राजनीतिक भविष्य का उपचुनाव
03-Nov-2020 12:00 AM 425

 

मप्र में 28 विधानसभा सीटों पर 3 नवंबर को उपचुनाव के लिए मतदान होंगे और 10 नवंबर को परिणाम आएंगे। उपचुनाव में कौन कितनी सीटें जीतेगा यह तो परिणाम आने के बाद ही पता चल पाएगा लेकिन इस उपचुनाव में भाजपा-कांग्रेस के दिग्गज नेताओं की साख दांव पर लगी हुई है। खासकर भाजपा के 4 और कांग्रेस के 2 दिग्गज नेताओं की राजनीति का भविष्य यह उपचुनाव तय करेगा। 

देश में पहली बार किसी एक राज्य की 28 सीटों पर एकसाथ चुनाव हो रहे हैं और इन उपचुनावों की जीत-हार दोनों पार्टियों का भविष्य वैसे ही तय करेगी जैसे आम चुनाव करते हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है, जब भाजपा में शामिल हुए कांग्रेसी नेता मोदी-मोदी कर रहे हैं और भाजपा उन्हें गले लगा रही है। 2018 के विधानसभा चुनाव शिवराज और सिंधिया के बीच हुए थे और अब दोनों 2020 में मिलकर उपचुनाव लड़़ रहे हैं और वह भी कांग्रेस के खिलाफ। इसलिए कहा जाता है कि युद्ध, प्यार और राजनीति में सब जायज है। लेकिन इस चुनाव में तीन नेताओं शिवराज सिंह चौहान, ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ की लोकप्रियता दांव पर है। मप्र में कौन कितना लोकप्रिय है, इसका फैसला 10 नवंबर को हो जाएगा। लेकिन इससे पहले इन तीनों नेताओं को अपनी लोकप्रियता की अग्निपरीक्षा देनी पड़ रही है।

उपचुनाव में भाजपा की कमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के पास है और कांग्रेस की कमान कमलनाथ के पास। प्रचार अभियान में भाजपा ने सिंधिया को केवल ग्वालियर संभाग का दायित्व सौंपा है, जबकि कमलनाथ ने पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को प्रचार से दूर रखा है। संभवत: कांग्रेस प्रत्याशी भी नहीं चाहते हैं कि उनके प्रचार अभियान में दिग्विजय सिंह आएं, जबकि भाजपा के चुनाव चिन्ह पर लड़़ रहे  प्रत्याशी चाहते हैं कि उनके प्रचार में सिंधिया जरूर रहें। इनका सोचना है कि सिंधिया जीत की गारंटी है। यह गारंटी किसी समय दिग्विजय सिंह के साथ जुड़़ी थी। यह समय-समय की बात है।

आमतौर पर किसी भी उपचुनाव के नतीजे से किसी सरकार की सेहत पर कोई खास असर नहीं होता, सिर्फ सत्तारूढ़ दल या विपक्ष के संख्याबल में कमी या इजाफाा होता है, लेकिन मप्र में 28 विधानसभा सीटों के उपचुनाव से न सिर्फ सत्तापक्ष और विपक्ष का संख्या बल प्रभावित होगा, बल्कि राज्य की मौजूदा सरकार का भविष्य भी तय होगा कि वह रहेगी अथवा जाएगी, इसलिए भी इन उपचुनावों को अभूतपूर्व कहा जा रहा है। इन उपचुनावों के परिणाम पर सरकार का भविष्य तय होगा। वैसे तो नवंबर की 3 और 7 तारीख को 11 राज्यों की 56 विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव हो रहे हैं, लेकिन उनमें मप्र विधानसभा की 28 सीटों के चुनाव काफी अहम हैं। वैसे तो संसद या विधानसभा के किसी भी सदन की किसी भी खाली सीट के लिए उपचुनाव होना एक सामान्य प्रक्रिया है लेकिन मप्र की 28 सीटों पर हो रहे उपचुनाव देश के संसदीय लोकतंत्र की एक अभूतपूर्व घटना है। राज्य की 230 सदस्यीय विधानसभा में 28 सीटों के लिए यानी 12 फीसदी सीटों के लिए उपचुनाव इसलिए भी ऐतिहासिक हैं कि इससे पहले किसी राज्य में विधानसभा की इतनी सीटों के लिए एकसाथ उपचुनाव कभी नहीं हुए।

प्रदेश में पहली बार यह भी देखने को मिल रहा है कि उपचुनाव की इस जंग में कांग्रेस, भाजपा, बसपा के साथ ही कई अन्य पार्टियां और निर्दलीय मैदान में हैं। प्रदेश के 19 जिलों के 28 विधानसभा क्षेत्रों में 355 प्रत्याशी चुनावी मैदान में हैं। इनमें से मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच है। वहीं करीब एक दर्जन सीटों पर बसपा के कारण त्रिकोणीय मुकाबले की स्थिति निर्मित हो रही है। इस तरह इस उपचुनाव में 68 (भाजपा-28, कांग्रेस-28, बसपा-12) प्रत्याशी चुनावी मैदान में जीत के लिए दम लगा रहे हैं, जबकि 287 प्रत्याशी ऐसे हैं, जो वोट काटकर इनकी हार-जीत के गणित को प्रभावित करेंगे। इस कारण न तो भाजपा और न ही कांग्रेस इस बात को लेकर संतुष्ट है कि वह सरकार बनाने के अंक गणित में सफल हो जाएंगे।

28 सीटों पर हो रहे उपचुनाव सरकार के साथ ही भाजपा-कांग्रेस के दिग्गज नेताओं की राजनीतिक किस्मत भी तय करेंगे। कांग्रेस सरकार में मंत्री और विधायक रहे जो 25 पूर्व विधायक चुनाव लड़ रहे हैं उनके लिए तो यह उपचुनाव जीवन-मरण के समान है। लेकिन इनसे भी अहम उनके लिए है जिनकी सरपरस्ती में ये चुनाव लड़ रहे हैं और जो इनको हराने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर रहे हैं। यानी भाजपा और कांग्रेस के दिग्गज नेताओं के लिए यह उपचुनाव उनकी लोकप्रियता का लिटमस पेपर भी है। इनमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, भाजपा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया, पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ, कांग्रेस सांसद दिग्विजय सिंह और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा शामिल हैं।

शिवराज सिंह चौहान के लिए व्यक्तिगत रूप से सत्ता में वापसी आसान नहीं रही है। उन्हें ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके साथी कांग्रेसी बागियों के साथ डील करनी पड़ी है। चौहान के इन बागियों को मंत्री पद तो देने ही पड़े साथ में सारे के सारे बागियों को टिकट भी देने पड़े। अब उपचुनाव में इनको जिताने की जिम्मेदारी भी इनके ऊपर है। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बारे में कहा जाता है कि वे हमेशा से शिवराज के लिए भाग्यशाली साबित हुए हैं। इनका ग्वालियर-चंबल अंचल में दबदबा भी है। इसलिए इनके ऊपर भी भाजपा प्रत्याशियों को जिताने की बड़ी जिम्मेदारी है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए ये उपचुनाव सम्मान की लड़ाई है। जहां भाजपा ने सिंधिया के साथ कांग्रेस से बगावत करने वालों को टिकट दे दिए हैं, अब सिंधिया का भाजपा में क्या कद होगा ये इसी आधार पर तय होगा कि वो कितने उम्मीदवारों को जिता पाते हैं। अगर आधे से ज्यादा उम्मीदवार हारते हैं, तो सिंधिया को भाजपा में किनारे किया जा सकता है और दूसरी तरफ उनको कांग्रेस के हमले का भी सामना करना पड़ेगा। उपचुनाव में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा की लोकप्रियता का आंकलन भी होगा। शर्मा भी ग्वालियर-चंबल अंचल के नेता हैं।

15 साल बाद सत्ता में वापस आने के बाद भी कांग्रेस अपनी सरकार 15 माह ही चला पाई। माना जाता है कि कमलनाथ के कारण ही सिंधिया समर्थक मंत्री और विधायक पार्टी से बाहर हुए और सरकार गिर गई। इसलिए कमलनाथ के ऊपर सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि वे उपचुनाव में अधिक से अधिक सीटें जीतकर कांग्रेस को सत्ता में वापस लाएं। कमलनाथ के लिए ये शायद आखिरी मौका है कि वो मप्र के मुख्यमंत्री बन पाएं। कमलनाथ अब 74 साल के हो गए हैं और जब तक मप्र में अगले विधानसभा चुनाव होंगे नाथ की उम्र 77 साल हो चुकी होगी। कांग्रेस में भी राहुल गांधी फिर से कमान संभाल सकते हैं और शायद वो 2023 चुनाव में मुख्यमंत्री पद के लिए नया चेहरा चुन सकते हैं। इसलिए कमलनाथ के लिए ये करो या मरो वाली स्थिति है।

इस चुनाव में एक और अहम किरदार हैं कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह। तोमर और सिंधिया की तरह ही दिग्विजय सिंह भी ग्वालियर-चंबल क्षेत्र से आते हैं और ये चुनाव दिग्विजय सिंह के लिए सम्मान की लड़ाई बन गई है। कहा जाता है कि कांग्रेस में रहते हुए और कांग्रेस छोड़ते वक्त भी सिंधिया और दिग्विजय सिंह में तलवारें खिंची हुई थीं। उपचुनाव में दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह भी चुनाव प्रचार में अहम भूमिका निभा रहे हैं। इस बार दिग्विजय सिंह ने खुद को लो-प्रोफाइल रखा है और बेटे को ही आगे किया है। जयवर्धन सिंह भी सीधे कमलनाथ के साथ संपर्क में रहते हुए चुनाव की तैयारियों में लगे हैं।

प्रदेश की राजनीतिक और प्रशासनिक वीथिका में 28 सीटों पर हो रहे उपचुनाव को कमलनाथ, सिंधिया और शिवराज के भविष्य का चुनाव भी कहा जा रहा है। इसलिए चुनावी मोर्चे पर ये तीनों नेता सबसे अधिक सक्रिय दिख रहे हैं। लेकिन मुख्यत: ये उपचुनाव शिवराज और कमलनाथ के बीच में है। शिवराज के ऊपर अपनी सत्ता बरकरार रखने की चुनौती है, वहीं कमलनाथ सत्ता में वापसी की कोशिश में हैं। उपचुनाव में शिवराज एक बार फिर भाजपा की जरूरत बन गए हैं। इसकी वजह यह है कि शिवराज प्रदेश के एकमात्र ऐसे नेता हैं जिनका समन्वय बनाने में कोई सानी नहीं है। अपनी पार्टी ही नहीं विपक्ष से भी समन्वय बनाकर वे काम करते हैं। इसलिए पिछले चुनावों की तरह इस उपचुनाव में भी भाजपा को जिताने की पूरी जिम्मेदारी उनके ऊपर है। यही कारण है कि जो लोग कल तक नाराज थे, वे सभी पार्टी की इज्जत बचाने के लिए सक्रिय हो गए हैं। अब देखना यह है कि 3 नवंबर को मतदाता किसके भाग्य में क्या डालता है।

दलबदलू नेता बने चुनौती

उपचुनाव में भाजपा और कांग्रेस के सामने एक जैसी चुनौती है। वह चुनौती हंै दलबदलू नेता। दरअसल, उपचुनाव में जहां भाजपा ने 25 सीटों पर उन नेताओं को प्रत्याशी बनाया है, जो कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए हैं। वहीं कांग्रेस ने भी 9 दलबदलू नेताओं को टिकट दिया है। कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए सिंधिया समर्थकों के साथ दूसरे नेता भी भाजपा के टिकट से दलबदल के बाद चुनाव लड़ रहे हैं। ऐसे में दलबदलू नेताओं के साथ आए उनके कार्यकर्ता भाजपा के कार्यकर्ताओं के साथ कितना घुल मिल गए हैं। यह एक बड़ा सवाल है। इसी तरह भाजपा के कई दलबदलू नेता भी कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ रहे हैं। ऐसे में उन नेताओं के समर्थक भाजपा छोड़कर कांग्रेस में आ गए हैं। कांग्रेस में भी भाजपा की तरह ही स्थिति है। ऐसे में दोनों पार्टियों का जोर कार्यकर्ताओं पर फोकस है। दोनों ही पार्टियां भाजपा और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के बीच तालमेल बिठाने की कोशिश कर रही है। बूथ लेवल पर भाजपा हो या फिर कांग्रेस अपनी पकड़ को मजबूत कर रही है। भाजपा प्रवक्ता पंकज चतुर्वेदी का कहना है कि उनकी पार्टी संगठन पर आधारित है। संगठन के कहने पर कार्यकर्ता कार्य करता है इसलिए कार्यकर्ता एकजुट है। उम्मीदवारों को जीत दिलाने के लिए पूरा जोर लगा रहा है।

क्या उम्मीदों पर खरा उतर पाएंगे सिंधिया?

देशभर में इस समय चर्चा का विषय यह बना हुआ है कि क्या मप्र में एक बार फिर कांग्रेस की सरकार बनेगी या कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामने वाले नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया कुछ जोरदार कमाल करेंगे। देश की जनता को इसका इंतजार है और उनका यह इंतजार 10 नवंबर को खत्म होगा। इसी बीच मप्र भाजपा के अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा का कहना है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने से भाजपा की ताकत बढ़ी है। यह भाजपा के कार्यकर्ताओं ने भी महसूस किया है और वह सभी की सभी 28 सीटों पर पार्टी की जीत सुनिश्चित करने में लग गए हैं। गौरतलब है कि कांग्रेस विधायकों के एक वर्ग में विद्रोह होने से 15 माह पुरानी कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार मार्च माह में गिर गई थी। इसके बाद शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा की सरकार प्रदेश में बनी। अब जब उपचुनाव हो रहा है तो भाजपा को उम्मीद है कि सिंधिया अपने समर्थकों के साथ ही अन्य भाजपा प्रत्याशियों को विजयश्री दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। लेकिन विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह सिंधिया का विरोध देखने को मिला उससे सवाल खड़े हो रहे हैं कि क्या सिंधिया भाजपा की उम्मीदों पर खरा उतर पाएंगे।

- कुमार राजेन्द्र

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