भारत में लुप्तप्राय शेरों का संरक्षण जरूरी है। यह बात कई शोध में सामने आ चुकी है। इसके लिए गुजरात के गिर के बब्बर शेरों को मप्र के श्योपुर जिले के कूनो पालपुर अभयारण्य में बसाने की कवायद वर्षों से चल रही है। वहीं शेरों की निगरानी और संरक्षण के लिए वन्यजीवों के जानकार केशव गोगोई और भारतीय वन्यजीव संस्थान के सहयोगियों ने अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। गुजरात के गिर जंगलों में केवल 50 की संख्या में बचे हुए एशियाई शेरों को संरक्षण के द्वारा बचाया गया था, जिनकी आज अनुमानित संख्या 500 तक पहुंच गई है। हालांकि, मौजूदा निगरानी के तरीके, विशेष रूप से एक तकनीक जिसे (टोटल काउंट्स) कुल गिनती के रूप में जाना जाता है। इस तकनीक में गिनने के दौरान कुछ शेर छूट सकते हैं या उनकी दोबारा गिनती हो सकती है। यह तरीका शेरों के स्थानीय आबादी के घनत्व पर बहुत सीमित जानकारी देता है।
नए अध्ययन में, गोगोई और उनके सहकर्मियों ने एशियाई शेरों की निगरानी के लिए एक वैकल्पिक तरीके का प्रयोग किया है। उन्होंने कंप्यूटर प्रोग्राम का उपयोग करके अलग-अलग शेरों की पहचान करने के लिए मूंछ पैटर्न और शरीर के स्थायी निशानों को पहचान के तौर पर इस्तेमाल किया है। शेरों के आबादी के घनत्व का अनुमान लगाने के लिए एक गणितीय मॉडलिंग विधि के साथ डेटा का विश्लेषण किया जाता है। जिसे स्थानीय तौर पर स्पष्ट रूप से कैप्चर रिकैप्चर के रूप में जाना जाता है। उन्होंने शेरों द्वारा किए जाने वाले शिकार की आबादी का घनत्व और अन्य कारकों का भी आकलन किया जो शेर के आबादी के घनत्व की विस्तृत जानकारी दे सकते हैं।
शोधकर्ताओं ने गिर के जंगल में 725 वर्ग किलोमीटर में एक अध्ययन किया, जिसके अंदर 368 शेर देखे गए। इनमें से 67 अलग-अलग शेरों की पहचान की गई, जिसमें प्रति 100 वर्ग किलोमीटर में 8.53 शेरों की आबादी के घनत्व का अनुमान लगाया गया। ऊबड़-खाबड़ या ऊंचे क्षेत्रों के विपरीत समतल घाटी में शेरों की आबादी का घनत्व अधिक पाया गया था और निकटवर्ती स्थलों पर जहां पर्यटक शेरों को देखना चाहते है वहां शेरों को आकर्षित करने के लिए भोजन रखा गया था। इसके अलावा शोधकर्ताओं ने अपने निष्कर्ष में कहा कि पर्यटन के लिए शेरों को लालच देने से उनके प्राकृतिक आबादी के घनत्व पैटर्न को बहुत नुकसान होता है। अन्य शोध भी यह दर्शाते है कि लालच के रूप में चारा देना शेर के व्यवहार और सामाजिक गतिशीलता (डाइनैमिक्स) को बाधित करता है। शोधकर्ताओं का सुझाव है कि उनकी वैकल्पिक निगरानी पद्धति का उपयोग शेरों को उनकी सीमा का आंकलन करने के लिए किया जाना चाहिए ताकि मौजूदा संरक्षण प्रयासों को अधिक सटीक रूप से उपयोग किया जा सके।
शोधकर्ताओं के मुताबिक दुनिया में एशियाई शेरों की एकमात्र आबादी सौराष्ट्र में जीवित है। विज्ञान और प्रबंधन का अच्छा उपयोग करके इन उप-प्रजातियों का प्राथमिकता के साथ संरक्षण करना सभी की जिम्मेदारी है। यह शोध इस प्राथमिकता को उनकी संख्या मूल्यांकन और निगरानी के लिए एक मजबूत दृष्टिकोण विकसित कर सकता है, जिसका उपयोग दुनियाभर में शेरों की आबादी का संरक्षण करने के लिए किया जा सकता है।
केंद्र सरकार के सिंह प्रोजेक्ट की शुरुआत वर्ष 1994 में हुई थी, जो आज भी अधूरी है। इस प्रोजेक्ट और शेर लाने के संबंध में प्रदेश सरकार का 27 वर्षों से गुजरात व केंद्र सरकार से पत्राचार चल रहा है। वर्ष 2003 में कूनो पालपुर में शेरों के रहवास के लिए समस्त सुविधाएं जुटा ली गईं, जिसकी जानकारी गुजरात को भी दे दी गई है। सरकार तकनीकी कमेटी की 85 फीसदी शर्तों को पूरा कर चुकी है। सुप्रीम कोर्ट की एक्सपर्ट कमेटी भी कूनो पालपुर में शेरों की शिफ्टिंग पर सहमति दे चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने 2013 छह माह में शेर शिफ्ट करने के निर्देश गुजरात सरकार को दिए थे। इसके बाद भी गुजरात सरकार शेर देने को तैयार नहीं है।
कूनो-पालपुर में गिर के एशियाई शेरों को बसाने के लिए सुप्रीम कोर्ट फैसला 2013 में कर चुका है। जिस पर ट्रांस लोकेशन कमेटी 2016 में विजिट कर चुकी है और शेरों की बसाहट के लिए इसे अनुकूल बता चुकी है। लेकिन यहां गुजरात हमेशा ही टाइगर ट्रेल बताकर शेर देने में आनाकानी कर रहा है और मामले में नए-नए पेंच फंसाकर इसमें लगातार देरी कर रहा है। चूंकि कूनो-पालपुर सेंक्चुरी राजस्थान के सवाई-माधौपुर स्थित रणथम्भौर सेंक्चुरी से नजदीक है और यहां बाघों का विचरण भी होता रहता है। ऐसे में अफ्रीका चीता यहां बसाने में कठिनाई आएगी। क्योंकि चीता उसी जंगल में रुकता है जहां पहले से कोई बड़ा जानवर यानी बाघ या शेर न हो। यदि ऐसा भी है तब भी उसे कम से कम दो साल का समय लगता है। इन दो सालों में वह अपनी व अपने परिवार की सुरक्षा सुनिश्चित करने के बाद ही जंगल में रुकता है लेकिन कूनो सेंक्चुरी में टाइगर लगातार आता जाता है। मप्र के ही नोरदेही में चीता बसाने के लिए केंद्र से पूर्व में चिन्हित किया था। कूनो के साथ इस जगह का नाम भी शामिल है। लेकिन वर्तमान में यहां सरकार को भारी मशक्कत करनी पड़ेगी। यहां चीता बसाना आसान नहीं है। नोरदेही में जंगलों के बीच में ही कई अतिक्रमण हैं, इनमें करीब 55 गांव बसे हुए हैं। जिन्हें विस्थापित करना सरकार के लिए आसान नहीं है।
शेरों का कब्रगाह बन गया गिर वन
गुजरात का गिर वन जंगल के राजा शेरों के लिए कब्रगाह बनता जा रहा है। गुजरात सरकार की ओर से विधानसभा में पेश आंकड़े तो यही इशारा कर रहे हैं। गुजरात के वन मंत्री के मुताबिक 2 साल में 222 शेरों की मौत हो चुकी है। वनमंत्री गणपत वसावा ने कहा कि पिछले दो सालों यानी 2017-18 और 2018-2019 में गुजरात में अब तक 222 शेरों की मौत हो चुकी है। वन मंत्री ने कहा कि ज्यादातर शेरों की मौत प्राकृतिक है, हालांकि कई शेर अप्राकृतिक कारणों से भी मरे हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दो साल में 52 शेरों, 74 शेरनियों जबकि 90 शावकों की मौत हुई है। शेरों से जुड़े आंकड़ों की जानकारी कांग्रेस के विधायक इमरान खेड़ावाला ने मांगी थी। सरकार द्वारा डाटा दिए जाने के बाद कांग्रेस ने सदन में हंगामा किया और कहा कि वन विभाग शेरों के रख-रखाव में घोर लापरवाही बरत रहा है। कांग्रेस का आरोप है कि केंद्र सरकार शेरों पर खर्च करने के लिए करोड़ों रुपए की ग्रांट की देती है, बावजूद इसके शेरों की असमय मौत हो रही है।
- धर्मेन्द्र सिंह कथूरिया