाफी को लेकर तमाम प्रमाण भी प्रस्तुत किए पर जनता ने इसे नकार दिया। वहीं, सौदेबाजी, बिकाऊ-टिकाऊ के आरोप, गद्दारी के रेट कार्ड जारी करना भी पसंद नहीं आया। पहली बार मतदान केंद्र स्तर पर तैयारियां की गई थी लेकिन टीम भाजपा के आगे यह टिक नहीं सकी।
भाजपा की चौकड़ी का दिखा दम
विपरीत परिस्थितियों में हुए उपचुनाव में भाजपा को भी उम्मीद नहीं थी कि वह इतनी बड़ी जीत हासिल कर पाएगी। क्योंकि इस उपचुनाव में कोरोना, आर्थिक मंदी, बगावत, भितरघात के साथ ही भाजपा को कई मोर्चों पर लड़ना पड़ रहा था। लेकिन पार्टी की शीर्ष चौकड़ी शिवराज सिंह चौहान, ज्योतिरादित्य सिंधिया, नरेंद्र सिंह तोमर, वीडी शर्मा के साथ ही पार्टी के संगठन की जमीनी मेहनत का बराबर योगदान रहा है। इस जीत में जितना शिवराज, भाजपा संगठन का योगदान है उतना ही नए नवेले भाजपाई ज्योतिरादित्य सिंधिया का भी है। उपचुनाव में न केवल उनकी साख दांव पर लगी थी बल्कि उनके आगे के सियासी सफर का रास्ता भी इसी नतीजे से निकलना था। कोई शक नहीं कि अब उनके केंद्र में मंत्री बनने की राह आसान हो गई है। वहीं केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने भी उपचुनाव में खूब मेहनत की। उनका एक पांव मप्र में तो दूसरा दिल्ली में रहता था। उधर प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा के लिए तो यह चुनाव अग्निपरीक्षा से कम नहीं था। उन्होंने संगठनात्मक जिम्मेदारी के साथ ही उपचुनाव की जिम्मेदारी भी पूरी तन्मयता से निभाई। इनके अलावा नरोत्तम मिश्रा की भूमिका भी किसी से कम नहीं रही।
भाजपा की संगठित रणनीति का ही परिणाम है कि नतीजों ने कांग्रेस को तगड़ा झटका दिया है। जिन सीटों पर कांग्रेस की जीत सुनिश्चित मानी जा रही थी, वहां भी उसके प्रत्याशी हार गए। कई कांग्रेस प्रत्याशियों की प्रतिद्वंद्वी से हुई हार का अंतर काफी अधिक रहा। इसकी एक वजह यह भी रही कि कांग्रेस में संगठन का बिखराव रहा। उल्लेखनीय है कि ग्वालियर-चंबल अंचल में हमेशा से ही चुनाव परिणाम सिंधिया राजघराने से प्रभावित रहे हैं। यह पहला मौका है कि कांग्रेस छोड़ने के बाद इस अंचल में भाजपा की कमान ज्योतिरादित्य सिंधिया ने संभाली थी। विपरीत हालात में भी भाजपा का प्रदर्शन अपेक्षित तौर पर संतोषजनक रहा। ऐसे में प्रदेश में भाजपा की सरकार बनाने से लेकर बरकरार रखने में सिंधिया का ही योगदान माना जाएगा। भाजपा के बड़े नेताओं का मानना है कि सिंधिया के कितने ही समर्थक जीतें हों, लेकिन उनका कद भाजपा में बढ़ेगा। इसके पीछे वे तर्क देते हैं कि भाजपा सरकार बहुमत में आई है तो उसका कारण भी सिंधिया ही हैं। उपचुनाव के नतीजों के बाद भाजपा के प्रदेश मुख्यालय पर मनाए गए जश्न में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने ज्योतिरादित्य सिंधिया की शान में कसीदे काढ़कर ये संकेत दे दिए कि 'महाराज’ को अभी भाजपा पूरी तवज्जो देगी।
अब इनका क्या होगा?
विधानसभा उपचुनाव में भाजपा की शानदार वापसी हुई है, लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया ग्वालियर-चंबल में 16 में से 7 सीट नहीं जिता पाए हैं। पिछले चुनाव में उपचुनाव वाली सभी सीट कांग्रेस के पास थी। इन सीटों पर सिंधिया के चेहरे पर जीत मिली थी, लेकिन उपचुनाव में सिंधिया का जादू नहीं चला है। ग्वालियर-चंबल चुनाव मैदान में उतरे 6 मंत्रियों में से तीन को तगड़ी हार भी झेलना पड़ी है। वहीं कुछ सीटों पर तो जीत का अंतर भी काफी कम रहा है। उपचुनाव में ग्वालियर-चंबल अंचल की 13 सीटों पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों का पूरा फोकस रहा था। भाजपा प्रत्याशियों के समर्थन में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, राज्यसभा सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया, भाजपा प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा सहित अन्य दिग्गजों ने सभाएं और रोड शो किया था। वहीं कांग्रेस प्रत्याशियों के समर्थन में पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ, सचिन पायलट ने सभा और रैली की थी तो वहीं दूसरी पंक्ति के नेताओं ने तो अंचल में कैंप भी किया था। इन 13 सीटों में से कुछ सीटों पर मुकाबला भी काफी रोचक रहा है। भांडेर सीट पर भाजपा की रक्षा सिरोनिया और कांग्रेस के फूल सिंह बरैया के बीच मुकाबला बेहद नजदीकी रहा था। यहां भाजपा प्रत्याशी की सबसे छोटी 161 मतों से जीत हुई है। इसमें खास बात यह है कि यह 13 सीटें सिंधिया के प्रभाव वाली मानी जाती हैं। इनमें से 7 सीटों पर भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा है। खासतौर पर अंचल की 3 सीटों पर मंत्रियों के चुनाव हारने से भाजपा को बड़ा झटका लगा है। अंचल के चुनाव नतीजों से साफ है कि कहीं न कहीं सिंधिया अपने ही गढ़ में कमजोर साबित हुए हैं।
जिद में कांग्रेस ने गंवाई कई सीटें
उपचुनाव के परिणाम आने के बाद किए गए विश्लेषण में यह तथ्य निकलकर आया है कि अगर कांग्रेस राजनीतिक चतुराई से चुनाव लड़ती तो परिणाम कुछ और होते। कांग्रेस कई सीटें अपनी जिद के कारण हार गई। मप्र उपचुनाव संग्राम में ग्वालियर-चंबल में दो सबसे बड़े किरदार थे। पहले- ज्योतिरादित्य सिंधिया और दूसरे- बसपा के उम्मीदवार। राजनीतिक कद की लड़ाई में कांग्रेस ने पहले सिंधिया को खोया और फिर जिद में बसपा से दूरी बना ली। नतीजा सबके सामने है कि ग्वालियर-चंबल की सीटों पर चुनाव लड़ी बसपा कांग्रेस के लिए वोट कटवा साबित हो गई। उसने 5 सीटों पर वोट काटे और जीत भाजपा की झोली में डाल दी। यही कारण रहा कि भाजपा 19 सीटें जीती और कांग्रेस 9। यदि बसपा-कांग्रेस साथ लड़ती तो 5 सीटों पर परिणाम पलट सकती थी। ऐसी स्थिति में चुनाव परिणाम भाजपा, कांग्रेस गठबंधन 14-14 सीट पर बराबर रह सकता था। आंकड़े देखें, तो भाजपा 19 सीट ला पाई है और कांग्रेस दहाई का अंक भी नहीं छू सकी। उसे 9 ही सीट मिलीं, लेकिन यदि भांडेर, जौरा, मल्हरा, मेहगांव और पोहरी जैसी सीटें देखें, तो वहां कांग्रेस की हार का किरदार ही बसपा ने निभाया।
भांडेर सीट पर कांग्रेस के फूलसिंह बरैया और भाजपा की रक्षा सिरोनिया के बीच रोचक मुकाबला हुआ। शुरुआत में बरैया बढ़त में थे और मजबूत भी लगे, लेकिन बाद में पांसा पलट गया। बसपा के महेंद्र बौद्ध ने 7500 वोटों लाकर कांग्रेस का खेल बिगाड़ दिया। बरैया को 45.1 प्रतिशत वोट मिले हैं, जबकि रक्षा को 45.3, जबकि बौद्ध 5.6 प्रतिशत वोट ले गए। यानी यदि कांग्रेस और बसपा के वोट जोड़ दें, तो वह विजयी पार्टी भाजपा से 5.4 पतिशत प्रतिशत ज्यादा होता है। जौरा सीट भी त्रिकोणीय मुकाबले के कारण कांग्रेस के हाथ से छिटक गई। यहां कांग्रेस के पंकज उपाध्याय को 31.2 प्रतिशत वोट मिले हैं, जबकि विजेता उम्मीदवार भाजपा के सूबेदार सिंह को 39 प्रतिशत। इनके बीच बसपा के सोनेराम कुशवाह 28 प्रतिशत वोट ले गए हैं। उनके वोट लगभग-लगभग कांग्रेस से दो प्रतिशत ही कम है। पंकज और सोनेराम के वोट मिला दें, तो वह 59 प्रतिशत प्रतिशत होता है जो कि भाजपा से 20 प्रतिशत ज्यादा हैं। मल्हरा में भाजपा के प्रद्युम्न लोधी की जीत के सबसे बड़े किरदार बसपा के अखंड प्रताप सिंह हैं। वे यहां 20,502 वोट यानी 13.7 प्रतिशत वोट ले गए। कांग्रेस को 33.4 प्रतिशत वोट ही मिले हैं। यदि कांग्रेस की रामसिया भारती और अखंड दादा के वोट जोड़ दें, तो 47.1 प्रतिशत होते हैं। यह भाजपा के उम्मीदवार प्रद्युम्न से दो प्रतिशत ज्यादा हैं। विजेता प्रद्युम्न लोधी को 45.1 प्रतिशत वोट मिले हैं। मेहगांव में मंत्री ओपीएस भदौरिया चुनाव जीत गए, लेकिन बड़ी मुश्किल से। उन्हें 45.1 प्रतिशत वोट मिले हैं। कांग्रेस के हेमंत कटारे को 37.7 प्रतिशत वोट मिले हैं, जिनके वोट काटते गए बसपा के योगेश नरवरिया। उन्हें 22 हजार 305 वोट मिले हैं जो कि कुल वोट का 13.7 प्रतिशत है। यदि बसपा और कांग्रेस के वोट जोड़ें तो वह मंत्री भदौरिया के वोट शेयर से 6.3 प्रतिशत ज्यादा है। पोहरी में कांग्रेस के हरिवल्लभ शुक्ला की हार का सबसे बड़ा कारण बसपा के कैलाश कुशवाह ही रहे और कांग्रेस को यहां तीसरे नंबर पर पहुंचा दिया। यहां बसपा का वोट शेयर 26 प्रतिशत रहा जबकि कांग्रेस का 25.2 ही रहा। भाजपा के विजेता उम्मीदवार मंत्री सुरेश धाकड़ ने 39.2 प्रतिशत वोट पाए। यदि बसपा-कांग्रेस साथ देखें तो यह भाजपा से 12 प्रतिशत ज्यादा है।
सिंधिया बनेंगे केंद्र में मंत्री
मप्र में विधानसभा उपचुनाव के नतीजों से भाजपा तो उत्साहित है ही लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा उत्साहित कुछ समय पहले भाजपा की गोद में बैठने वाले पूर्व कांग्रेसी ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थक हैं। इसकी वजह बेहद साफ है। उन्होंने इस चुनाव में न सिर्फ कांग्रेस के गढ़ में सेंध लगाते हुए मतदाताओं को अपनी तरफ रिझाने में सफलता हासिल की है बल्कि इस चुनाव में भाजपा को जीत दिलाकर ये भी बता दिया कि इस क्षेत्र में उनका वर्चस्व पहले की ही तरह जस का तस बना हुआ है। यही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि भी है। इस जीत से उन्होंने ये भी साफ कर दिया है कि ये क्षेत्र कांग्रेस का गढ़ नहीं बल्कि उनका क्षेत्र है। आपको बता दें कि ये उपचुनाव कांग्रेस के कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए एक साख का सवाल बन चुका था। इसकी पटकथा तभी लिखी जा चुकी थी जब मुख्यमंत्री न बन पाने से नाराज ज्योतिरादित्य ने भाजपा ज्वाइन की थी। तभी से दोनों के बीच सबसे बड़ी चुनौती अपनी साख को बचाकर रखने की थी, जिसमें काफी हद तक ज्योतिरादित्य सिंधिया सफल हुए हैं। कहा जा सकता है कि कमलनाथ के राजनीति के वर्षों पुराने अनुभव पर सिंधिया भारी पड़े हैं। सिंधिया की ये जीत केवल यहीं तक सीमित नहीं रही है। अब इस जीत से उनके आगे की राह भी खुल गई है। ये राह उन्हें कैबिनेट में शामिल होने के दरवाजे खोलती दिखाई दे रही है।
हालांकि इस बात की चर्चा पहले भी होती रही है कि सिंधिया को केंद्र में कैबिनेट में शामिल किया जा सकता है। जिस वक्त उन्होंने भाजपा का परचम थामा था उस वक्त भी ये चर्चा जोरों पर थी कि उन्हें इसके एवज में मोदी कैबिनेट में जगह मिल सकती है। लेकिन अब इसके चांसेज काफी बढ़ गए हैं। इसकी दो बड़ी वजह हैं। पहली वजह उनकी उपचुनाव में हुई जीत और दूसरी वजह मोदी कैबिनेट में कई मंत्रियों की जगह।
शिवराज है तो विश्वास है
उपचुनाव के परिणामों ने यह साबित कर दिया है कि मप्र में शिवराज है तो विश्वास है। मप्र में वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में जनता ने भाजपा के खिलाफ जनादेश दिया था, लेकिन करीब दो साल बाद हुए 28 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में मतदाताओं ने एक बार फिर भाजपा सरकार के 7 महीने के कामकाज पर भरोसा जताया है। इस परिणाम के बाद भी 230 सदस्यों वाली मप्र विधानसभा में 229 विधायक ही रहेंगे। उपचुनाव के दौरान ही दमोह के कांग्रेस विधायक राहुल लोधी ने इस्तीफा दे दिया था। इसी के साथ सरकार बनाने के लिए बहुमत का आंकड़ा 115 हो गया और कांग्रेस के सामने सभी 28 सीटें जीतने की चुनौती आ गई। इसके बाद से ही भाजपा के लिए रास्ता आसान नजर आने लगा था, लेकिन कांग्रेस की ओर से सभी सीटें जीतने का दावा किया जाता रहा। उपचुनाव के नतीजों और कांग्रेस के दावों में जमीन-आसमान का अंतर रहा। परिणामों व रूझानों ने साबित कर दिया कि मप्र में शिवराज की लोकप्रियता सबसे अधिक है। कोरोनाकाल में मतदान प्रतिशत बढ़ने से लेकर अधिक संख्या में महिलाओं के मतदान करने के पीछे भी उनकी मामा की छवि का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस कामयाबी में कांग्रेस सरकार गिराने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया का योगदान भी शामिल है। यकीनन सिंधिया अब भाजपा में एक समानांतर सत्ता केंद्र बनकर उभरेंगे। हां, उनके लिए यह जरूर चिंता की बात होगी कि वे अपने ही गढ़ में साख नहीं बचा सके हैं। मार्च में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने 22 समर्थकों के साथ कमलनाथ सरकार की नैया डुबोकर भाजपा का गमछा गले में डाला था। बाद में तीन और कांग्रेस विधायक फुट लिए। तीन सीटें विधायकों की मृत्यु के कारण खाली हुईं। कुल 28 सीटों पर उपचुनाव में 19 सीटें जीतकर भाजपा-शिवराज ने अगले तीन साल के लिए प्रदेश पर निर्द्वन्द राज करने का जनादेश हासिल कर लिया है।
कमलनाथ की आगे की राह आसान नहीं
अपने आधी सदी के राजनीतिक जीवन में सरकार को खो देना और अब उपचुनाव में हार के बाद वे शायद ही कभी इस सदमे से उबर पाएं। लेकिन गत दिनों विधायक दल की बैठक में कमलनाथ नए जोश में नजर आए। उपचुनाव के नतीजे को लेकर भाजपा नेताओं द्वारा कमलनाथ के दिल्ली रवाना होने के बयानों पर मची हलचल के बाद पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा, जो कहते हैं कमलनाथ प्रदेश छोड़कर चले जाएंगे, वह यह सुन लें, कमलनाथ पूरे जीवन प्रदेश में ही रहकर कांग्रेसियों के साथ जनता की सेवा करने का काम करेंगे। साथ ही उन्होंने कहा है कि मैंने कभी किसी कांग्रेसी का सिर झुकने नहीं दिया है। इसके साथ ही कांग्रेस विधायक दल की बैठक में कमलनाथ ने उपचुनाव में दम लगाने वाले सभी कांग्रेसियों को धन्यवाद दिया है। कमलनाथ ने कहा कि नतीजे पार्टी की अपेक्षा के अनुरूप नहीं आए हैं, लेकिन वह हिम्मत हारने वालों में से नहीं है और संघर्ष का रास्ता खुला रखेंगे। उन्होंने कहा कि साल 2023 के लिए अभी से कांग्रेसियों को कमर कसनी होगी। इसके अलावा आगामी नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव को लेकर भी कमलनाथ ने कांग्रेसियों को अभी से जुटने को कहा है। कांग्रेसियों का मनोबल बढ़ाने के लिए उन्होंने कहा कि सभी को मिलकर संघर्ष करना होगा।
सिंधिया अग्निपरीक्षा में पास
जब सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ी तो कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें धोखेबाज, गद्दार कहा। इसके बाद ग्वालियर-चंबल अंचल में जीत दर्ज करना ये उनके लिए उपलब्धि है। क्योंकि इन इलाकों में महल का बड़ा मुकाम और प्रतिष्ठा है और वहीं से राजनीति होती है ऐसे में अब भाजपा ने उस पर कब्जा कर लिया है। पहली बार जब चुनाव हुए थे तो ये हिंदू महासभा का गढ़ माना जाता था और इसलिए जवाहरलाल नेहरू ने राजमाता सिंधिया को कांग्रेस का प्रतिनिधि बनाया था। वो चुनाव भी लड़ीं। कांग्रेस जानती थी कि ये क्षेत्र राइट विंग विचारधारा की तरफ झुक सकता है और इसी बात का कांग्रेस को डर हमेशा था लेकिन इस उपचुनाव में भाजपा से मिली भारी हार से अब ये क्षेत्र उसके हाथ से पूरी तरह से निकल चुका है। लेकिन क्या इस जीत के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया की भाजपा में शीर्ष पद पर जाने की संभावना बढ़ गई है? ज्योतिरादित्य का व्यक्तित्व काफी प्रभावशाली माना जाता है। उनकी अंग्रेजी और हिंदी भाषा पर अच्छी कमांड है। वे यूपीए के दौरान भी मंत्री रह चुके हैं तो ऐसे में इन सभी चीजों का समावेश करके देखा जाए तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह के बाद दूसरी पंक्ति के नेताओं जैसे देवेंद्र फडणवीस, स्मृति इरानी, योगी आदित्यनाथ की कतार में अब उन्हें भी शामिल कर लिया जाएगा। उन्हें केंद्र में मंत्री बनाया जा सकता है।
कांग्रेस की हार का ठीकरा 'नाथ’ के सिर
उपचुनाव में कांग्रेस की करारी हार का ठीकरा निश्चित तौर पर पूर्व मुख्यमंत्री व प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के सिर पर ही फूटेगा। 2018 में सरकार बनने के बाद उसे बचाए रखने में नाकाम रहे नाथ इस हार के बाद अपने सियासी जीवन की सबसे बड़ी मात का दोष किसी और के मत्थे मढ़ने की हालत में भी नहीं हैं। दोबारा सरकार में आने के लिए पार्टी आलाकमान ने उन्हें पूरी तरह फ्री हैंड दिया था। उम्मीदवारों के नाम तय करने से लेकर पूरे चुनाव अभियान में वे एकला चलो की नीति पर डटे रहे। चंबल से लेकर मालवा तक, निमाड़ से लेकर बुंदेलखंड तक सब जगह अकेले ही दौड़ते रहे। रस्म अदायगी को दिग्विजय सिंह, सुरेश पचौरी, अजय सिंह, अरुण यादव आदि का साथ लिया। दिग्विजय सिंह को चुनाव प्रचार के आखिरी तीन-चार दिन में मैदान में भेजा गया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उपचुनाव में चेहरा भी वही थे, मुद्दा भी वही। नारे भी उन पर, हरकारे भी उनके ही। अगर जीतते तो जीत का सेहरा उनके ही सिर बंधता। हारे हैं तो हार का हार भी उन्हें अपने गले में ही पहनना होगा।
- राजेंद्र आगाल