बदलेगा बुंदेलखंड का मिजाज
03-Mar-2022 12:00 AM 1091

 

उप्र विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उप्र और रुहेलंखड के बाद अब सियासी दलों का इम्तेहान बुंदेलखंड के इलाके में होने जा रहा है। 5 साल पहले 2017 के चुनाव में मोदी लहर पर सवार भाजपा ने बुंदेलखंड में क्लीन स्वीप किया था और सपा, बसपा और कांग्रेस खाता तक नहीं खोल सकी थीं। भाजपा ने बुंदेलखंड में अपनी सियासी जड़ें ऐसी मजबूत कीं, कि सपा और बसपा का गठबंधन भी 2019 के चुनाव में उसे नहीं हिला सका। ऐसे में सभी की निगाहें बुंदेलखंड पर टिकी हैं कि 2022 के चुनाव में किसका पलड़ा भारी रहता है? 

बुंदेलखंड का इलाका सियासी रूप से काफी अहम है, जो उप्र और मप्र में फैला हुआ है। उप्र के 7 और मप्र के 7 जिले आते हैं। उप्र के झांसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, बांदा, महोबा और कर्बी (चित्रकूट) जिले की 19 विधानसभा सीटें है। बुंदेलखंड के इलाके की सीटों पर तीन चरणों में चुनाव है, जिसकी शुरुआत तीसरे चरण से शुरू होकर पांचवे चरण तक खत्म हो गई है। तीसरे चरण में झांसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर और महोबा जिले की 13 सीटों पर तो चौथे चरण में बांदा जिले की 4 सीटों और पांचवें चरण में चित्रकूट जिले की 2 सीटों पर मतदान हो चुका है।

बुंदेलखंड क्षेत्र में एक समय कांग्रेस का वर्चस्व हुआ करता था। यहां की अधिकांश सीटों पर कांग्रेस ही काबिज रही, लेकिन 1984 के बाद से इस इलाके में कांग्रेस की पकड़ कमजोर होती गई और उसकी जगह सपा और बसपा और फिर भाजपा ने ले ली। 2014 में भाजपा ने बुंदेलखंड में अपनी सियासी जड़ें मजबूत की तो फिर उसे कोई उखाड़ नहीं सका। 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने बुंदलेखंड की सभी 19 विधानसभा सीटों को जीतकर अपना सियासी वर्चस्व कायम किया था। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा मिलकर भी बुंदेलखंड में भाजपा के विजय रथ को नहीं रोक सकी थी, जिसका नतीजा था इस इलाके की सभी पांचों संसदीय सीटों पर भाजपा कमल खिलाने में कामयाब रही थी। भाजपा के इस मजबूत गढ़ पर विपक्षी दलों के नजर लगी हुई हैं।

बुंदेलखंड क्षेत्र के जातीय समीकरण को देखें तो ओबीसी और दलित वोटर अहम हैं। यहां 22 फीसदी सामान्य वर्ग के वोट हैं, जिनमें ब्राह्मण और ठाकुरों की संख्या अच्छी खासी है। इसके अलावा वैश्य समुदाय भी हैं। 43 ओबीसी वोटर है, जिनमें कुर्मी, निषाद, कुशवाहा जातियां बड़ी संख्या में हैं। 26 दलित वोटर हैं, जिनमें जाटव की संख्या काफी अधिक है और कोरी समुदाय भी ठीक-ठाक है। सियासी समीकरण के चलते ही बुंदेलखंड का इलाका एक दौर में बसपा का मजबूत गढ़ हुआ करता था और मायावती की सोशल इंजीनियरिंग ने यहां खासा असर डाला था। एक तरफ मायावती की टीम के बड़े मुस्लिम चेहरे रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी बांदा से आते थे तो वहीं ओबीसी फेस कहे जाने वाले बाबू सिंह कुशवाहा भी यहीं के थे। दद्दू प्रसाद जैसे दलित नेता पार्टी में थे तो पुरुषोत्तम नारायण द्विवेदी जैसे ब्राह्मण चेहरा हुआ करते थे। लेकिन, मायावती के साथ आज इनमें से कोई भी नेता नहीं है।

बसपा ने मुस्लिम, ओबीसी, दलित और ब्राह्मणों को साधकर बुंदेलखंड में धाक जमाई थी, लेकिन अब इस क्षेत्र में भाजपा ने ओबीसी, ठाकुर, ब्राह्मण और दलित वोटों को अपने साथ जोड़कर अपनी जगह मजबूत कर ली है। वहीं, उप्र में मोदी-योगी सरकार के आने के बाद बुदंलेखंड में विकास को रफ्तार मिली। बुंदेलखंड के विकास के लिए भाजपा सरकार ने बोर्ड का गठन भी किया है। झांसी से चित्रकूट के क्षेत्र को डिफेंस कॉरिडोर घोषित किया है। इटावा से चित्रकूट तक बन रहे बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे के जरिए विकास की सौगात मिली है। महोबा अर्जुन सहायक परियोजना से बुंदेलखंड के किसानों को पानी की किल्लत से निजात मिल सकती है। चित्रकूट एयरपोर्ट से लेकर अन्य तमाम परियोजनाओं के जरिए भाजपा ने विकास और हिंदुत्व को साथ लेकर चलने का काम किया है।

भाजपा इन विकास योजनाओं के जरिए अपने दुर्ग को मजबूत रखने की कवायद की है, लेकिन बुंदेलखंड में लोकल मुद्दे चुनाव में हावी हैं। बुंदेलखंड में सूखा, बेरोजगारी, पलायन और किसान आत्महत्या अक्सर मुद्दा बनती रही है। यहां पानी की कमी भी सियासी मुद्दा बनी रही। यही वह इलाका है जहां पीने के लिए वाटर ट्रेन तक चलाई गई। मंहगाई और बेरोजगारी का जवाब भाजपा नेताओं के पास नहीं हैं। जमीनी हकीकत की बात करें तो आवारा अन्ना पशुओं से परेशान बुंदलेखंड की कई सीटों पर बदलाव के आसार नजर आ रहे हैं। अन्ना पशुओं से किसानों की फसलें काफी बर्बाद हुई हैं। बुंदेलखंड में आवारा पशु भाजपा के लिए चिंता का सबब बन गए हैं, क्योंकि विपक्ष इस मुद्दे पर योगी को घेर रहा है। भाजपा को तर्कों के साथ मैदान में उतरना होगा, क्योंकि इस इलाके में बसपा और सपा जातीय समीकरण फिट करते ही भाजपा से सीटों को छीनने की रणनीति पर काम कर रही हैं।

बुंदेलखंड में वोटों की सेंधमारी

बसपा के लिए बुंदेलखंड में चीजें तब से बदल गईं जब से भाजपा ने ओबीसी और दलित वोट में सेंधमारी की। वहीं बसपा ने जाटवों के अपने कोर वोट बैंक के अलावा, अपने वोट हासिल करने की उम्मीद में अन्य समुदायों के उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। मुस्लिम आबादी कम होने के कारण सपा की उम्मीद यादवों के अलावा अन्य समुदायों के वोट बटोरने पर टिकी है। सपा ने इस बार बुदंलेखंड के सियासी समीकरण को देखते हुए कुर्मी, दलित, कुशावाहा समुदाय के कैंडिडेट उतार रखे हैं। ललितपुर से सपा ने पूर्व विधायक और भाजपा नेता रमेश कुशवाहा को मैदान में उतारा है। सपा नेता चंद्र भूषण सिंह बुंदेला को सपा से टिकट मिलने की उम्मीद थी लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिली तो बसपा की ताल ठोक रहे हैं। वहीं भाजपा के उम्मीदवार विधायक राम रतन कुशवाहा हैं। मौरानीपुर सीट पर भाजपा विधायक बिहारी लाल आर्य ने 2017 में सपा की रश्मि आर्य को हराया था। इस बार आर्य भाजपा के सहयोगी अपना अल (एस) के उम्मीदवार हैं। सपा ने बसपा से आए तिलकचंद अहिरवार और बसपा ने रोहित रतन अहिरवार को मैदान में उतारा है। बांदा, हमीरपुर और जालौन जिलों में, बसपा एक कारक बनी हुई है और कुछ सीटों पर भाजपा के साथ सीधे मुकाबले में है। 

- सिद्धार्थ पांडे

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