मप्र की सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा को 25 सीटों के उपचुनाव में कम से कम 9 सीटें जीतनी पड़ेंगी। इसके लिए भाजपा कोई रिस्क नहीं उठाना चाहती है। इसलिए उसने राज्यसभा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया पर ही पूरा दांव लगा दिया है। इसकी वजह यह है कि 23 विधानसभा सीटों के प्रत्याशी सिंधिया से जुड़े हैं। ऐसे में भाजपा उन्हें ही आगे करके उपचुनाव लड़ेगी।
भाजपा आलाकमान का मकसद हर हाल में मध्यप्रदेश में सत्ता हासिल करने का रहा, जिसके चलते कांग्रेस से भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ जो डील हुई उसी को अब पूरा किया जा रहा है। नतीजतन सिंधिया खेमे के 9 और मंत्रियों को शिवराज मंत्रिमंडल में शामिल किया गया, दो पहले से ही मौजूद हैं। कांग्रेस की गलती भाजपा कतई नहीं दोहराएगी। सिंधिया को भाजपा में पूरी तवज्जो मिल रही है यानी टाइगर की ही चल रही है और विभागों के बंटवारे में भी यह स्पष्ट हो गया। भाजपा के असंतुष्टों के पास कोई विकल्प भी नहीं है और दो-चार दिन की नाराजगी के बाद पार्टी का काम करना ही पड़ेगा, क्योंकि संगठन काफी मजबूत है। प्रदेश की सत्ता पर लगातार कब्जा बनाए रखने के लिए उपचुनावों में भी जीत हासिल करने पर जोर रहेगा, क्योंकि सभी 22 समर्थक सिंधिया खेमे के ही हैं, जहां उपचुनाव होना है।
प्रदेश में कांग्रेस की सरकार को गिराकर भाजपा की सरकार जिन शर्तों पर बनी उसका पूरा पालन दिल्ली में बैठे पार्टी आलाकमान से लेकर प्रधानमंत्री तक करेंगे, क्योंकि सिंधिया भी कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं। भाजपा में शामिल होने से पहले उन्होंने अमित शाह से लेकर मोदी से बकायदा चर्चा की और अपनी सारी शर्तें भी उन्हें बता दीं। यही कारण है कि मंत्रिमंडल विस्तार और विभागों के बंटवारे में सिंधिया को पूरी तवज्जो दिल्ली दरबार से दी गई, चाहे भोपाल में बैठे भाजपा के तमाम पदाधिकारी और पूर्व मंत्री लाख हाथ-पैर मारते रहे हों। जो गलती कांग्रेस ने की उसे भाजपा नहीं दोहराएगी और महाराज को पूरी तवज्जो मिलेगी और संभव है कि आने वाले दिनों में शिवराज के विकल्प के रूप में भी महाराज को खड़ा कर दिया जाएगा, क्योंकि उनका चेहरा चमकदार है और ग्वालियर, चंबल सहित मालवा-निमाड़ तक की कई सीटों पर उनका अच्छा-खासा असर है। यहां तक कि कांग्रेस के लाख प्रयासों के बावजूद 22 बागी विधायकों में से एक भी नहीं टूटा और वे महाराज के साथ ही बंधे रहे। अभी 25 सीटों पर उपचुनाव होना है, जिनमें से 16 सीटें ग्वालियर-चंबल संभाग से ही आती है, जिसे जीतने के लिए महाराज की ही जरूरत भाजपा आलाकमान को पड़ेगी। यही कारण है कि पहले राज्यसभा में उन्हें भेजा गया, उसके बाद मंत्रिमंडल में भी उनके समर्थकों को लिया गया और विभागों के बंटवारे में भी उनका दबदबा कायम रहा। कांग्रेस आलाकमान के उलट भाजपा आलाकमान ने देशभर में सत्ता हासिल करने के लिए हर तरह की रणनीति कुबूल की और जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी या भाजपा के विधायक कम जीते वहां भी जोड़-तोड़ कर सरकार बना ली। सिर्फ महाराष्ट्र में ही दांव शरद पवार ने फेल कर दिया और अब जो राज्य कांग्रेस के पास हैं उन्हें भी लगातार इसीलिए डिस्टर्ब किया जा रहा है और कांग्रेस आलाकमान इस मामले में लगातार गच्चा खाते रहे हैं। यही कारण है कि प्रदेश की कांग्रेस सरकार को बचाने के भी कोई प्रयास कांग्रेस आलाकमान ने नहीं किए। इसकी तुलना में भाजपा आलाकमान से लेकर संघ सहित पूरा संगठन इसमें भिड़ गया और सरकार गिराकर अपनी बना ली। भोपाल आए सिंधिया ने भी लंबे समय बाद मुंह खोला और उनके खिलाफ हो रही बयानबाजी का कड़ा जवाब देते हुए कहा कि टाइगर अभी जिंदा है... कांग्रेस की इतनी क्षमता नहीं है कि वह 10-15 भाजपाई विधायकों को तोड़कर अपने साथ कर ले, क्योंकि केंद्र में भी उसकी हालत पतली है। लिहाजा असंतुष्टों के पास कोई विकल्प नहीं है। दो-चार दिन की नाराजगी के बाद मन मारकर उन्हें भाजपा का ही झंडा उठाए रखना पड़ेगा और प्रदेश की राजनीति में अब सिंधिया को कांग्रेस से ज्यादा भाजपा में तवज्जो मिलती नजर आएगी।
कुलीनों की पार्टी का तमगा लगाने वाली भारतीय जनता पार्टी में इन दिनों अप्रत्याशित रूप से बदलाव दिख रहा है। यही वजह है कि इस दल और सरकार में पहले संगठन ही सर्वोपरि होकर एकमात्र पॉवर सेंटर हुआ करता था, लेकिन अब पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद सूबे के सत्ता में अप्रत्याशित रूप से वापसी करने वाली भाजपा में अब एक-दो नहीं बल्कि पांच-पांच पॉवर सेंटर बन गए हैं। यही नहीं अब प्रदेश के ग्वालियर-चंबल संभाग में पूरी तरह से सियासी समीकरण बदल चुके हैं। बदले हुए समीकरणों में अब अंदर ही अंदर भाजपा संगठन व सरकार में वर्चस्व की अंदर ही अंदार जंग शुरू हो चुकी है, वहीं मप्र कांग्रेस में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का ही एकमात्र पॉवर सेंटर बना हुआ है। दरअसल आज भी प्रदेश कांग्रेस में दिग्विजय सिंह जितने बड़े कद का कोई नेता नहीं है। कमलनाथ सरकार के बाहर होने के पहले तक ग्वालियर-चंबल संभाग में भाजपा के फैसले आरएसएस, पार्टी संगठन, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की राय से होते रहे हैं। अब परिस्थिति बदल चुकी है। यही वजह है कि मंत्रिमंडल विस्तार से लेकर हर छोटे-छोटे मसलों पर भी निर्णय में देरी साफ-साफ देखी जा सकती है। पूर्व में भाजपा की सरकार व संगठन में शिवराज व तोमर ही पॉवर सेंटर रहा करते थे। इनमें भी शिवराज सिंह व तोमर के बीच तालमेल होने की वजह से वे कभी भी अलग-अलग नजर नहीं आए हैं। फिलहाल अब शिवराज, सिंधिया, नरेंद्र सिंह तोमर, नरोत्तम मिश्रा और वीडी शर्मा के रूप में यह पॉवर सेंटर दिख रहे हैं।
कमलनाथ सरकार को सत्ता से बाहर करने के सियासी ऑपरेशन में बेहद बड़ी भूमिका निभाने वाले प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा के कद में यकायक वृद्धि हुई है। इसके पहले भी केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के करीबी होने की वजह से उन्हें ताकतवर बनने में मदद मिली है। कमलनाथ सरकार को बाहर करने के मुख्य किरदार रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी भाजपा संगठन में अहम महत्व मिलने से वे भी नए शक्ति केंद्र बन चुके हैं। अपने पहले के कद की वजह से उनकी भी एक अहम हैसियत है और सरकार बनवाने का असली श्रेय भी उन्हीं को जाता है। यही वजह है कि अपने अभियान के सहयोगियों को उपकृत कराने में वे पूरी तरह से सफल रहे हैं। सत्ता के अलावा संगठन में पकड़ मजबूत करने वालों में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा का भी चेहरा उभरकर सामने आया है। संगठन के मुखिया होने के नाते से उनकी पंसद-नापसंद का असर साफतौर पर दिखाई दिया है। इस वजह से अफसरों की तैनाती से लेकर कई फैसलों में सरकार में असमंजस की स्थिति दिखाई दी है।
कुछ माह पहले तक कांग्रेस में सिंधिया और दिग्विजय सिंह की अलग-अलग पंसद और नापसंद का ध्यान रखना पड़ता था। पार्टी आलाकमान भी इसी को मद्देनजर रखकर फैसला करता था। टिकट बंटवारे से लेकर हर महत्वपूर्ण मामलों में दिग्विजय-सिंधिया के बीच रार सामने आती रही है। कई बार तो यह सार्वजनिक भी हो जाती थी और कभी नेतृत्व के स्तर पर ही इसे सुलझा लिया जाता था। अब सिंधिया कांग्रेस से बाहर जा चुके हैं, लिहाजा संगठन में दिग्विजय की ताकत में भारी वृद्धि हुई है और उनके फैसले की अहमियत भी बढ़ चुकी है। खासतौर पर अब ग्वालियर-चंबल संभाग में उनका ही बोलबाला हो गया है। मध्यप्रदेश भाजपा के मुख्य प्रवक्ता दीपक विजयवर्गीय ने कहा कि भाजपा में संगठन ही फैसले लेता है। नेता और कार्यकर्ता सभी संगठन के फैसलों के अनुरूप ही अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं। हमारे यहां गुटबाजी और वर्चस्व की लड़ाई जैसी कोई बात नहीं है। मप्र कांग्रेस के प्रवक्ता दुर्गेश शर्मा का कहना है कि प्रदेश कांग्रेस का मुखिया होने के नाते सभी फैसले कमलनाथ लेते हैं। उन्होंने उपचुनाव के लिए सर्वे कराकर प्रत्याशियों को चिन्हित कर दिया है। अंतिम निर्णय केंद्रीय नेतृत्व का होगा।
उपचुनावों में भाजपा का ही रहेगा पलड़ा भारी
25 सीटों पर उपचुनाव होना है उनमें से 23 सीटें तो बागी कांग्रेसियों की हैं, जिस पर सिंधिया समर्थकों को ही भाजपा को टिकट देना पड़ेगा। बहुमत के आधार पर भी कांग्रेस की स्थिति फिलहाल कमजोर है। वहीं कांग्रेस को सरकार में लौटने के लिए 23 सीटें जीतना जरूरी है, जो कि फिलहाल असंभव ही है और भाजपा को सत्ता बनाए रखने के लिए सिर्फ 9 सीटों की ही जरूरत है, इसकी तुलना में वह दोगुनी से अधिक सीटें जीत लेगी। यही नहीं भाजपा के सभी नेताओं ने मैदानी मोर्चा संभाल लिया है। कुछ वर्चुअल रैली कर रहे हैं तो कुछ ने कार्यकर्ताओं के साथ बैठकें करनी शुरू कर दी है। उधर कांग्रेस अभी भी चुनावी मोड में नजर नहीं आ रही है।
उपचुनाव जीतने में शिवराज को महारत
पिछले दो दशकों से इंदौर में ताई-भाई की राजनीति चलती रही, जिसके कारण भोपाल से दिल्ली तक भाजपा के वरिष्ठ नेताओं, आलाकमान और संघ पदाधिकारियों के भी कान पक गए। टिकट वितरण से लेकर मंत्रिमंडल सहित अन्य महत्वपूर्ण मामलों में ताई-भाई का विवाद सुर्खियों में रहा, लेकिन पार्टी आलाकमान ने होशियारी से ताई को टिकट भी नहीं दिया और एक तरह से हाशिए पर ला दिया। अब इसी तरह की स्थिति विजयवर्गीय की भी नजर आ रही है। प्रदेश के ग्वालियर-चंबल अंचल के तहत आने वाली जिन 16 सीटों पर उपचुनाव होना हैं, वहां पर अनुसूचित जाति वर्ग के 20 फीसदी मतदाता होने की वजह से भाजपा व कांग्रेस दोनों ही दलों की नजर इस वर्ग पर लगी हुई है। यही वजह है कि इस अंचल की उपचुनाव वाली सीटों पर जीत तय करने के लिए इन दोनों ही दलों के रणनीतिकार जातीय समीकरणों को ध्यान में रखकर तैयारी कर रहे हैं। इससे माना जा रहा है कि इन सीटों पर पूरी तरह से दलित एजेंडा चलेगा। दरअसल इस बार उपचुनाव में राजनीतिक परिस्थितियां काफी अलग हैं। यही उपचुनाव तय करेंगे कि प्रदेश में किसकी सरकार रहेगी। इस अंचल के तहत आने वाली 4 सीटों पर यह वर्ग निर्णायक भूमिका में हैं। यही वजह है कि बीते चुनाव में डबरा-करैरा सीट पर बसपा प्रत्याशी दूसरे नंबर रह चुके हैं। जातीय समीकरणों को देखते हुए ही बसपा ने पहली बार उपचुनाव में सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। कुल मिलाकर बसपा की रणनीति सरकार बनने का गणित बिगाड़ने की रहने वाली है। कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतकर विधायक बने चेहरे उपचुनाव में अब भाजपा के टिकट पर वोट मांगते नजर आने वाले है।
- कुमार राजेन्द्र