ब्यूरोक्रेट्स के अति आत्मविश्वास और स्वास्थ्य विभाग के अफसरों की लापरवाही से बिगड़े हालात
मप्र में कोरोना की मार, बिना स्वास्थ्य और गृहमंत्री की सरकार
स्वास्थ्य विभाग खुद बीमार, मरीजों का कौन करे इलाज
एक छोटी सी चूक या झूठ कितनी बड़ी महामारी का रूप ले लेती है इसका उदाहरण मध्यप्रदेश में देखने को मिल रहा है। पहले सत्ता की लड़ाई उसके बाद यहां के नौकरशाहों के अतिआत्मविश्वास और स्वास्थ्य विभाग के अफसरों की लापरवाही ने इंदौर को मौतगाह बना दिया है। बाहरी सीमाओं से सबसे सुरक्षित प्रदेश आज कोरोना वायरस से मरने वालों में दूसरे नंबर पर पहुंच गया है। अगर शासन और प्रशासन ने समय रहते सतर्कता बरती होती तो आज स्थिति कुछ और होती।
जनता ने मानी एडवाइजरी, अफसरों के लिए बेमानी
कोरोना का सरकारी अस्पताल बना चिरायु
न ठीक से मॉनिटरिंग और न ही टेस्टिंग किट की उपलब्धता
रोम जल रहा था और नीरो बांसुरी बजा रहा था... यह कहावत आपने कई बार सुनी होगी। लेकिन इस बार मार्च महीने में इस कहावत का चित्रण देखने को मिला। जब देश और प्रदेश में कोरोना वायरस का संक्रमण पैर पसार रहा था उस समय मप्र में सत्ता हथियाने और बचाने का खेल खेला जा रहा था। विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित कई अन्य संस्थाओं ने फरवरी के मध्य में ही चेतावनी दी थी कि इस वायरस के संक्रमण से बचने के लिए सभी देश सचेत हो जाएं, लेकिन न ही भारत सरकार और न ही प्रदेश सरकार ने इस पर गौर किया। क्योंकि उस दौरान केंद्र की भाजपा सरकार मध्यप्रदेश में सत्ता हथियाने के लिए चक्रव्यूह बना रही थी। वहीं भाजपा के इस चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए मप्र की कांग्रेस सरकार जुटी हुई थी। सत्ता की यह लड़ाई ऐसे मोड़ पर पहुंच गई थी कि न केंद्र सरकार ने कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए सख्त कदम उठाए और न ही मप्र की तत्कालीन कमलनाथ सरकार ने। इसका परिणाम यह हुआ कि 20 मार्च को जब कांग्रेस सरकार अल्पमत में आ गई तो कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। वहीं इसी दिन प्रदेश में पहले कोरोना वायरस से संक्रमित व्यक्ति की पुष्टि हुई। संक्रमित के मिलने के बाद भी तीन दिनों तक नए मुख्यमंत्री का इंतजार किया गया। और जब 23 मार्च को शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री की शपथ ली तो रात 12 बजे तक उन्होंने अफसरों के साथ बैठकर कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने की दिशा में कदम उठाया।
...तो नहीं बिगड़ते हालात
जानकार बताते हैं कि जिस दौरान प्रदेश में कोरोना वायरस संक्रमित व्यक्ति विदेश से आ रहे थे, उस दौरान यहां भाजपा और कांग्रेस के बीच सत्ता हथियाने का संग्राम इस कदर चरम पर था कि अफसर भी दर्शक बन बैठे थे। अगर प्रदेश के बड़े पदों पर बैठे अफसर अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए तत्कालीन सरकार को सलाह देते तो निश्चित रूप से हालात इतने नहीं बिगड़ते। सूत्र बताते हैं कि अफसरों ने इसलिए कठोर कदम नहीं उठाए कि स्वास्थ्य विभाग की तत्कालीन प्रमुख सचिव पल्लवी जैन का बेटा और डॉ. वीणा सिन्हा की बेटी दोनों अमेरिका से आए और साथ ही कई अफसरों के नाते-रिश्तेदार भी विदेशों में कोरोना वायरस फैलने के बाद मप्र का रुख कर चुके थे। ऐसी ही लापरवाहियों का असर है कि 15 अप्रैल तक प्रदेश में कोरोना वायरस संक्रमितों का आंकड़ा 869 पहुंच गया। इनमें से 55 लोगों की मौत हो गई है। प्रदेश में सबसे अधिक संक्रमित और मौत के मामले इंदौर में आए हैं। इंदौर में संक्रमितों की संख्या 600 से ऊपर है, जबकि यहां 39 लोगों की मौत हो चुकी है।
पहला हॉटस्पॉट स्वास्थ्य विभाग
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कई बार कह चुके हैं कि मप्र में कोरोना वायरस जमातियों के कारण फैला है। लेकिन यह बात उन्हें भी
भली-भांति मालूम है कि उनके अफसरों की लापरवाही के कारण प्रदेश में कोरोना वायरस का पहला हॉटस्पॉट स्वास्थ्य विभाग ही बना है। संकट की इस घड़ी में जिस स्वास्थ्य महकमे पर सबसे ज्यादा दारोमदार था, उसके 80 से ज्यादा अधिकारी और डॉक्टर संक्रमित हो चुके हैं। इनमें जहां 20 के करीब स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी हैं, वहीं उनके परिजनों की संख्या करीब 30 है। इनके अलावा विभाग के कर्मचारी, कंप्यूटर ऑपरेटर, कन्सलटेंट आदि हैं। यह साबित करता है कि लापरवाही किस स्तर पर बरती गई। हद तो यह है कि स्वास्थ्य विभाग की जो बड़ी बैठक हुई थी और जिसमें संक्रमित अधिकारी भी शामिल हुए थे, उसी बैठक में शामिल एक सीनियर महिला अधिकारी जो बाद में संक्रमित निकलीं वे एक दिन पहले पुलिस विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी के संपर्क में थीं। इससे संभावना जताई जा रही है कि कहीं उक्त अधिकारी भी संक्रमण के शिकार तो नहीं हैं।
कुछ की लापरवाही पड़ी भारी
सूत्र बताते हैं कि स्वास्थ्य विभाग के अफसरों ने शुरू से ही लापरवाही से काम किया। इसी का परिणाम है कि आज कोरोना वायरस प्रदेश में खतरनाक रूप ले चुका है। अगर शुरू से ही स्वास्थ्य विभाग सचेत रहता तो आज विभाग के बड़े अधिकारी और डॉक्टर अस्पताल या क्वारैंटाइन में रहने की बजाय संक्रमितों का इलाज करते रहते। स्वास्थ्य विभाग के सूत्रों का कहना है कि कुछ लोगों की लापरवाही का खामियाजा विभाग को भुगतना पड़ रहा है। सूत्रों ने बताया कि भोपाल में इंटीग्रेटेड डिजीज सर्विलांस प्रोग्राम के प्रमोद गोयल 21 मार्च की रात की चार्टर्ड बस से इंदौर से भोपाल पहुंचे। वे 22 और 23 मार्च को दफ्तर आए तो उन्हें बुखार और खांसी थी। उनकी जांच करने के बजाय उन्हें घर जाने की सलाह दी गई। वहीं 22 मार्च को स्वास्थ्य विभाग में सोशल डिस्टेंसिंग को धता बताकर करीब 70-80 अधिकारियों-कर्मचारियों की बैठक हुई। इस बैठक में कोई सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं हुआ। बताया जाता है कि कुछ अधिकारियों ने विभाग की तत्कालीन प्रमुख सचिव पल्लवी जैन गोविल को आगाह भी किया था कि कोरोना वायरस का संक्रमण फैल रहा है इसलिए सोशल डिस्टेंसिंग का ख्याल रखा जाए। लेकिन पल्लवी जैन ने किसी की एक नहीं सुनी और अधिकारियों को जिलों में कोरोनावायरस से निपटने की तैयारी का जायजा लेने के लिए जाने का आदेश भी जारी कर दिया। यही नहीं स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी का आरोप है, विभाग के प्रमुखों ने खुद लक्षण पहचानते हुए भी लापरवाही बरती, नहीं तो 25 मार्च से पहले ही इस बीमारी का पता चल जाता। सूत्र बताते हैं कि कुछ अधिकारियों ने प्रमोद गोयल के स्वास्थ्य को लेकर भी आशंका जताई थी लेकिन उस पर ध्यान नहीं दिया गया।
अतिआत्मविश्वास ले डूबा
दरअसल, स्वास्थ्य विभाग में फैले कोरोना वायरस के संक्रमण को देखा जाए तो यह नौकरशाहों के अतिआत्मविश्वास का परिणाम है। प्रदेश में जब कोरोना वायरस फैल रहा था तो उसकी न तो ठीक से मॉनीटरिंग की गई, न टेस्टिंग किट की उपलब्धता थी। स्वास्थ्य विभाग को तो ये भी नहीं पता था कि टेस्टिंग किट कैसी होनी चाहिए। राज्य में कोरोनावायरस के संक्रमण को रोकने की सबसे अहम जिम्मेदारी प्रदेश में आयुष्मान योजना के सीईओ और आईएएस जय विजय कुमार की थी। सबसे पहले वे कोरोनावायरस पॉजिटिव पाए गए। उनके पॉजिटिव होने के बाद उनके साथ रहे करीब 12 आईएएस अफसरों ने खुद को क्वारेंटाइन कर लिया। इसके बाद राज्य की स्वास्थ्य विभाग की तत्कालीन प्रमुख सचिव रहीं पल्लवी जैन गोविल भी कोरोनावारस संक्रमित पाई गईं। इसके बाद वे लगातार घर से काम कर रही थीं। यही नहीं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी उनकी पीठ थपथपाई थी कि वे कोरोना वायरस पीड़ित होने के बाद भी घर पर 10-12 घंटे काम कर रही हैं। हालांकि बाद में हल्ला मचने के बाद उन्हें बंसल अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहीं वीणा सिन्हा ने भी खुद को अपने घर में क्वारेंटाइन कर रखा था। बाद में उन्हें भी अस्पताल भेजा गया।
सबसे बड़ी गुनहगार ये
स्वास्थ्य विभाग के अफसरों का आरोप है कि विभाग में कोरोना वायरस का संक्रमण फैलाने की सबसे बड़ी गुनहगार पल्लवी जैन और तत्कालीन एडिशनल डायरेक्टर हेल्थ डॉ. वीणा सिन्हा थीं। इन दोनों पर आरोप है कि उनके बेटा-बेटी अमेरिका से आए लेकिन इसकी जानकारी इन्होंने छिपाकर रखी। यही नहीं कोरोनावायरस संक्रमित होने के बाद भी वे बैठक में आती-जाती रहीं। पल्लवी जैन की जांच के बाद उनके घर के अन्य सदस्यों की रिपोर्ट की भी जांच कराई गई जिसमें किसी को भी कोरोनावायरस के लक्षण नहीं पाए गए हैं। वहीं डॉ. वीणा सिन्हा भी कोरोनावायरस से संक्रमित हैं। वे भी होम क्वारेंटाइन हैं। इनसे भी संपर्क में आने वाले लोगों को क्वारेंटाइन कर उनका सैंपल लिया गया है। बताया जाता है कि इन दोनों महिला अधिकारियों के मार्फत ही कोरोना वायरस का संक्रमण पूरे स्वास्थ्य विभाग में फैला है।
नहीं रहा महामारी का अंदाजा
स्वास्थ्य विभाग को इस महामारी की भयावहता का अंदाजा ही नहीं हो पाया। शुरुआती दौर में इसे सामान्य तौर पर लिया गया और अधिकारियों को प्रभारी अधिकारी बनाकर जिलों में भेज दिया गया। इसके लिए जो बैठक की गई, उसमें भी शारीरिक दूरी का पालन नहीं किया गया। विभाग ने कोरोना से बचाव के लिए न तो शुरुआती दौर में जरूरी संसाधन जुटाने और न ही जांच का दायरा बढ़ाने को लेकर काम किया। यही वजह है कि अब जैसे-जैसे जांच होती जा रही है, वैसे-वैसे संक्रमित लोगों का आंकड़ा भी बढ़ता जा रहा है। आश्चर्य की बात है कि जिस स्वास्थ्य महकमे को कोरोना वायरस के संक्रमण को लेकर सबसे ज्यादा सचेत रहना था, उसके ही अधिकारियों-कर्मचारियों ने लापरवाही बरती। 21 मार्च को डिप्टी डायरेक्टर प्रमोद गोयल इंदौर से आकर बुखार, सर्दी और खांसी के बीच लगातार बैठकों में हिस्सा लेते रहे। तत्कालीन प्रमुख सचिव पल्लवी जैन गोविल और संचालक विजय कुमार और कुछ दिन के लिए यहां सेवाएं देने वाले आईएएस गिरीश शर्मा भी जांच में संक्रमित पाए गए हैं। इनके अलावा स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी, चिकित्सक और उनके परिजन भी कोरोना वायरस की चपेट में आ गए हैं, जिनका इलाज एम्स और चिरायु अस्पताल में चल रहा है।
10 लाख पर 72 का टेस्ट
अब बात करते हैं मप्र में कोरोना वायरस से लड़ने के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं की। तो यहां सरकारें बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के बड़े-बड़े दावे करती रहती हैं। लेकिन स्थिति यह है कि यहां कोरोना वायरस से लड़ने के लिए पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं। खासकर प्रदेश के सरकारी अस्पतालों की स्थिति तो इस कदर दयनीय है कि लोगों को उन पर विश्वास ही नहीं है। वर्तमान में मप्र में 52 में से 25 जिले कोरोना संक्रमित पाए गए हैं। 27 जिले अभी भी इस बीमारी से बचे हुए हैं। लेकिन भारतीय चिकित्सा परिषद के आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो मप्र में जितने टेस्ट होने चाहिए नहीं हो पा रहे हैं। टेस्ट किट की कमी और पैथोलॉजी के अभाव में मप्र पिछड़ता दिखाई दे रहा है। भारतीय चिकित्सा परिषद के आंकड़ों के अनुसार मप्र में प्रति 10 लाख लोगों पर मात्र 72 लोगों का ही चेकअप किया गया है। जबकि दिल्ली में 593, केरल में 365, राजस्थान में 298, उत्तराखंड में 115, गुजरात में 103 लोगों का चेकअप किया गया है। जहां तक पैथोलॉजी लैब का सवाल है मप्र में अभी तक सिर्फ 7 लैब काम कर रही हैं। जबकि महाराष्ट्र में 29, तमिलनाडु में 21, कर्नाटक में 16, तेलंगाना में 16, दिल्ली में 15, केरल में 12, उत्तर प्रदेश में 11, गुजरात और पश्चिम बंगाल में 10-10 और हरियाणा और राजस्थान में 8-8 लैब काम कर रही हैं। ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारी स्वास्थ्य सुविधाएं कैसी हैं। आलम यह है कि स्वास्थ्य अधिकारियों को अपने ही विभाग पर भरोसा नहीं है। राजधानी भोपाल की बात करें तो अब तक एम्स के अलावा किसी भी सरकारी अस्पताल में कोरोना पोजिटिव मरीजों को इलाज के लिए नहीं भेजा गया है। जबकि हमीदिया और बीएमएचआरसी में 800 से ज्यादा मरीजों की छुट्टी कर उन्हें खाली करा दिया गया था।
एम्स नहीं भा रहा अफसरों को
अपनी स्वास्थ्य सुविधाओं और इलाज के लिए विख्यात एम्स भी स्वास्थ्य विभाग के अफसरों को पसंद नहीं आ रहा है। यह वही एम्स है जिसमें इलाज कराकर शहर के पहले दो पॉजिटिव मरीज पत्रकार और उनकी बेटी स्वस्थ हो चुके हैं और घर पर खुश हैं। इसके बावजूद स्वास्थ्य विभाग ने अपने 11 कर्मचारियों को एम्स से चिरायु शिफ्ट करने के लिए एम्स प्रबंधन को पत्र लिखा है। इससे एम्स में कोरोना के पॉजिटिव मरीजों का इलाज करने वाले डॉक्टर्स और स्टाफ में खासी नाराजगी है। डॉक्टर्स और स्टाफ की मानें तो उनका कहना है कि हम दिन-रात जान जोखिम में डालकर इलाज कर रहे हैं और अधिकारी डब्ल्यूएचओ की गाइडलाइन के खिलाफ पॉजिटिव मरीज को एक जगह से दूसरे अस्पताल में शिफ्ट करने का आदेश जारी कर रहे हैं।
कोरोना के संदिग्ध और पॉजिटिव मरीजों के लिए आइसोलेशन और ट्रीटमेंट सेंटर बनाने के लिए हमीदिया और बीएमएचआरसी को खाली करा लिया गया। लेकिन अब तक मिले संदिग्ध मरीज जेपी अस्पताल में ही रखे जा रहे हैं और पॉजिटिव मरीजों को एम्स भेजा जा रहा है। हमीदिया अस्पताल के इमरजेंसी ब्लॉक को कोरोना के लिए तैयार भी कर लिया गया। लेकिन अब तक एक भी पॉजिटिव मरीज हमीदिया और बीएमएचआरसी में नहीं भेजा गया बल्कि स्वास्थ्य अधिकारियों के कोरोना पॉजिटिव पाए जाने पर उन्हें निजी अस्पताल में भर्ती किया जाने लगा। अधिकारियों के इस रवैए को देख आज जनता भी हैरत में है। क्या सरकारी स्वास्थ विभाग प्रदेश की जनता के इलाज के लिए सक्षम है क्योंकि बीमारी वीआईपी या सामान्य देखकर तो नहीं आएगी। हालांकि एम्स के डॉक्टर्स ने डब्ल्यूएचओ की गाइडलाइन का हवाला देते हुए एक बार भर्ती हुए मरीज को कहीं भी शिफ्ट करने से मना कर दिया है। क्योंकि ऐसे में एम्बुलेंस और दोनों अस्पतालों के स्टाफ के संक्रमित होने का खतरा रहता है।
चिरायु पर ही भरोसा क्यों?
राजधानी में एम्स सहित सर्वसुविधायुक्त हमीदिया, जेपी और बीएमएचआरसी जैसे अस्पताल होने के बाद भी सरकार ने निजी अस्पताल चिरायु पर भरोसा जताया है। जबकि भोपाल में तीन मेडिकल कॉलेज और हैं, जो अलग-अलग क्षेत्रों में हैं। उन्हें भी कोविड़-19 के इलाज के लिए नामित किया गया है, लेकिन मरीजों को वहां क्यों नहीं भेजा जा रहा है। वर्तमान समय में चिरायु में करीब 150 कोरोना वायरस संक्रमितों का इलाज चल रहा है। इन संक्रमितों के इलाज के लिए सरकार को करोड़ों रुपए की राशि चुकानी पड़ रही है। हालांकि चिरायु में भर्ती मरीजों का कहना है कि अस्पताल में उन्हें वह सारी सुविधाएं मिल रही हैं जो किसी सरकारी अस्पताल में नहीं मिल सकती हैं। अस्पताल में भर्ती स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि यहां हमारी स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ ही मनोरंजन का भी विशेष ख्याल रखा जा रहा है।
इन सबके इतर अगर देखा जाए तो सवाल यह उठता है कि आखिरकार हमारी सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था में ऐसी क्या खामी है कि सरकार को गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए चिरायु जैसे निजी अस्पतालों का सहारा लेना पड़ता है। जब कोरोना वायरस विश्व पटल पर नवंबर-दिसंबर और भारत में जनवरी में दस्तक दे चुका था तो सरकार ने सरकारी अस्पतालों में इलाज की व्यवस्था क्यों नहीं की? वर्तमान समय में प्रदेश की कमान संभालने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने पूर्ववर्ती शासनकाल में दावा करते थे कि मप्र की स्वास्थ्य सुविधाएं देश में सबसे बेहतर हैं, फिर उन्हें निजी अस्पताल का सहारा क्यों लेना पड़ा है।
इंदौर में भी प्राईवेट पर भरोसा
सिर्फ भोपाल ही नहीं बल्कि प्रदेश के लगभग हर संक्रमित जिले में कोरोना वायरस का उपचार करने के लिए सरकार को निजी अस्पतालों का सहारा लेना पड़ा है। देश के सबसे संक्रमित शहरों में से एक इंदौर में कोरोनावायरस के उपचार के लिए प्रशासन ने वहां के अस्पतालों को तीन कैटेगरी रेड, येलो और ग्रीन में विभाजित किया। रेड कैटेगरी के अस्पतालों में कोरोना पॉजिटिव मरीज और येलो श्रेणी के अस्पतालों में कोरोना के संदिग्धों का उपचार होगा। अन्य बीमारियों और इमरजेंसी के लिए ग्रीन श्रेणी के अस्पतालों को चिन्हित किया है।
ठीक से मॉनीटरिंग नहीं
प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी इंदौर कोरोना वायरस का हॉटस्पॉट बना हुआ है। यह देश में कोरोना वायरस से होने वाली मौत के मामले में दूसरे स्थान पर है। दरअसल, यहां जिला प्रशासन ने शुरू में सतर्कता नहीं बरती। इसलिए यह गंभीर स्थिति बनी है। सूत्र बताते हैं कि 1 मार्च से 21 मार्च के बीच फ्लाइट बंद होने के बाद यहां बड़ी संख्या में विदेशों से लोग आए। लेकिन जिला प्रशासन ने इनकी ठीक से मॉनीटरिंग नहीं की। गौरतलब है कि खाड़ी देशों और अमेरिका से आने वाली अधिकांश फ्लाइट दुबई के रास्ते भारत आती है। दुबई एयरपोर्ट पर बड़ी संख्या में लोग संक्रमण के शिकार हुए। इंदौर से बड़ी संख्या में लोग खाड़ी देशों काम के लिए जाते हैं और धनाढ्यों के बेटे अमेरिका में पढ़ाई करते हैं। लेकिन जब ये भारत लौटे तो इनकी पहचान की अधकचरी कोशिश की गई। इस कारण इंदौर के चंदन नगर, आजाद नगर, खजराना, रानीपुरा, बंबई बाजार आदि क्षेत्रों में कोरोना वायरस तेजी से पसरा। अगर इंदौर जिला प्रशासन मंदसौर मॉडल का स्टडी करता तो आज इंदौर की हालत इतनी खराब नहीं हुई होती। मंदसौर जिला प्रशासन ने जिले को इस महामारी से पूरी तरह बचा लिया है।
बीएमएचआरसी का अधिग्रहण
गैस पीड़ितों के लिए बने सुपर स्पेशलिटी अस्पताल भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) को सिर्फ कोविड-19 मरीजों के इलाज के लिए आरक्षित कर दिया गया है। यहां भर्ती मरीजों की छुट्टी किए जाने के साथ-साथ ओपीडी और डायलेसिस के लिए आने वाले मरीजों को भी इलाज देने से मना कर दिया गया। गैस पीड़ितों की लड़ाई लड़ने वाली रचना ढींगरा के मुताबिक अब तक इलाज न मिलने की वजह से 3 गैस पीड़ितों की मौत हो चुकी है। भोपाल में कोविड-19 की वजह से जिस पहले व्यक्ति नरेश खटीक की मृत्यु हुई वह भी एक गैस पीड़ित थे। उन्हें गैस पीड़ितों के अस्पताल के बजाय एक निजी अस्पताल जाना पड़ा जिसके लिए उनके परिवार ने 90 हजार का कर्ज भी लिया था। मृत्यु से पहले उनके कोविड-19 संक्रमित होने की पुष्टि हुई थी। यही नहीं यहां इलाज के लिए याचिका लगाने वाली मुन्नी बी का भी निधन हो गया है। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा बनी निगरानी समिति के सदस्य पूर्णेन्दु शुक्ल सरकार से लेकर अस्पताल प्रशासन से गैस पीड़ितों के अस्पताल को पूर्व की तरह रखने की कई बार गुजारिश कर चुके हैं, लेकिन अभी तक कोई पुख्ता निर्णय नहीं हुआ है। डायलेसिस के लिए 31 मरीजों को दूसरे सरकारी अस्पताल भेजा गया लेकिन वहां उन्हें कई समस्याएं आ रही है। एक और शिकायत के बारे में शुक्ल बताते हैं कि डायलेसिस न होने की वजह से शारदा खत्री नामक गैस पीड़ित महिला का एक निजी अस्पताल में हाल ही में देहांत हो गया। शुक्ल कहते हैं कि मेरे पास लगातार पीड़ितों की तरफ से शिकायतें आ रही हैं जिसमें इलाज न मिलने की वजह से तीन लोगों की मौत के मामले भी हैं। सुरेश कुमार साहू नामक मरीज को हार्ट अटैक आने की वजह से भर्ती किया गया है जिसे इलाज की सख्त जरूरत है। कैथ लैब बंद होने की वजह से उसे उचित इलाज नहीं मिल पा रहा। गैस पीड़ितों का आरोप है कि जब कोरोना मरीजों का इलाज निजी अस्पताल में ही कराया जा रहा है तो इस अस्पताल का अधिग्रहण सरकार ने क्यों किया है।
बिना स्वास्थ्य मंत्री और गृहमंत्री की सरकार
दुनिया और देश के अन्य प्रांतों की तरह मध्यप्रदेश में भी कोरोनावायरस का संक्रमण लगातार गंभीर रूप लेता जा रहा है। मगर यहां व्यवस्था बनाने के लिए सरकार के नाम पर सिर्फ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ही हैं। उनकी टीम में मंत्रिमंडल का एक भी सदस्य नहीं है। वर्तमान में उनकी स्थिति ठीक वैसे ही है जैसे बगैर टीम के कप्तान। इसी को लेकर विपक्ष राज्य में कोरोना के बेकाबू होने को लेकर मुख्यमंत्री पर हमले बोल रहा है। राज्य में लगभग एक पखवाड़े पहले सत्ता में बदलाव हुआ और मुख्यमंत्री की कमान कमलनाथ के हाथ से खिसककर शिवराज सिंह चौहान के पास आ गई। चौहान ने 23 मार्च रात को राजभवन में आयोजित समारोह में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। मुख्यमंत्री की शपथ लिए एक पखवाड़े से ज्यादा का वक्त गुजर चुका है, मगर अब तक मंत्रिमंडल का गठन नहीं हो पाया है। राज्य में कोरोना वायरस महामारी का संक्रमण लगातार बढ़ रहा है। सबसे बुरा हाल इंदौर का है। उसके बाद भोपाल की स्थिति खराब है। वर्तमान में राज्य के लगभग 25 जिले कोरोनावायरस के प्रभाव में हैं। राज्य में वर्तमान स्थिति में सबसे ज्यादा स्वास्थ्य मंत्री और गृहमंत्री की जरूरत महसूस की जा रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि मरीजों का इलाज करने का काम स्वास्थ्य अमले का है और लॉकडाउन का पालन कराना पुलिस का काम है, जो कि गृहमंत्री के अंतर्गत आता है। इन दोनों ही मंत्रियों के न होने से कई तरह की समस्याएं सामने आ रही हैं और विपक्ष सवाल भी उठा रहा है। कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव ने कहा कि राज्य में भाजपा मेहनत के बल पर सत्ता में नहीं आई है, बल्कि गद्दारों की गद्दारी से उसने यह हासिल किया है। राज्य के मुखिया शिवराज सिंह चौहान बड़े ही अभिभूत हैं। सिंगल मैन आर्मी की तरह अलोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार को खींच रहे हैं। चंद नौकरशाहों पर इतना भरोसा ठीक नहीं है, यह घर नहीं है, सरकार चलाने का मसला है। उन्होंने कहा- अन्य मंत्रालयों की अपेक्षा कोरोना संक्रमण से संघर्ष में स्वास्थ्य और गृह मंत्रालय बहुत ही उपयोगी है। कैबिनेट गठन में हो रहे विलंब और विभिन्न विभागों के मंत्री न होने से राज्य को नुकसान हो रहा है। वहीं दूसरी ओर भाजपा के मुख्य प्रवक्ता डॉ. दीपक विजयवर्गीय ने कहा कि वर्तमान में सरकार की प्राथमिकता कोरोना से निपटना है। प्रशासन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के निर्देश पर बदस्तूर काम कर रहा है, इसलिए आपदा से निपटने के बाद ही मंत्रिमंडल का गठन अथवा दूसरे काम हो सकते हैं। वहीं जन स्वास्थ्य अभियान के अमूल्य निधि का कहना है कि यह कैसे संभव है कि एक व्यक्ति सारे विभागों की जिम्मेदारी बेहतर तरीके से निभा सके। इसलिए मुख्यमंत्री को जल्दी ही स्वास्थ्य मंत्री और गृह मंत्री नियुक्त करने चाहिए, ताकि राज्य को इस महामारी के बढ़ते संकट से उबारा जा सके। हालांकि भाजपा ने कोरोना महामारी से निपटने के लिए अपने कुछ वरिष्ठ नेताओं की टास्कफोर्स बनाई है। अगर मुख्यमंत्री इन नेताओं की बजाय प्रदेश के सारे विधायकों को कोरोना वायरस से लड़ने की जिम्मेदारी सौंपते तो वे प्रभावी ढंग से काम करते।
राजनीतिक विफलता
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने गत 11 मार्च को कोविड-19 को महामारी घोषित किया। जिस समय देश के अधिकांश राज्य इससे जूझने की तैयारी कर रहे थे, मध्य प्रदेश राजनीतिक संकट से दो-चार था। कोविड-19 को लेकर जारी हो रही चेतावनियों के बीच कांग्रेस और भाजपा के विधायक समूह में एक रिसॉर्ट से दूसरे रिसॉर्ट में जा रहे थे। आखिरकार भाजपा ने प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरा दी और चौहान ने 23 मार्च को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। एक दिन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 मार्च से देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा कर दी। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ कहते हैं, फरवरी में जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कोरोनावायरस के संभावित खतरों से अवगत कराया तब भाजपा एक निर्वाचित सरकार को गिराने में लगी हुई थी और बेंगलुरू में बागी विधायकों की सेवा कर रही थी। कमलनाथ का आरोप है कि मप्र में नरेंद्र मोदी प्रदेश की सरकार गिराने में इतने व्यस्त हो गए थे कि उन्हें इसका जरा भी ध्यान नहीं रहा कि कोरोना वायरस महामारी बनकर देश में प्रवेश कर गया है। वहीं शिवराज सिंह चौहान पर आरोप लगाते हुए वह कहते हैं कि प्रदेश में मंत्री तो है नहीं, मुख्य सचिव भी नए हैं और कई अधिकारी भी नए हैं। ऐसे में इस प्रदेश का भगवान ही भला करे।
राजनीतिक और प्रशासनिक अस्थिरता भी कम दोषी नहीं
मप्र में कोरोना वायरस का संक्रमण फैलने में राजनीतिक और प्रशासनिक अस्थिरता भी कम दोषी नहीं है। जिस वक्त संक्रमण की शुरुआत हो रही थी, उस दौर में राज्य में सियासी संग्राम छिड़ा हुआ था। लिहाजा, सरकार के स्तर पर भी रस्म अदायगी ही हो रही थी। कांग्रेस और भाजपा नेताओं ने भी इसको लेकर बयानबाजी तो की पर गंभीरता से नहीं लिया। इसी दरमियान दो मुख्य सचिव बदले गए। जाहिर है, सबको अपने भविष्य की चिंता सता रही थी। इसके अलावा स्वास्थ्य महकमे की ओर से भी अफसरों की बड़ी चूक सामने आई है। आयुष्मान भारत के अधिकारी विजय कुमार और उपसंचालक प्रमोद गोयल की रिपोर्ट पॉजिटिव आई है। प्रमोद गोयल इंदौर से भोपाल आए लेकिन क्वारेंटाइन नहीं रहे। विजय कुमार ने बीमारी की बात को छुपाया और बैठकें लेते रहे। इसी विभाग की एडिशनल डायरेक्टर वीणा सिन्हा का बेटा जो अमेरिका में रहता है, लेकिन सिन्हा ने बताया कि वह अभी वहीं है। अनुमान लगाया जा रहा है कि स्वास्थ्य विभाग की मीटिंगों के जरिए संक्रमण महकमे के दूसरे अफसरों और कर्मचारियों तक पहुंचता रहा है। सवाल उठता है कि जब प्रत्येक बैठक में सीएम, सीएस व खुद पल्लवी जैन विदेश से आने वालों को क्वारेंटाइन कराते रहे। पल्लवी के मामले में ऐसा क्यों नहीं हुआ ? जबकि पत्रकार केके सक्सेना के पॉजिटिव आने पर अगले दिन ही एफआईआर हो गई। पल्लवी जैन के जबावदेह पद पर होने के बावजूद एफआईआर क्यों नहीं हुई? सवाल ये भी कि यदि पल्लवी ने किसी की जान को खतरे में नहीं डाला तो फिर चार दर्जन आईएएस-राप्रसे अफसरों ने जांच क्यों कराई? और यदि पल्लवी ने इनकी जान को खतरे में डाला तो उनपर एफआईआर क्यों नहीं हुई?
जगन्नाथ की मौत का जिम्मेदारी कौन?
विगत दिनों राजधानी में एक 77 साल के बुजुर्ग जगन्नाथ मैथिल की अस्पतालों के चक्कर लगाने के दौरान ही मौत हो गई। इनकी मौत का जिम्मेदार आखिर है कौन? गौरतलब है कि शहर के एक निजी अस्पताल में आठ अप्रैल को वहां दाखिल जगन्नाथ मैथिल निवासी जहांगीराबाद में जब कोरोना के लक्षण पाए गए तो उन्हें प्रोटोकॉल के तहत जेपी या हमीदिया अस्पताल भेजने के बजाय चिरायु भेज दिया गया। जबकि चिरायु कोविड हॉस्पिटल है, जहां सिर्फ पॉजिटिव मरीजों का उपचार हो रहा है। संदिग्ध मरीजों को जेपी या हमीदिया ही भेजने के निर्देश हैं। प्रशासन का दावा है कि सभी अस्पतालों को इसकी स्पष्ट जानकारी दी गई है। इसके बावजूद नर्मदा अस्पताल में करीब ढाई घंटे उपचार के बाद जगन्नाथ को चिरायु भेजा गया, जहां स्टाफ ने पेपर्स देखकर ही उन्हें हमीदिया के लिए रवाना कर दिया। रास्ते में ही जगन्नाथ की जान चली गई। तीन दिन बाद आई रिपोर्ट में जगन्नाथ में कोरोना संक्रमण की पुष्टि हुई। मैथिल के बेटे मनोज ने इस पर सवाल उठाए। उनका कहना है कि हम उन्हें एक से दूसरे अस्पताल लेकर भटकते रहे। प्रोटोकॉल के उल्लंघन के कारण जो समय बर्बाद हुआ, यदि वह नहीं होता तो शायद पिता को बचाया जा सकता था। कलेक्टर तरुण पिथोड़े के मुताबिक, नर्मदा अस्पताल प्रबंधन को जगन्नाथ की मौत के मामले में शोकॉज नोटिस के निर्देश सीएमएचओ को दिए गए हैं। प्रोटोकॉल के तहत मरीज को हमीदिया भेजना चाहिए था, जबकि उसे चिरायु भेज दिया गया। इस बारे में पहले भी निजी अस्पतालों को बताया जा चुका है। उधर, नर्मदा अस्पताल की डायरेक्टर रेणु शर्मा के मुताबिक, मरीज को लक्षण देख अस्पताल की एंबुलेंस से चिरायु भेजा। सारे प्रोटोकाल का पालन किया गया है।
- राजेंद्र आगाल