राहुल गांधी रिटर्न्स!
02-Jul-2020 12:00 AM 514

 

कांग्रेस समर्थकों एवं उनके चाहने वालों को 'राहुल गांधी रिटर्न्स’ का बेसब्री से इंतजार है। ऐसे में राहुल गांधी के सामने 'गांधी परिवार’ की राजनीतिक विरासत को बचाने के साथ-साथ आगे बढ़ाने की चुनौती है। इसके अलावा कांग्रेस के खोए हुए जनाधार को वापस लाने और खुद को साबित करने जैसी बड़ी चुनौती भी है। प्रियंका अपनी राजनीति का सिक्का उप्र में मनवा चुकी हैं और स्थानीय राजनीति में मशगूल हैं जबकि राहुल गांधी अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद से केंद्रीय मुद्दों पर लगातार सरकार को घेरने की रणनीति पर सक्रिय तौर पर काम कर रहे हैं।

कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी 50 साल के हो गए हैं। इसके साथ ही कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को फिर से पार्टी का अध्यक्ष बनाने की मांग उठ गई है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने मांग की है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी को फिर से पार्टी प्रमुख के रूप में कार्यभार संभालना चाहिए। युवा कांग्रेस अध्यक्ष श्रीनिवास बीवी ने भी गहलोत की मांग का समर्थन किया और कहा कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी को एक वर्चुअल सेशन बुलाना चाहिए और राहुल को पार्टी प्रमुख बनाना चाहिए।  ऐसे में सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी अध्यक्ष बनने के लिए तैयार हैं? क्या पूरी पार्टी उन्हें अध्यक्ष बनता देखना चाहती है? 2017 में कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभालने वाले राहुल गांधी ने 2019 के लोकसभा चुनावों में शर्मनाक हार के बाद पद से इस्तीफा दे दिया था। कांग्रेस का इस चुनाव में इतना खराब प्रदर्शन रहा कि पार्टी केवल 52 सीट जीत सकी। खुद राहुल अमेठी से चुनाव हार गए थे। उनके इस्तीफे के बाद यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष के रूप में चुना गया था। पद छोड़ने के समय राहुल गांधी ने वरिष्ठ नेताओं को उनके साथ मिलकर काम नहीं करने की बात कही थी। बता दें कि वर्तमान में भारत-चीन तनाव के मुद्दे पर राहुल गांधी ने केंद्र सरकार की काफी आलोचना की है और सरकार से इसे लेकर कई सवाल किए हैं।

माना कि इस समय कांग्रेस का मान और प्रतिष्ठा वो नहीं रहे जो कभी हुआ करती थी लेकिन राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका के कंधों पर कांग्रेस का वो ही वक्त वापस लाने की जिम्मेदारी है। फिलहाल कांग्रेस के युवराज के पास राजनीति से जुड़ी कोई जिम्मेदारी नहीं है लेकिन उसके बाद भी उम्मीद यही जताई जा रही है कि आने वाले समय में उन्हें फिर से कांग्रेस की बागड़ोर संभालते हुए देखा जा सकता है। मई 2004 का चुनाव लड़ने की घोषणा के साथ उन्होंने भारतीय राजनीति में प्रवेश की घोषणा की। वह अपने पिता के पूर्व निर्वाचन क्षेत्र उत्तर प्रदेश के अमेठी से लोकसभा चुनाव के लिए खड़े हुए।

हालांकि कुछ रणनीतिकारों को पूरा विश्वास था कि अमेठी की जनता राहुल गांधी को उसी तरह से स्वीकार करेगी, जिस तरह गांधी परिवार के अन्य सदस्यों सहित सोनिया गांधी को स्वीकार किया था। ये भी माना जा रहा था कि देश के सबसे मशहूर राजनीतिक परिवारों में से एक देश की युवा आबादी के बीच इस युवा सदस्य की उपस्थिति कांग्रेस पार्टी के राजनीतिक भाग्य को पुनर्जीवन देगी। ऐसा ही कुछ हुआ भी, उन्होंने एक लाख वोटों के अंतर से चुनाव क्षेत्र को परिवार का गढ़ बनाए रखा। उनका चुनावी अभियान प्रियंका गांधी द्वारा संचालित किया गया था।

2006 तक राहुल गांधी केवल एक सांसद बने रहे और न पार्टी में और न ही सत्ता में कोई पद ग्रहण किया। उन्होंने मुख्य निर्वाचन क्षेत्र के मुद्दों और उत्तर प्रदेश की राजनीति पर ध्यान केंद्रित किया। लेकिन भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रेस में व्यापक रूप से अटकलें थी कि सोनिया गांधी भविष्य में उन्हें एक राष्ट्रीय स्तर का कांग्रेस नेता बनाने के लिए तैयार कर रही हैं, जो बात बाद में सच साबित हुई।

जनवरी 2006 में, हैदराबाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक सम्मेलन में पार्टी के हजारों सदस्यों ने राहुल गांधी को पार्टी में एक और महत्वपूर्ण नेतृत्व की भूमिका के लिए प्रोत्साहित किया और प्रतिनिधियों के संबोधन की मांग की। इस पर उन्होंने कहा, 'मैं इसकी सराहना करता हूं और मैं आपकी भावनाओं और समर्थन के लिए आभारी हूं। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि मैं आपको निराश नहीं करूंगा।’ साथ ही धैर्य रखने को कहा और पार्टी में तुरंत एक उच्च पद लेने से मना कर दिया। इसके बाद राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने 2006 में रायबरेली में पुन: सत्तारूढ़ होने के लिए उनकी मां सोनिया गांधी का चुनाव अभियान हाथ में लिया, जो आसानी से चार लाख से अधिक अंतर के साथ जीतकर लोकसभा पहुंची।

2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए एक उच्च स्तरीय कांग्रेस अभियान में उन्होंने प्रमुख भूमिका अदा की लेकिन कांग्रेस केवल 22 सीटें ही जीत पाई। इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को बहुमत मिला, जो पिछड़ी जाति के भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती है। उस समय तक राहुल गांधी को सबने राजनीति का कच्चा नींबू ही समझा लेकिन 2008 के आखिर में राहुल गांधी पर लगी एक स्पष्ट रोक से उनकी शक्ति का पता पूरे देश को चल गया। तत्कालीन उप्र मुख्यमंत्री मायावती ने राहुल गांधी को चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय में छात्रों को संबोधित करने के लिए सभागार का उपयोग करने से रोक दिया। बाद में राज्य के राज्यपाल टीवी राजेश्वर (जो कुलाधिपति भी थे) ने विश्वविद्यालय के कुलपति वीके सूरी को पद से हटा दिया। गवर्नर राजेश्वर गांधी परिवार के समर्थक और सूरी के नियोक्ता थे। इस घटना को शिक्षा की राजनीति के साक्ष्य के रूप में उधृत किया गया और एक अखबार में एक व्यंग्यचित्र में लिखा गया- वंश संबंधित प्रश्न का उत्तर राहुलजी के पैदल सैनिकों द्वारा दिया जा रहा है। लेकिन इस घटना ने राहुल गांधी की ताकत का एक ट्रेलर दिखा दिया।

2009 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी को 3,33,000 वोटों के अंतर से पराजित करके अपना अमेठी निर्वाचक क्षेत्र बनाए रखा। इन चुनावों में कांग्रेस ने उप्र में 80 लोकसभा सीटों में से 21 जीतकर उत्तर प्रदेश में खुद को पुनर्जीवित किया और इस बदलाव का श्रेय भी राहुल गांधी को ही दिया गया। हालांकि 2014 के लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी के नेतृत्व में चुनाव लड़ गया लेकिन मोदी लहर में कांग्रेस तिनके की भांति उड़ गई। पिछले आम चुनावों में 206 सीटें जीतने वाली कांग्रेस लोकसभा में केवल 44 सीटों पर सिमट गई। हालांकि राहुल और सोनिया ने अपनी सीट सुरक्षित रखी। 16 दिसंबर, 2017 को राहुल गांधी को कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर मनोनीत किया गया। इसके बाद पार्टी का पूरा दारोमदार राहुल गांधी के हाथों में आ गया लेकिन पर्दे के पीछे की राजनीति कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के हाथ में रही और कमान सोनिया गांधी के।

2019 में हुए लोकसभा चुनावों में उम्मीद थी कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस मोदी लहर के बावजूद भाजपा को कड़ी चुनौती देगी लेकिन इतिहास फिर दोहराया गया। भाजपा 302 सीटें जीत पूर्ण बहुमत से सदन में पहुंची और कांग्रेस 52 पर सिमट गई। राजस्थान, हरियाणा सहित कई राज्यों में पार्टी का खाता तक नहीं खुला। खुद राहुल गांधी अपनी परम्परागत अमेठी सीट से भाजपा की स्मृति ईरानी के सामने हार बैठे। इससे दुखी होकर हार का पूरा दारोमदार उठाते हुए राहुल गांधी ने 3 अगस्त, 2019 को अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद वर्तमान में जो संगठन के हालात हैं, बेहद सोचनीय हैं। मध्य प्रदेश में सरकार गिर चुकी है, गुजरात व गोवा में कांग्रेस विधायक टूट चुके रहे हैं, राजस्थान में संकट बरकरार है, हरियाणा में भी हुड्डा बगावती तेवर दिखा रहे हैं, पंजाब में अंतर कलह चल रही है, उप्र में हालात बेहद सोचनीय हैं, महाराष्ट्र व झारखंड में कांग्रेस सरकार में जरूर है लेकिन सहयोगी बनकर। 18 से अधिक राज्यों में भाजपा का कमल खिला हुआ है। कांग्रेस का जनाधार लगातार सिमटता जा रहा है और संगठन बिखरा सा नजर आ रहा है। ऐसे में राहुल गांधी के सामने गांधी परिवार की राजनीतिक विरासत को बचाने के साथ-साथ आगे बढ़ाने की चिंता है। कुल मिलाकर कांग्रेस की राजनीति अर्श से फर्श पर आ गिरी है। अब कांग्रेस को फिर से खड़ा करना टेढ़ी खीर साबित हो सकता है।

छवि बदलने की चुनौती

राहुल गांधी के लिए सबसे बड़ी चुनौती है अपने छवि को बदलकर एक बार फिर से खड़े होने की। राहुल को अब अपनी छवि से इतर एक छवि बनाने की सबसे बड़ी चुनौती है, जिसमें एक विजेता बनकर उभरते दिख रहे हैं। कांग्रेस के सामने अपनी विचारधारा को लेकर भी एक बड़ी चुनौती है। राहुल कांग्रेस की विचाराधारा को तय नहीं कर पा रहे हैं। देश में लोग वामपंथी विचारधारा को नकार रहे हैं तो राहुल गांधी उसे स्वीकारते जा रहे हैं। दरअसल राहुल गांधी गरीब तबके या अमीर तबके की बात करते हैं लेकिन जो देश का सबसे बड़ा वोटर है 'मिडिल क्लास’, उसे अपने से दूर करते जा रहे हैं। पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत का सबसे बड़ा कारण ये मिडिल क्लास वोटर ही तो रहा है। मिडिल क्लास से कांग्रेस ने अपना पूरा नाता तोड़ लिया है जबकि एक दौर में पार्टी का मजबूत वोट बैंक हुआ करता था। इसके अलावा कांग्रेस के साथ एक बड़ी समस्या ये भी रही है कि न तो पार्टी कठिन निर्णय ले पा रही है और न ही मौकों को भुना पा रही है। 

नई दिशा मिलने का संकेत

राहुल गांधी जिस तरह से वापसी कर रहे हैं, उससे कांग्रेस को एक नई दिशा मिलती दिख रही है। विपक्ष की अगर बात आती है तो कांग्रेस ही दिखती है। राहुल गांधी के एक बयान पर जिस तरह से भाजपा हमलावर होती है, उससे भी राहुल की राजनीतिक अहमियत का पता चलता है। जिस तरह कोरोना संकट को लेकर उन्होंने तीन महीने पहले ही सरकार को आगाह कर दिया था, जिस तरह वित्तीय संकट को लेकर वे एक्सपर्ट से लगातार वार्ता कर रहे हैं, जिस तरह से चीन से हिंसक झड़प में उन्होंने भारतीय सैनिकों के निहत्थे होने का मसला उठाया है, अपनी छवि से इतर एक अलग छवि बनाने की कवायद जरूर करते दिखे हैं। राहुल अभी जिस तरह की राजनीतिक पहचान बना रहे हैं वो काफी महत्वपूर्ण है। इसी राह पर चलकर कांग्रेस के खोए हुए जनाधार को वो वापस ला सकते हैं। कोरोना को लेकर अपने रुख को बेहद सियासी समझदारी से तय कर रहे राहुल गांधी के ट्वीट सरकार को घेरते हैं लेकिन उनका लहजा आक्रामक न होकर सुझाव देने वाला होता है। राहुल दूध का जला, छाछ भी फूंक-फूंककर पीने वाली कहावत चरितार्थ करते हुए कोरोना पर अपनी प्रतिक्रियाओं को लेकर सजग हैं। वे जानते हैं कि कोरोना संकट के टल जाने के बाद ये सभी बड़े राजनीतिक मुद्दे बनेंगे।

- इन्द्र कुमार

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