जब एक डर दूसरे डर के विरुद्ध होता है तो युद्ध होता है। यूक्रेन और रूस का युद्ध किसी देश के पराक्रम का युद्ध नहीं है, बल्कि दुनिया के ताकतवर देशों के भयभीत होने का युद्ध है। दरअसल, दो महाशक्तियां अमेरिका और रूस विश्व में अपना वर्चस्व कायम करना चाहते हैं। अमेरिका नाटो के जरिए अपनी शक्ति का विस्तार करने में लगा हुआ है। इसके लिए उसने यूक्रेन को मोहरा बनाया है, ताकि वह रूस के दरवाजे पर अपनी ताकत जमा सके। यह बात रूस को नागवार गुजरी है। उसने अपने पड़ोसी देश यूके्रन को समझाने की कोशिश की, लेकिन पश्चिम के बल पर यूके्रन ने रूस को चुनौती दे दी, जिसका परिणाम दोनों देशों के बीच युद्ध के रूप में सामने आया है। इस युद्ध को तीसरे विश्व युद्ध की संभावना के तौर पर देखा जा रहा है। इस युद्ध में भारत की कूटनीति का भी इम्तिहान होगा।
आखिरकार वही हुआ, जिसका अंदेशा था। तमाम वैश्विक दबावों को झुठलाते हुए रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण कर दिया। फ्रांस और जर्मनी की बीच-बचाव की कोशिशें, अमेरिका की पाबंदी की घुड़कियां और संयुक्त राष्ट्र की मैराथन बैठकें रूस को यूक्रेन पर हमला बोलने से नहीं रोक सकीं। सवाल है कि आखिर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन इतने आक्रमक क्यों बने हैं?
कहां है संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद का अस्तित्व? यूक्रेन में व्यापक जान-माल के नुकसान का जिम्मेदार कौन है? इन सवालों और युद्ध के धमाकों के बीच यह बेहद जरूरी हो गया है कि मानवता की रक्षा की जाए, इंसान और इंसानियत को बचाया जाए। लेकिन भारत को छोड़कर पूरा विश्व इस आग में घी डालने का काम कर रहा है। शायद यही वजह है कि रूस और यूके्रन के बीच बेलारूस में हुई वार्ता पूरी तरह विफल हो गई। इससे तीसरे विश्व युद्ध की संभावना बढ़ गई है।
हमने दो विश्व युद्धों का जख्म झेला है और अनुभव यही है कि युद्ध किसी भी समस्या का न तो विकल्प हो सकता है और न ही समाधान। जरूरी है कि संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद और विश्व के बड़े हुक्मरान इस समस्या का समाधान निकालें। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में यूक्रेन के प्रतिनिधि के बयान पर जरा गौर कीजिए। उसने साफ तौर पर ये आरोप लगा दिया है कि सुरक्षा परिषद पूरी तरह रूस के 'वायरसÓ का शिकार है और फिलहाल इस 'वायरसÓ की कोई कारगर 'वैक्सीनÓ नहीं है। इस बयान के कई मायने हैं। इसके जरिए अब यूक्रेन अमेरिका और यूएन पर दबाव डालना चाहता है कि वह खुलकर यूक्रेन की मदद के लिए आगे आए। साथ ही ये भी कि यूक्रेन को नाटो का सदस्य न बनाए जाने से ये गंभीर स्थिति पैदा हुई है।
अमेरिका की महत्वाकांक्षा
भले ही युद्ध यूके्रन में लड़ा जा रहा है, लेकिन यह अमेरिका और रूस की महत्वाकांक्षा का परिणाम है। दरअसल अमेरिकी प्रभुत्व वाले नाटो के 30 सदस्य देशों में यूक्रेन को शामिल करने को लेकर दो राय रही है और पिछले कई वर्षों से यूक्रेन की कोशिशों के बावजूद ऐसा नहीं हो पाया है। तीसरा ये कि यूक्रेन अमेरिका को ये खुली चुनौती दे रहा है कि अगर वह रूस से ज्यादा ताकतवर है तो उसके पास इस 'रूसी वायरसÓ की 'वैक्सीनÓ होनी चाहिए। रूस का लगातार ये दावा रहा है कि पूर्वी यूक्रेन सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तौर पर रूस का हिस्सा रहा है लेकिन सोवियंत संघ के विघटन के बाद से स्वतंत्र हुए यूक्रेन पर अमेरिका अपना वर्चस्व कायम रखने और उसके जरिए रूस के करीब अपना सैन्य बेस बनाने की कोशिश करने की फिराक में है। जाहिर है रूस ऐसा नहीं होने देगा।
दूसरी तरफ रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की लगातार ये कोशिश रही है कि वह अमेरिका की पूरी दुनिया के सामने 'सर्वशक्तिमानÓ दिखाने वाली छवि को तोड़ें। पिछले करीब छह-सात दशकों से तमाम देश इन दोनों महाशक्तियों के बीच छिड़ी जंग और इसका दुनिया पर असर देख रहे हैं। चाहे वो ईरान का संकट हो, खाड़ी युद्ध हो, अफगानिस्तान का मसला हो या फिर दुनियाभर में फैला आतंकवाद और अलगाववाद का संकट। इन दोनों ही साम्राज्यवादी ताकतों ने तीसरी दुनिया के ज्यादातर देशों को अपने-अपने तरीके से चलाने की कोशिश की है और अपने फायदे के लिए तमाम देशों में आंतरिक संघर्षों और अलगाववादी समूहों के जरिए अशांति बरकरार रखने की रणनीति पर काम करते रहे हैं। दोनों ही महाशक्तियां अपने-अपने वर्चस्व की जंग में लगातार शह और मात का खेल खेलती आई हैं और इनकी बिसात पर तीसरी दुनिया के तमाम देश मोहरे की तरह इस्तेमाल होते रहे हैं। जाहिर है यूक्रेन कोई अपवाद नहीं है।
पुतिन-जेलेंस्की में कौन भारी
रूस की ओर से यूक्रेन में छेड़ी गई जंग दोनों ही देशों के लिए काफी भारी साबित हो रही है। जहां रूस ने अपने करीब 1 लाख 90 हजार सैनिकों को हथियारों, टैंकों और एयरक्राफ्ट्स के साथ यूक्रेन पर हमले के लिए भेजा है, वहीं यूक्रेन भी लगातार अपने सैनिकों और नागरिकों की मदद से रूस के मंसूबों को नाकाम करने की कोशिश में है। इस बीच दोनों देशों में युद्ध को लेकर अब तक कई आंकड़े साफ नहीं हो पाए हैं। मसलन इस युद्ध में अब तक कितनी जानें जा चुकी हैं। दोनों देशों को इस युद्ध से कितना आर्थिक नुकसान पहुंच रहा है और उसे सेना पर कितना खर्च करना पड़ रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध में मारे गए सैनिकों और आम नागरिकों को लेकर जहां यूक्रेन लगातार आंकड़े रख रहा है, वहीं रूस ने ये तो कबूला है कि उसके सैनिक भी यूक्रेन में मारे गए और घायल हुए हैं, लेकिन पुतिन सरकार की तरफ से मरने वाले सैनिकों का आंकड़ा स्पष्ट नहीं किया गया। इस बीच रूसी सैनिकों को लेकर भी यूक्रेन की तरफ से दावे किए गए हैं।
यूक्रेन के रक्षा मंत्रालय की तरफ से जो आंकड़े जारी किए गए हैं। उसके मुताबिक, उसके कुल 352 नागरिक मारे जा चुके हैं और 1684 घायल हैं। यूक्रेन ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि इनमें कितने सैनिक और कितने आम नागरिक शामिल हैं। हालांकि, यह जरूर बताया गया है कि मरने वालों में 14 बच्चे और घायलों में कुल 116 बच्चे शामिल हैं। यूक्रेन के इन दावों पर यूएन की तरफ से भी बयान जारी हुआ है। संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि उसने यूक्रेन के 240 लोगों के युद्ध में हताहत होने की पुष्टि की है। इनमें से कम से कम 64 लोग मारे गए हैं। यूएन ने यह भी कहा कि मौतों और घायलों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा भी हो सकती है। मॉस्को की तरफ से यूक्रेन में सैनिकों के मरने का कोई आंकड़ा नहीं रखा गया है। लेकिन क्रेमलिन की तरफ से कहा गया है कि उसके सैनिकों की मौत की संख्या यूक्रेन के मुकाबले काफी कम है। दूसरी तरफ यूक्रेन के ही रक्षामंत्री ने बताया है कि अब तक उसके साथ युद्ध में 5300 रूसी सैनिक मारे जा चुके हैं।
दोनों देशों को नुकसान
रूस और यूक्रेन दोनों ही एक-दूसरे की सेनाओं को हुए जबरदस्त नुकसान को गिनाने में जुटे हैं। लेकिन दोनों ने ही अपने नुकसान को लेकर कुछ नहीं कहा है। यूक्रेन ने दावा किया कि 24 फरवरी से 28 फरवरी तक चार दिन में रूस को 191 टैंकों, 816 बख्तरबंद गाड़ियों, 60 ईंधन टैंकों, एक बुक सिस्टम (एयर डिफेंस), चार ग्रैड सिस्टम (रॉकेट लॉन्चर), 29 फाइटर जेट्स, 26 हेलिकॉप्टर, दो शिप-बोट, 74 तोपें, सैनिकों को लाने-ले जाने वाले 291 वाहन और 5300 से ज्यादा वेयरहाउस गंवाने पड़े हैं। उधर, रूस ने भी यूक्रेन के नुकसानों को गिनाते हुए कहा है कि उसने यूक्रेन के 1114 सैन्य लक्ष्यों को तबाह कर दिया है। रूस के विदेश मंत्रालय के मुताबिक, रूसी सैनिकों ने एस-300 से लेकर बुक एम-1 (एयर डिफेंस) सिस्टम और बेराक्तर ड्रोन्स को निशाना बनाया है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता इगोर कोनाशेंकोव ने इसका ब्यौरा देते हुए कहा कि पिछले चार दिन में उनकी सेना ने यूक्रेन के 31 कमांड पोस्ट और संचार केंद्रों के अलावा 38 एस-300 और बुक एम-1 सिस्टमों के अलावा ओसा एयर डिफेंस मिसाइल सिस्टमों को तबाह किया है। इसके अलावा 56 रडार सिस्टम भी निशाने पर आए हैं। इसके अलावा 31 एयरक्राफ्ट (फाइटर जेट्स और हेलिकॉप्टर) भी तबाह किए गए। 57 मल्टिपल रॉकेट लॉन्चर सिस्टम, 121 फील्ड आर्टिलरी गन और मोर्टार और 274 विशेष सैन्य वाहनों भी रूसी सेना के निशाने पर आए हैं।
रूस की ओर से छेड़े गए इस युद्ध का असर दोनों ही देशों पर पड़ने की संभावना है। जहां पहले ही रूस-यूक्रेन कोरोनावायरस की वजह से बड़े नुकसान झेल चुके हैं। वहीं, अब युद्ध का नुकसान भी दोनों देशों को उठाना पड़ेगा। जर्मनी के कील इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के मुताबिक, युद्ध के दौरान पश्चिमी देशों की तरफ से लगाया गया हर एक प्रतिबंध रूस के लिए कांटे की तरह है। इसमें कहा गया है कि अगर यूरोप, ब्रिटेन और अमेरिका रूस पर तेल और गैस से जुड़े प्रतिबंधों का ऐलान करते हैं, तो उसकी 120 लाख करोड़ रुपए (1600 अरब डॉलर) की अर्थव्यवस्था, जो कि मुख्य तौर पर तेल-गैस के निर्यात पर निर्भर है, वह एक बार में 4.1 फीसदी तक गिर जाएगी। वहीं, अब तक लगाए गए प्रतिबंधों की वजह से रूस का बाकी सामान का निर्यात बुरी तरह प्रभावित होने की आशंका है, जिससे रूस को लगातार नुकसान उठाने पड़ रहे हैं। पश्चिमी देशों की तरफ से मशीनरी और उपकरणों पर प्रतिबंधों की वजह से रूस को अर्थव्यवस्था में 0.5 फीसदी, मोटर वाहन और पार्ट्स में प्रतिबंधों की वजह से 0.3 फीसदी और इलेक्ट्रिक उपकरणों पर प्रतिबंध के चलते 0.1 फीसदी जीडीपी का नुकसान उठाना पड़ेगा। इसके अलावा करीब एक दर्जन अन्य क्षेत्रों पर यूरोपीय देशों के प्रतिबंध से रूस की अर्थव्यवस्था के पूरी तरह तबाह होने की संभावना है। चौंकाने वाली बात यह है कि अगर रूस इस बीच बाकी देशों की तेल-गैस सप्लाई बंद करने की धमकी देता है, तो भी इससे पुतिन सरकार का नुकसान ही ज्यादा है, क्योंकि इन हालात में रूस के पास विदेशी मुद्रा भंडार भी तेजी से घटता जाएगा।
यूक्रेन पर कैसे पड़ेगा प्रभाव?
रूस की ओर से शुरू किए गए युद्ध का जितना असर रूस की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा, उससे कहीं ज्यादा प्रभाव यूक्रेन पर पड़ने के आसार हैं। दरअसल, यूक्रेन की अर्थव्यवस्था रूस से 10 गुना छोटी है। फिलहाल इस देश की जीडीपी 13.5 लाख करोड़ रुपए (180 अरब डॉलर) आंकी जाती है और यह ज्यादातर आयात पर आधारित है। यूक्रेन को युद्ध शुरू होने से पहले ही काफी नुकसान उठाना पड़ा है, क्योंकि बड़ी संख्या में नागरिक देश छोड़कर जा चुके हैं। यूक्रेन के राष्ट्रपति ने खुद ऐलान किया था कि रूस से तनाव के बीच यूक्रेन के लोग 95 हजार करोड़ (करीब 12.5 अरब डॉलर) निकालकर देश से बाहर जा चुके हैं। यानी फिलहाल युद्ध से यूक्रेन की स्थिति बिगड़ती नजर आ रही है। यूक्रेन के खुफिया सूत्रों के हवाले से मिली जानकारी के आधार पर एस्तोनिया के पूर्व रक्षा प्रमुख रिहो टेरस ने कहा कि इस युद्ध से रूस को रोज 1500 करोड़ यूरो (लगभग 1508 अरब 72 करोड़ 49 लाख 96 हजार रुपए) खर्च करने पड़ रहे हैं। उन्होंने यह भी दावा किया है कि पुतिन का युद्ध योजना के अनुसार नहीं चल रहा है, क्योंकि रूस की पूंजी और हथियार तेजी से खत्म हो रहे हैं।
नाटो पर अटका तार
पड़ोसी देश होने की वजह से और सोवियत संघ के विघटन से पहले तक उसका हिस्सा रहने वाले यूक्रेन को लेकर अगर रूस वहां के नागरिकों की अस्मिता की लड़ाई में उनका साथ देता रहा है तो इसे वह अपना नैतिक दायित्व भी बताता है। लेकिन कूटनीतिक जानकार लगातार ये भी कहते आए हैं कि अमेरिका पूर्वी यूक्रेन में नाटो के सैन्य ठिकाने बनाकर अप्रत्यक्ष रूप से रूस पर नजर रखना चाहता है जिसे रूस जानता है और इसीलिए वह लगातार नाटो का विरोध करता है और इसकी जरूरत पर सवाल उठाता है। नाटो का गठन सोवियत संघ के जमाने में हुआ था, लेकिन रूस का तर्क है कि जब सोवियत संघ ही नहीं रहा तो नाटो की जरूरत क्यों है। इसे भंग कर दिया जाना चाहिए। जबकि अमेरिका कूटनीतिक तौर पर नाटो के बहाने तमाम देशों में फैली अलगाववादी गतिविधियों को रोकने के लिए शांति सैनिक भेजकर अपना वर्चस्व बनाए रखने की रणनीति पर चलता रहा है। अब रूस के इन दोनों प्रांतो पर कब्जा कर लेने के बाद वहां जश्न भी मनाए जा रहे हैं और इन प्रांतों के लोग भी इस बात से खुश नजर आ रहे हैं कि अब यहां अलगाववादी गुटों और यूक्रेन की सेना के बीच पिछले 8 साल से चल रही गोलाबारी और हमले बंद हो जाएंगे, इलाके में शांति रहेगी और रूस की सेना होने की वजह से वे सुरक्षित रहेंगे।
रूस जानता है कि इस कदम के बाद यूरोपीय देश और पश्चिम के तमाम देश उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाएंगे, कई तरह की बंदिशें लगेंगी, उस पर अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन के आरोप भी लगेंगे, लेकिन इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। जिस तरह उसने 2014 में क्रीमिया को कब्जे में लिया था, उसी तरह इस बार भी उसने इन दोनों प्रांतों को स्वायत्त घोषित कर और वहां के अलगाववादी गुटों से समझौता कर अपना मकसद हासिल कर लिया है और अमेरिका के मंसूबों को फिलहाल नाकाम कर दिया है।
कौनसा देश किसके समर्थन में?
अगर रूस की बात करते हैं तो क्यूबा सबसे पहले उसका समर्थन करेगा। दरअसल, क्यूबा ने रूस के सीमावर्ती क्षेत्रों में नाटो के विस्तार को लेकर अमेरिका की आलोचना की थी और वैश्विक शांति के लिए कूटनीतिक तरीके से इस मसले का हल निकालने का आव्हान किया था। इसके अलावा रूस को चीन का समर्थन जरूर मिलेगा। चीन पहले ही ऐलान कर चुका है कि नाटो यूक्रेन में मनमानी कर रहा है। दरअसल, पश्चिमी देशों ने जब चीन के विरोध में कदम उठाए थे, तब रूस ने चीन का समर्थन किया था। हकीकत यह है कि रूस और चीन दोनों ने ही सेना से लेकर अंतरिक्ष तक अलग-अलग क्षेत्रों में कई साझेदारी कर रखी हैं।
इसके अलावा कभी सोवियत संघ का हिस्सा रहे अर्मेनिया, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और बेलारूस भी रूस का समर्थन करेंगे, क्योंकि उन्होंने छह देशों के सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन पर हस्ताक्षर किए हैं। इसका मतलब यह है कि अगर रूस पर हमला होता है तो ये देश इसे खुद पर भी हमला मानेंगे। इनके अलावा अजरबेजान भी रूस की मदद के लिए आगे आ सकता है।
अगर हम मिडिल ईस्ट का रुख करते हैं तो ईरान रूस का साथ दे सकता है। दरअसल, न्यूक्लियर डील असफल होने के बाद से रूस लगातार ईरान को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रहा था। इसके अलावा सीरिया से युद्ध के दौरान रूस ने ही ईरान को हथियार मुहैया कराए थे। वहीं, युद्ध की स्थिति में उत्तरी कोरिया भी रूस का साथ दे सकता है। दरअसल, उत्तरी कोरिया ने पेनिनसुला में जब मिसाइल लॉन्च की थीं, उस वक्त अमेरिका ने उस पर प्रतिबंध लगाने का ऐलान किया तो रूस और चीन दोनों ने विरोध जताया था। वहीं, पाकिस्तान भी रूस का समर्थन कर सकता है।
अब हम उन देशों के बारे में जानते हैं, जो विश्व युद्ध के हालात बनने पर यूक्रेन का साथ दे सकते हैं। ऐसी स्थिति में नाटो में शामिल यूरोपियन देश बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ्रांस, आइसलैंड, इटली, लग्जमबर्ग, नीदरलैंड, नॉर्वे, पुर्तगाल, ब्रिटेन और अमेरिका पूरी तरह यूक्रेन का समर्थन करेंगे। इनमें अमेरिका और ब्रिटेन यूक्रेन के सबसे बड़े समर्थक साबित हो सकते हैं। जर्मनी और फ्रांस ने हाल ही में मॉस्को का दौरा करके विवाद शांत करने की कोशिश की थी, लेकिन रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने जब यूक्रेन के दो राज्यों को स्वतंत्र घोषित किया और वहां सेना भेजने का ऐलान किया, तब जर्मनी ने नॉर्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन की इजाजत को रोक दिया। वहीं, अन्य पश्चिमी देशों ने प्रतिबंध लगा दिए। इसके अलावा जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा भी यूक्रेन का समर्थन कर रहे हैं। साथ ही, उन्होंने रूस पर प्रतिबंध लगाने का ऐलान भी किया।
अब हम उन देशों से रूबरू होते हैं, जो रूस-यूक्रेन संकट पर तटस्थ की भूमिका में मौजूद हैं। इस मसले पर भारत अकेला ऐसा देश है, जिसने तटस्थ रुख अपना रखा है। दरअसल, अमेरिका और रूस दोनों देशों से भारत के रिश्ते काफी अच्छे हैं। भारत की जीडीपी का 40 फीसदी हिस्सा फॉरेन ट्रेड से आता है। 1990 के दौर में यह आंकड़ा करीब 15 फीसदी था। भारत का अधिकतर कारोबार अमेरिका और उसके सहयोगी पश्चिमी देशों के अलावा मिडिल ईस्ट से होता है। भारत हर साल पश्चिमी देशों से करीब 350-400 बिलियन डॉलर का कारोबार करता है। वहीं, रूस और भारत के बीच भी 10 से 12 बिलियन डॉलर का कारोबार है।
युद्ध में भारत का रुख
हालांकि अमेरिका जिस तरह लगातार ये चेतावनी दे रहा है कि रूस यूक्रेन पर कभी भी हमला कर सकता है, उससे दहशत और असमंजस की स्थितियां बनी हुई है और भारत समेत तमाम देश अपने-अपने नागरिकों को वहां से वापस बुलाने की शुरुआत कर चुके हैं। यूक्रेन में रहने वाले करीब 20 हजार भारतीय भी वापस लाए जा रहे हैं। भारत ने साफ कह दिया है कि सबसे पहले अपने नागरिकों की सुरक्षा उसके लिए अहम है। सुरक्षा परिषद में भी भारत लगातार अपना रुख साफ करता रहा है कि तमाम मसलों का हल मिल बैठकर शांति से होना चाहिए। यूक्रेन के मसले पर भी यही होना चाहिए। भारत के रूस और अमेरिका दोनों से ही करीबी व्यापारिक और कूटनीतिक रिश्ते हैं और जाहिर है भारत अपने रिश्तों से कोई समझौता नहीं कर सकता।
पिछले करीब दो महीनों से बनी इस स्थिति का यह निर्णायक दौर है और यूक्रेन लगातार खबरों में है। वैसे भी युद्ध और अशांति के साथ साथ दो महाशक्तियों के टकराव की खबरों में हमेशा लोगों की दिलचस्पी रही है और वह भी तब जब मामला दो महाशक्तियों के बीच चल रही वर्चस्व की जंग का हो और गरजते हथियारों का। यूक्रेन अभी कुछ समय तक सुर्खियों में बना रहेगा और भारत में चुनावी गहमा गहमी के बीच भी यह खबर लोगों में दिलचस्पी पैदा करती रहेगी।
यूरोप-अमेरिका समर्थित राष्ट्रवाद और रूसी डर
इस विकास के साथ ही जब सोवियत संघ ढलान पर आया तो यूक्रेन के लोगों को अपनी आजादी का ख्याल भी आने लगा। यूक्रेन यूरोप से लगती हुई सोवियत संघ की सीमा पर था इसलिए अमेरिका और यूरोप को आसानी से यूक्रेन में आजादी और देशभक्ति का जज्बा भरने का मौका मिला और सोवियत संघ के विघटन के लिए अमेरिका और रूस ने यूक्रेन के लोगों की भावनाएं खूब भड़काई। राष्ट्रवादी कहानियां और कविताएं इस दौर में यूक्रेन में लिखी और पढ़ी जाने लगी। यूरोप के फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन जैसे चकाचौंध दुनिया वाला देश बनाने का सपना यूक्रेन के लोगों की आंखों में जगाया जाने लगा। इधर सोवियत संघ के कम्युनिस्ट सरकार में आपस में संघर्ष शुरू हुआ और उधर यूक्रेन ने आजादी का ऐलान कर दिया। अगस्त 1991 में कम्युनिस्टों के निखारे गोर्बाचोव के असफल तख्ता पलट के दौरान यूक्रेन के संसद ने आजादी का ऐलान कर दिया। रूस को आज भी लगता है कि यूक्रेन की वजह से और फिर यूक्रेन को जिस तरह से अमेरिका और यूरोप ने बढ़ावा दिया उसकी वजह से सोवियत संघ का विघटन हुआ। जब मिखाइल गोर्बाचेव सोवियत संघ को संभालने में लगे थे तब यूक्रेन अपनी आजादी की घोषणा करने वाला पहला देश बना उसके बाद तो सोवियत संघ ताश के पत्ते की तरह बिखर गया। फिर तो बाकी के 14 देश सोवियत संघ से टूटकर अलग हो गए। रूस के दिलो-दिमाग में आज भी डर बैठा हुआ है कि अगर यूक्रेन हमारे साथ नहीं रहा तो फिर हमारे साथ अमेरिका और यूरोप धोखा कर सकते हैं। जबकि यूरोप और अमेरिका को लगता है कि अगर यूक्रेन हमारे साथ नहीं रहा तो रूस की धौंस दुनिया में बढ़ जाएगी। रूस को हम यूक्रेन के जरिये ही घेर सकते हैं।
यूक्रेन-रूस दोस्ती दिखाने का दौर
मार्च 1953 में स्टैलिन के मरने के बाद यूक्रेन यूएसएसआर सरकार के कम्युनिस्ट सेक्रेटरी निकिता पूरे सोवियत संघ के हेड बने तो यूक्रेन के घाव पर मरहम लगाने का काम शुरू हुआ। यूक्रेन पर अत्याचार और रूसीफिकेशन को पहली बार गलत बताया गया। 1654 में कोसाक हेतमांते साम्राज्य के दौरान 300 साल पहले यूक्रेन और रूस के एकीकरण की पेरिसास्लाव संधि की तीन सौवीं वर्षगांठ पूरे जश्न के साथ कीव और लेनिनग्राद में मनाई गई। इसे ऐतिहासिक मौका बनाने के लिए 1954 में रूस ने क्रीमिया को यूक्रेन को गिफ्ट कर दिया जबकि केवल 22 फीसदी क्रीमियन यूक्रेनी है। इसके बाद यूक्रेन के रहने वाले लियोनेड ब्रेझनेव सोवियत संघ के कम्युनिस्ट सेक्रेटरी बने। यूक्रेनियन के सोवियत संघ के मुखिया बनने पर दोनों इलाकों में जमकर जश्न मना। सोवियत संघ को अमेरिका-यूरोप के यूक्रेनी प्रोपोगांडा से निपटने और यूक्रेन का दिल जीतने की कोशिश के तौर पर इसे देखा गया। स्टालिन के बाद का यह सोवियत संघ का जमाना था जब यूक्रेन में प्रगति अपने चरम पर पहुंची। आज जो मौजूदा यूक्रेन है वह उसी दौरान विकास की ऊंचाइयां पा गया था। हथियार, परमाणु रिएक्टर से लेकर जमकर औद्योगिकीकरण हुआ।
रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध की वजह
रूस और यूक्रेन का विवाद अब एक युद्ध का रूप ले चुका है। रूस के यूक्रेन पर हमले की सबसे बड़ी वजह अमेरिका द्वारा यूक्रेन को नाटो संगठन में शामिल करने की कवायद है। अमेरिका के वर्चस्व वाले इस संगठन में 30 देश शामिल हैं जिनमें से अधिकतर यूरोप के ही हैं। हालांकि इसमें सबसे अधिक जवान अमेरिका के ही हैं। रूस पर दबाव बनाने और अपने पुराने विवादों के कारण अमेरिका लगातार इस तरह की कवायद करता रहा है। अमेरिका पहले से ही रूस पर प्रतिबंध लगाकर उसको दबाव में लाने की कवायद कर चुका है। हालांकि उसकी ये चाल अब तक काम नहीं आई थी। अब वो यूक्रेन के सहारे इस काम को करना चाहता है। रूस की चिंता ये है कि यदि यूक्रेन नाटो के साथ चला जाता है तो उसकी सेना और उसके हथियारों के दम पर अमेरिका उसको नुकसान पहुंचाने में आशिंक रूप से सफल हो सकता है। इस हमले की दूसरी वजह अमेरिका और पश्चिमी-यूरोपीय देशों का नार्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन पर रोक लगाना भी शामिल है। आपको बता दें कि रूस ने इस परियोजना पर अरबों डॉलर का खर्च किया है। रूस इसके जरिए फ्रांस, जर्मनी समेत समूचे यूरोप में गैस और तेल की सप्लाई करना चाहता है। इससे पहले ये सप्लाई जिस पाइपलाइन के जरिए होती थी वो यूक्रेन से जाती थी। इसके लिए रूस हर वर्ष लाखों डालर यूक्रेन को अदा करता था। नई पाइपलाइन के बन जाने से यूक्रेन की कमाई खत्म हो जाएगी। यूक्रेन के रूस से अलगाव की एक बड़ी वजह में ये भी शामिल है। तीसरी वजह ये है कि रूस नहीं चाहता है यूक्रेन किसी भी तरह से अमेरिका के साथ जाए। इसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि रूस का यूक्रेन से भावनात्मक रिश्ता है। रूस की नींव यूक्रेन की धरती से ही रखी गई थी। रूस की पहचान यूराल पर्वत श्रृंखला भी यूक्रेन से ही होकर गुजरती है। अमेरिका और रूस के बीच का विवाद काफी लंबे समय से है। शीतयुद्ध के बाद भी स्थितियां बदली नहीं हैं। वहीं दूसरी तरफ रूस की शक्ति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। रूस केवल इतना ही चाहता है उसका मान कायम रहे और उसको बदनाम न किया जाए। विदेश मामलों के जानकार और जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पुष्पेश पंत का कहना है कि रूस ने अपना आक्रामक रूप दिखाकर न सिर्फ पश्चिम देशों को बल्कि समूचे यूरोप और खुद को दुनिया की महाशक्ति बताने वाले अमेरिका को उसकी औकात बता दी है। यूक्रेन पर रूस द्वारा हमला करने के बाद भले ही अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों ने उस पर प्रतिबंध लगा दिए हैं लेकिन इससे कुछ होने वाला नहीं है। इससे केवल उनको ही नुकसान होने वाला है। अमेरिका के पास इससे अधिक कोई दूसरा विकल्प है भी नहीं।
रूस को अलग-थलग करने की रणनीति
रूस के यूक्रेन पर हमला करने के बाद दुनिया ने एकजुट होने और जटिल आपूर्ति श्रृंखलाओं, बैंकिंग, खेल और गहरे संबंध के अनगिनत अन्य धागों से एक साथ जुड़े होने के स्पष्ट संकेत दिए हैं। रूस को अलग-थलग करने के लिए तमाम देश उस पर कई कड़े प्रतिबंध लगा रहे हैं, जिससे वह कई मोर्चों पर दुनिया से अचानक कट गया है। बैंक क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी क्षमताएं कम हो गई हैं। प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय खेलों में उसकी भागीदारी चरमरा रही है। यूरोप में उसके विमानों पर रोक लगा दी गई है। उसकी 'वोदकाÓ (एक तरह की शराब) का अमेरिकी राज्यों ने आयात बंद कर दिया है। यहां तक कि स्विटजरलैंड, जो अपनी तटस्थता के लिए पहचाना जाता है वह भी सावधानी से रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मुंह मोड़ रहा है। केवल पिछले तीन दिन में कई बड़े कदम उठाए गए हैं। कई देशों की सरकारों से लेकर कई गठबंधनों, संगठनों आदि ने रूस पर कई प्रतिबंध लगाए हैं। कई मायने में ये प्रतिबंध ईरान और उत्तर कोरिया के खिलाफ लगे प्रतिबंधों से भी कहीं अधिक कड़े हैं।
अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने रूस को हल्के में लेकर गलती की
अमेरिका और उसके नेतृत्व वाले संगठन नाटो में शामिल देशों की रूस के साथ बातचीत विफल होने के बाद यूक्रेन पर रूसी सेना के हमले की आशंका बढ़ गई थी। अंतत: रूस यूक्रेन पर हमला करके ही माना। इस हमले के जवाब में अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने रूस पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए हैं। ये देश सुरक्षा परिषद में रूस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव भी लाए। रूस ने वीटो का इस्तेमाल कर उसे विफल कर दिया और भारत, संयुक्त अरब अमीरात एवं चीन ने खुद को मतदान से अलग रखा। भारत मतदान से अनुपस्थित अवश्य रहा, लेकिन उसने यह स्पष्ट किया कि वह यूक्रेन के घटनाक्रम से व्यथित है। भारत ने कूटनीति का रास्ता त्यागने पर अफसोस जाहिर करते हुए यह भी कहा कि हिंसा और शत्रुता तुरंत खत्म करने के सभी प्रयास करने चाहिए। एक तरह से भारत ने रूस को यह संदेश दिया कि वह उसकी कार्रवाई से खुश नहीं। भारत के रुख से अमेरिका और उसके सहयोगी देश असहमत हो सकते हैं, लेकिन वे इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि भारत के सामने चीन की चुनौती है। फिलहाल यह कहना कठिन है कि दुनिया यूक्रेन पर रूस के हमले से उपजे अभूतपूर्व संकट का सामना किस तरह करेगी? रूस यूक्रेन के समर्पण करने के बाद ही उससे बात करने को तैयार है और वह हथियार डालने को राजी नहीं है। रूस के रवैये को देखते हुए यह साफ है कि उसे अमेरिका और अन्य देशों की ओर से लगाए जा रहे प्रतिबंधों की परवाह नहीं है।
- राजेंद्र आगाल