22-Nov-2014 06:30 AM
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डेंगू का आतंक चरम पर है और मप्र को साफ-सुथरा और डेंगू मुक्त बनाने की जिम्मेदारी जिन एजेंसियों की है, वे एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डाल रही हैं। सबसे बिगड़े हालात तो भोपाल शहर में हैं जहां बाकी प्रदेश के मुकाबले चार गुना ज्यादा मौतें हुई हैं। लेकिन इसके बाद भी आलम यह है कि स्वास्थ्य विभाग कहता है कि हम सिर्फ बीमार होने के बाद दवा दे सकते हैं।
नगर-निगम का कहना है कि सारा भोपाल उसके अंडर में नहीं है, जिन इलाकों में सीपीए सहित अन्य एजेंसियों को स्वच्छता रखना चाहिए वहां भोपाल नगर-निगम कुछ नहीं कर सकता। उधर कातिल डेंंगू मच्छरों को यह नहीं पता है कि भोपाल के नागरिकों को स्वच्छ और स्वस्थ भोपाल देने की जिम्मेदारी जिनके कंधों पर है, उनमें आपसी समन्वय का व्यापक अभाव है। इसलिए भोपाल में 5 हजार रुपए जुर्माना वसूलने के लिए प्रस्तुत नगर-निगम की तमाम कवायदों के बावजूद सारे देश में डेंगू से सबसे ज्यादा मौत भोपाल शहर में ही हुईं। यहां तक कि उड़ीसा जैसे राज्य भी जहां बाढ़ और समुद्र की नमी के कारण स्थिति ज्यादा खतरनाक रहती है, डेंगू से होने वाली मौतों के आंकड़े में मध्यप्रदेश से पीछे ही हैं। नेशनल वेक्टर बोन कंट्रोल प्रोग्राम की रिपोर्ट की मानें तो प्रदेश में डेंगू के मरीजों का ना तो टेस्ट ढंग से हुआ और ना ही सही इलाज मिला। इसी कारण मौत का अकड़ा लगातार बढ़ता गया। मरीजों के इलाज में प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया गया।
जांच और इलाज नियमों के मुताबक नहीं हुआ। डेंगू को कम करने के लिए मरीजों को पेरासीटामॉल का ओवर डोज दिया गया। इलाज के लिए कंट्रोल प्रोग्राम द्वारा जारी गाइडलाइन का भी पालन नहीं किया। इससे डेंगू का संक्रमण स्वास्थ्य विभाग की तमाम कोशिशों के बाद भी बढ़ता चला गया।
प्रदेश में पॉजिटिव मरीजों की संख्या ओडिशा और केरल जैसे राज्यों से तीन गुना कम हैं। लेकिन मौत का आंकड़ा उससे ज्यादा। ओडिशा में 5079 पॉजिटिव मरीज मिले हैं। वहां 9 लोगों की डेंगू से जान गई है। वहीं प्रदेश में पॉजिटिव मरीजों की संख्या 1400 है। यहां 12 की मौत हुई है, जिनमें 9 तो सिर्फ भोपाल के हैं। स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों ने भोपाल में डेंगू के संक्रमण को रोकने पर ध्यान देने की बजाय बीमारी छिपाने पर जोर दिया। जबकि अधिकारियों को इसे नियंत्रित करने के लिए डेंगू मरीजों की संख्या 50 के पार होते ही कंट्रोल रूम बनाकर निगरानी करानी थी।
डॉक्टरों ने खून की जांच कराकर, ब्लड प्लेटलेट्स काउंट घटने देने पर ध्यान दिया। जबकि मरीज के ब्लड के हेमेटोक्रेट लेवल की मॉनीटरिंग करनी थी। इस गाइडलाइन का दोनों अस्पतालों में पालन नहीं हुआ। सरकारी और प्राइवेट हॉस्पिटल के डॉक्टर रेपिड और एलाइजा जांच में पॉजीटिव आए मरीजों को डेंगू के डेन-1 और डेन -2 वायरस के संक्रमण को कम करने का इलाज देते रहे। जबकि भोपाल में डेंगू का डेन - 3 और डेन -4 वायरस भी सक्रिय था। डेंगू के दूसरे वायरस के सक्रिय होने के कारण मरीजों के किडनी, लीवर तक संक्रमण पहुंचा। इसके बढऩे पर मरीजों की मौत भी हुई।
तापमान के भरोसे
जैसे ही भोपाल का तापमान 16 डिग्री से नीचे गया स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों ने राहत की सांस ली। डेंगू का लार्वा और मच्छर 16 डिग्री टेम्प्रेचर से नीचे आते ही मर जाते है। नगर निगम का दुर्भाग्य यह था कि इस बार 15 नवंबर तक तापमान 16 डिग्री से ऊपर ही बना रहा। पश्चिमी विक्षोभ के कारण तापमान ऊंचा बना रहा और कई लोगों को डेंगू हुआ। विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि 10 हजार से नीचे प्लेटलेट्स आने पर खून चढ़ाना चाहिए, लेकिन निजी अस्पतालों में 70-80 हजार के बाद ही खून चढ़ाया जिससे उन्हें आर्थिक लाभ हुआ। डेंगू से सर्वाधिक मौतें सरकार अस्पतालों में हुई। सवाल यह है कि निजी अस्पताल में डेंगू का मरीज स्वस्थ होकर घर लौट जाता है लेकिन सरकारी अस्पतालों में मौतें क्यों होती रहती है।
कब क्या किया गया
- 6 अक्टूबर: नगर-निगम ने डेंगू पर जीरो टॉलरेंस अपनाते हुए डोर-टू-डोर कैंपेन चलाया। नागरिकों को चेतावनी दी गई कि वे जमा पानी हटाएं और कीटनाशकों का छिड़काव करें। लेकिन कोई लक्ष्य हासिल नहीं हुआ।
- 8 अक्टूबर: कोलार क्षेत्र में डेंगू का लार्वा मिला। 200-200 रुपए अर्थदण्ड वसूला गया। 250 घरों में निरीक्षण किया गया उधर डेंगू फैलता रहा।
- 10 अक्टूबर को कुछ रहवासी कल्याण समिमियों को नोटिस भी दिया गया और हमीदिया में नए मरीज भर्ती हुए। खास बात यह है कि कोलार के आसपास के नाले तथा मैदानों में झाड़-झंकाड़ और पानी का रुकाव देखा गया। हुदहुद तूफान के आने से जगह-जगह पानी भर गया था, जो नहीं निकला। जिन नालों के द्वारा पानी बहना था, वे साफ न हो तो पानी कैसे निकलेगा।
- 11 अक्टूबर: निगम आयुक्त तेजस्वी एस नायक ने डेंगू उन्मूलन के उपायात्मक कदम एवं जनभागीदारी विषय पर आयोजित परिचर्चा में बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी की लेकिन न तो जनता की भागीदारी हुई और न ही डेंगू का प्रकोप रुका।
- 12 अक्टूबर: कुछ नए लोगों पर जुर्माना किया गया। गंदगी फैलाने वालों पर स्पॉट फाइन भी किया गया। एक स्कूल को 10 हजार रुपए जुर्माने के भरने पड़े। नगर-निगम का खजाना भरा रहा था लेकिन खर्च उन्हीं क्षेत्रों में किया जा रहा था जहां वीआईपी रहते हैं। फागिंग भी केवल चार इमली, चौहत्तर बंगले और अरेरा कॉलोनी के कुछ क्षेत्रों में होती रही। जिन वीआईपी के यहां शादी बर्थडे आदि पार्टी थी उनके घर के आसपास फागिंग जरूर होती थी।
- 13 अक्टूबर से 15 नवंबर तक अभियान जारी रहा। जब तापमान 4 डिग्री नीचे गिर गया तो नगर-निगम ने राहत की सांस ली क्योंकि उन्हें मालूम था कि किसी भी स्थिति में कम तापमान होने पर डेंगू का फैलाव रुक जाएगा। कुल मिलाकर मौसम ने आम जनता पर मेहरबानी की। नगर-निगम तो शांति बनाए बैठा था। कितना पैराथ्रम छिड़का गया, फागिंग में कितना खर्च किया गया ये सारे आंकड़े भोपाल नगर-निगम द्वारा एकत्र किए जा रहे हैं। अब डेंगू का प्रकोप कम होने लगा है इसलिए फुर्सत में समीक्षा की जा सकती है, लेकिन वह सवाल अभी भी अनुत्तरित है कि जो शहर पठारी इलाके में बसा है और जहां पानी की निकासी का पर्याप्त बंदोबस्त है वहां इस तरह की बीमारियां क्यों फैलती हैं?
जिम्मेदारी नहीं ली गई
नगर-निगम ने इस बार जनता को भरपूर कोसा, अच्छा खासा जुर्माना भी वसूला। नगर-निगम के एक जिम्मेदार अफसर से जब एकांत पार्क के आसपास की गंदगी और पानी के भराव के बारे में पूछा तो उन्होंने चिल्लाकर कहा कि एकांत पार्क सीपीए की जिम्मेदारी है। सीपीए से संपर्क साधा गया तो वहां से काई जबाव नहीं मिला। स्वास्थ्य विभाग डेंगू से भोपाल जैसे शहर में 8-10 मौतें सामान्य मानता है क्योंकि भोपाल की जनसंख्या 30 लाख के करीब है। लेकिन इस सवाल का उत्तर किसी के पास नहीं है कि सारे भारत में भोपाल ही एकमात्र ऐसा शहर क्यों है जहां डेंंगू का प्रकोप सर्वाधिक फैला?
जिम्मेदारी किसकी है?
डेंगू शहर में खतरनाक तरीके से फैल गया और उसमें कई जानें भी गईं। लेकिन इतनी खतरनाक बीमारी के फैलाव के बाद भी जिला प्रशासन ने 700 अधिकारियों, कर्मचारियों की जो 70 टीमें बनाई थीं, वह 21 अक्टूबर को डेंगू अलर्ट के बावजूद अपनी भूमिका निभाने में ससफल रहीं। जिन 50 जिलों में नियंत्रण कक्ष स्थापित किए गए थे, उनमें से भोपाल सर्वाधिक प्रभावित था। यहां 11 मौतें हुईं। जबकि भोपाल में साफ-सफाई के लिए तैनात अमला सर्वाधिक है। भोपाल में कितनी फागिंग हुई, कितना कीटनाशक लगा, कितना क्षेत्र कवर किया गया, कितना अमला तैनात था, कितने घरों में सर्वे किया गया, कितने ब्लड सेंपल लिए गए? इन सब की जानकारी अधिकारी देना नहीं चाहते। मांगने पर सीडी में प्रेस नोट पकड़ा दिए जाते हैं, जिनका कोई औचित्य नहीं है। यही हाल चिकित्सा विभाग का है, जिसके आधिकारिक रिकार्ड में प्रदेश में मौत का आंकड़ा 12 है। जबकि भोपाल में ही डेंगू के कुल मरीजों का आंकड़ा भी प्रदेश में सर्वाधिक है। अब तक 516 डेंगू रोगी यहां सामने आ चुके हैं। भोपाल के बाद सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र नरसिंहपुर है, जहां डेंगू से आठ लोग मर चुके हैं और 100 से ज्यादा मरीज आ चुके हैं। छिंदवाड़ा, मंडला, इंदौर, कटनी और बैतूल आदि जिलों में भी डेंगू किसी न किसी की मौत का कारण बना है। प्रदेश में 1,300 से ज्यादा डेंगू पीडि़त हैं। डेंगू की यह स्थिति पांच साल में सबसे खराब है। वर्ष 2009 में प्रदेश में आधिकारिक तौर पर 1,467 डेंगू रोगी दर्ज किए गए थे। उस साल अकेले भोपाल में 32 लोगों की मृत्यु हो गई थी। इस बार स्थिति इस दृष्टि से ज्यादा गंभीर है कि यह प्रदेश के हर स्तर पर विफलता डेंगू के संभावित क्षेत्रों की पहचान और उनमें एहतियाती उपाय लागू करने के काम नहीं हुए। मलेरिया विभाग और निकायों ने फोगिंग मशीनों की धूल तक तब साफ की, जब बीमारी पैर पसार चुकी थी। आग लगने के बाद कुआं खोदा गया। सितंबर में डेंगू के मामले बढऩे के बाद लार्वा की खोज और उसे नष्ट करने की कार्रवाई की गई। कार्रवाई का अनुपात रोगियों की संख्या की तुलना में कम था। कई इलाके छूट गए। व्यवस्थित प्रयास नहीं किए गए। निजी अस्पतालों से संदिग्ध मरीजों की जानकारी लेने की माकूल व अनवरत व्यवस्था नहीं थी। सेंटरों पर एलाइजा टेस्ट की सुविधा का इंतजाम तक नहीं था। प्रत्येक जिले में पर्याप्त मात्रा में 15 दिन पहले ही दवाइयां पहुंचाई जा चुकी थीं। स्वास्थ्य विभाग में संसाधनों की कोई कमी नहीं थी। फिर भी मौतें होती रहीं।