राष्ट्रपति का रण
16-Jun-2022 12:00 AM 654

 

देश में राष्ट्रपति चुनाव का माहौल बनते ही सत्ताधारी भाजपा और विपक्षी खेमे में उम्मीदवारों को लेकर माथापच्ची शुरू हो चुकी है। विपक्ष इस बार भाजपा की मोदी सरकार को कड़ी चुनौती देने की तैयारी में जुटा है, तो भाजपा सिर्फ अपने नंबर दुरूस्त करने में लगी है। वैसे भी एक बार नंबर दुरूस्त हो जाएं, फिर कोई फिक्र वाली बात तो बचती भी नहीं है।

राष्ट्रपति चुनाव की अधिसूचना जारी होते ही संभावित उम्मीदवारों के रूप में दो नाम ट्विटर पर ट्रेंड करने लगे - आरिफ मोहम्मद खान और मायावती। आरिफ मोहम्मद खान फिलहाल केरल के राज्यपाल हैं और उप्र की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती बसपा की नेता हैं। ये दोनों ही नेता सत्ताधारी भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट किए जा रहे हैं, लेकिन मुश्किल बात ये है कि सोशल मीडिया पर इनका नाम ट्रेंड करना ही इनके रास्ते की दीवार बन गई लगती है, क्योंकि अब इनके नाम में सरप्राइज एलिमेंट तो बचा नहीं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सीनियर भाजपा नेता अमित शाह तो ऐसे मामलों में सरप्राइज देने के लिए ही जाने जाते हैं। ये नेता अगर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों की मोदी-शाह की संभावित सूची का हिस्सा भी रहे होंगे तो अब अपना पत्ता साफ ही समझें। हालांकि, ये धारणा भी भाजपा में 75 साल की रिटायरमेंट की उम्र जैसी ही है। 75 पार कर लेने के बाद भी भाजपा नेता बीएस येदियुरप्पा ने काफी दिनों तक कर्नाटक के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे रहकर भाजपा के बारे में बनी ये धारणा भी बदल दी है।

बहरहाल, मायावती के लिए राहत भरी संभावना ये जरूर हो सकती है कि विपक्ष अपने खाते से बसपा नेता को उम्मीदवार बनाने पर विचार करे। मीडिया में कुछ रिपोर्ट तो ये भी कह रही हैं कि भाजपा में उप्र में भविष्य की राजनीति को ध्यान में रखते हुए मायावती या मुलायम सिंह यादव के नाम पर भी विचार चल रहा है। मायावती की बात तो एक बार सोची भी जा सकती है, लेकिन मुलायम सिंह यादव को भाजपा की तरफ से राष्ट्रपति भवन भेजे जाने का कोई ज्योतिषीय संयोग भी नहीं लगता। सुनने में ये भी आ रहा है कि सोनिया गांधी ने इस बार ऐतिहासिक फैसला ले लिया है। ये पहला मौका होगा अगर वास्तव में कांग्रेस राष्ट्रपति चुनाव में अपना कोई उम्मीदवार नहीं उतारती है। बेशक कांग्रेस ने ऐसा कदम इसलिए बढ़ाया है ताकि विपक्षी खेमे में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को लेकर एक जैसी सोच वाले राजनीतिक दलों के बीच आम राय बन सके। एक सवाल ये भी है कि क्या सोनिया गांधी ने ये फैसला इसलिए लिया है क्योंकि कांग्रेस के पास राष्ट्रपति चुनाव के मैदान में उतारने लायक कोई नेता ही नहीं बचा है?

शरद पवार- विपक्षी खेमे में एकमात्र शरद पवार ही ऐसे नेता हैं जो सीनियर होने के साथ-साथ सबसे अनुभवी भी हैं, और आज भी अपने दम पर चुनाव जिताने का माद्दा रखते हैं। 2019 में सतारा का वाकया शायद ही कभी कोई भूल पाए। विपक्ष में शरद पवार के अलावा राष्ट्रपति पद के लिए कोई दमदार उम्मीदवार तो नजर नहीं आ रहा है। सतारा में शरद पवार की चुनावी रैली थी और मौसम बहुत खराब हो गया था। लोग शरद पवार को रैली रद्द करने की सलाह भी दे रहे थे, लेकिन जो शख्स कैंसर जैसी बीमारी को हरा चुका हो वो कहां आसानी से अपने कदम पीछे खींच सकता है। शरद पवार रैली स्थल पर पहुंचे और सीधे मंच पर चढ़ गए। बारिश में भीगते हुए शरद पवार के भाषण का वीडियो वायरल हुआ और वहां जीत भी एनसीपी के ही खाते में जुड़ी। शरद पवार ने साबित कर दिया कि दमखम पूरा बरकरार है।

सोनिया गांधी और राहुल गांधी को ईडी के नोटिस पर पूछताछ के लिए पेश होने जाना पड़ रहा है, लेकिन वहीं प्रवर्तन निदेशालय शरद पवार को नोटिस भेजने के बावजूद मना कर चुका है कि उनको दफ्तर आने की जरूरत नहीं है। नोटिस मिलने पर शरद पवार ने घोषणा कर दी थी कि वो ईडी के दफ्तर जाकर पेश होंगे, लेकिन स्थिति कल्पना से घबराए पूरे मुंबई पुलिस प्रशासन को शरद पवार से अपना कार्यक्रम रद्द करने के लिए मान मनौव्वल करनी पड़ी थी। 80 साल से ऊपर के हो चुके शरद पवार विपक्षी खेमे के जनाधार वाले नेताओं में सबसे सक्षम नजर आते हैं और विपक्षी खेमे में ऐसी अहमियत है कि सिर्फ ममता बनर्जी ही नहीं सोनिया गांधी भी उनको अपने पक्ष में बनाए रखने के लिए हर संभव कोशिश करती हैं। अगर विपक्ष में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में शरद पवार के नाम पर आम राय बनती है तो एनडीए का जो भी उम्मीदवार हो, शरद पवार की चुनौती सबसे जबरदस्त हो सकती है।

मायावती- अगर मायावती एनडीए की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार बनती हैं तो भाजपा की तरफ से रिटर्न गिफ्ट ही समझा जाएगा। बीते चुनावों को छोड़ भी दें तो उप्र चुनाव 2022 में मायावती की भूमिका पर हमेशा सवाल उठे और उन पर भाजपा की मददगार बनने तक का आरोप लगा और बाद में तो राहुल गांधी ने भी ये बात खुलेआम बोल दी थी। मायावती को अगर विपक्षी खेमे का उम्मीदवार बनाया जाता है तो उप्र की राजनीति भाजपा के लिए मुश्किल हो सकती है। विपक्ष उप्र के दलित वोटर को समझा सकता है कि भाजपा ने इस्तेमाल तो किया लेकिन मायावती पर विश्वास नहीं किया। अब सवाल ये है कि मायावती को विपक्ष का उम्मीदवार बनाए जाने से किसे सबसे ज्यादा फायदा होगा? ऐसे फायदे का आधार सिर्फ ये हो सकता है कि उप्र के दलित वोटर को कौन क्या समझा पाता है? अगर कांग्रेस मायावती के वोट बैंक को ये समझा सके तो हो सकता है कि कुछ दलित वोटर पार्टी की तरफ लौट आए।

अगर कांग्रेस मायावती से मिलने वाले फायदे में अखिलेश यादव को भी शेयर होल्डर बना ले तो मामला काफी आसान हो सकता है। फिर कांग्रेस को अखिलेश यादव को यकीन दिलाना होगा कि आने वाले चुनाव में वो अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री पद के लिए सपोर्ट करेगी और मायावती से मिलने वाले फायदे को दोनों आपस में शेयर करेंगे। मायावती के नाम पर उप्र से बाहर भी पंजाब, कर्नाटक और राजस्थान जैसे राज्यों में थोड़ा बहुत फायदा हो सकता है। लेकिन ये भी मुंगेरीलाल के हसीन सपने जैसा ही हो सकता है। बड़ा सवाल तो ये है कि क्या मायावती भाजपा उम्मीदवार के खिलाफ चुनाव लड़ने को राजी होंगी भी?

मुलायम सिंह यादव- एक मीडिया रिपोर्ट में मुलायम सिंह यादव को भाजपा की तरफ से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने की संभावनाएं जताई गई हैं। दलील तो किसी भी तरफ से दी जा सकती है। सवाल ये है कि वो व्यावहारिक पैमाने पर भी तो खरी उतरनी चाहिए। भला भाजपा किसी ऐसे नेता को क्यों राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाएगी जो कारसेवकों पर गोली चलवाने में बार-बार गर्व जता चुका हो और जिसके लिए उप्र के मुख्यमंत्री चुनावों में अब्बाजान कहकर बुलाते रहे हों? रही बात विपक्ष की तो मुलायम सिंह यादव को विपक्ष का उम्मीदवार बनाने से होने वाले फायदे की तो उप्र के अलावा मुश्किल से हिंदी पट्टी के कुछ राज्यों में ऐसी संभावना जताई जा सकती है। अंग्रेजी के विरोधी होने की वजह से दक्षिण भारत में तो विपक्ष को मुश्किल भी हो सकती है और ये भी संभव है कि एमके स्टालिन या पी विजयन जैसे नेता राजी न हों। खुद भी मुलायम सिंह यादव ने मैनपुरी के लोगों से 2019 में ही बोल दिया था कि जिता देना, आखिरी बार चुनाव लड़ रहा हूं। सेहत का दुरूस्त न रहना भी एक बड़ी बाधा हो सकती है क्योंकि अभी करहल में भी देखा गया कि चुनाव प्रचार के लिए गए तो अखिलेश यादव के लिए वोट मांगना ही भूल गए थे। जब याद दिलाया गया तो लोगों से अखिलेश यादव को वोट देने की अपील की थी।

नीतीश कुमार- नीतीश कुमार अकेले ऐसे नेता हैं जिनको 2022 के राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवारी का ऑफर सबसे पहले मिल चुका है। जेडीयू के पूर्व उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर ने ही ऐसा प्रस्ताव दिया था। समझा जाता है कि प्रशांत किशोर वो प्रस्ताव तेलंगाना के मुख्यमंत्री और टीआरएस नेता के चंद्रशेखर राव की तरफ से दिए थे। अब ये नहीं मालूम कि उस प्रस्ताव की की कोई वैलिडिटी बची हुई है भी या नहीं? वैसे नीतीश कुमार सरकार के एक मंत्री श्रवण कुमार का कहना है कि जेडीयू नेता ने न तो ऐसा कोई दावा किया है, न ही ऐसी कोई उनकी इच्छा है। ऐसा लगता है कि मौका देखकर ही नीतीश कुमार ने अपने मंत्री से ये बयान दिलवाया है। दरअसल, मंत्री ने उनके 2025 तक बिहार के मुख्यमंत्री बने रहने का भी दावा किया है। वैसे भी जिस चुनाव में जीत की बहुत ही कम संभावना हो, नीतीश कुमार भला उम्र के इस पड़ाव पर कैरियर का कबाड़ा जानबूझकर क्यों करेंगे? अगर ऐसा कोई प्रस्ताव भाजपा दे तो फायदा ही फायदा है, लेकिन अभी विपक्ष की तरफ होने से तो फजीहत ही है।

आरिफ मोहम्मद खान- केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान का नाम अचानक सुर्खियों में आ गया है। कयास लगाए जा रहे हैं कि आरिफ मोहम्मद खान को भी भाजपा एपीजे अब्दुल कलाम की तरह एनडीए की तरफ से राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बना सकती है। एपीजे अब्दुल कलाम को अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते राष्ट्रपति क्यों बनाया गया था, सभी जानते हैं और उसी तर्ज पर आरिफ मोहम्मद खान के नाम पर चर्चा होने लगी है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या मौजूदा भाजपा नेतृत्व को ऐसी कोई जरूरत महसूस होती होगी? राष्ट्रपति चुनाव की घोषणा होते ही ट्विटर पर केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान का नाम ट्रेंड करने लगा था। ऐसे ट्वीट और रीट्वीट करने वालों का ये मानना रहा होगा कि भाजपा नेतृत्व आरिफ मोहम्मद खान को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना सकती है। ऐसा इसलिए क्योंकि एनडीए की तरफ से आरिफ मोहम्मद खान के उम्मीदवार होने की सूरत में विपक्षी दलों की तरफ से कोई विरोध करने की हिम्मत नहीं कर सकेगा।

मीरा कुमार या मनमोहन सिंह

अब अगर सवाल है कि कांग्रेस के पास राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार बनाने लायक कोई नेता नहीं है क्या? इस सवाल के जवाब में एकमात्र नाम आता है वो है गुलाम नबी आजाद का। लेकिन गुलाम नबी आजाद तो कांग्रेस में बागी बने हुए हैं और अगर उनकी नाराजगी दूर करने के लिए कांग्रेस नेतृत्व उम्मीदवार बनाने का फैसला कर भी ले तो ये जरूर देखा जाएगा कि ऐसा करने कोई राजनीतिक फायदा भी हो सकता है क्या? गुलाम नबी आजाद का प्रभाव क्षेत्र जम्मू-कश्मीर है और वहां भाजपा के अलावा किसी के लिए भी राजनीति के लिए कम भी संभावना बन रही है। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है, भाजपा सरकार में पद्म पुरस्कार पाने वाले गुलाम नबी आजाद एनडीए कैंडिडेट के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए राजी होंगे क्या? कहीं ऐसा न हो कि इधर कांग्रेस ने गुलाम नबी आजाद को विपक्ष का उम्मीदवार बनाने की घोषणा की और उधर माया मोह में पड़कर वो सेवा में सविनय निवेदन के साथ ठुकरा दें? ऐसे में कांग्रेस के पास एक विकल्प ये भी बचता है कि वो मीरा कुमार को ही फिर से मैदान में उतार दे। कोई कुछ भी कहे अब ऐसा भी नहीं कि ग्रैंड ओल्ड पार्टी के पास राष्ट्रपति चुनाव लड़ने लायक एक भी नेता न बचा हो। सोनिया गांधी और राहुल गांधी भले ही अपने लिए ऐसे प्रस्तावों को अपने लिए मिसफिट पाते हों, लेकिन मनमोहन सिंह तो हैं ना!

मुसलमान भाजपा के साथ अब भी नहीं है

गुजरे जमाने में भाजपा को सियासी सजावट के लिए कुछ मुस्लिम नेताओं की सख्त जरूरत हुआ करती थी, क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कट्टर हिंदुत्व के प्रभाव वाली आइडियोलॉजी को कंधे पर लेकर समान सोच वाले राजनीतिक दलों के साथ मिलजुल कर आगे बढ़ना मुश्किल हो जाता रहा, लेकिन अब रेस में भाजपा सरपट इतना आगे निकल चुकी है कि ऐसे सारे मिथक पीछे छूट चुके हैं। सत्ता की राजनीति के हिसाब से अब तक भाजपा के दो दौर देखे जा चुके हैं। और ये दोनों ही दौर ऐसे हैं जिनमें तुलना की जाए तो हर तरह से बड़े फासले नजर आते हैं, एक वाजपेयी का दौर और दूसरा मोदी का मौजूदा दौर। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने के मुस्लिम नेता मुख्तार अब्बास नकवी की जरूरत अब भाजपा में पूरी तरह खत्म हो चुकी है। कभी आरिफ बेग, सिकंदर बख्त, नजमा हेपतुल्ला और सैयद शाहनवाज हुसैन जैसे नेताओं की खासी अहमियत हुई करती थी। बाद में ऐसे नेताओं की फेहरिस्त में एमजे अकबर और जफर इस्लाम का नाम भी शामिल हो गया, लेकिन वाजपेयी काल के नकवी और शाहनवाज की भाजपा को राष्ट्रीय राजनीति में जरूरत खत्म हो गई लगती है। कांग्रेस से ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा में लाने का थोड़ा सा क्रेडिट जफर इस्लाम को भी मिलता है, काफी है। मिशन पूरा हो गया तो आगे भी वैसे ही ढोते रहने से क्या फायदा।

- कुमार विनोद

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