22-Nov-2014 04:48 AM
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शिवसेना की इज्जत बचाते हुए और एनसीपी से परोक्ष समर्थन जुटाते हुए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने अंतत: विधानसभा में विश्वास मत हासिल कर ही लिया। दरअसल विश्वासमत पर मतदान किया जाता तो भाजपा के चित-परिचित सहयोगी शिवसेना की असलियत सामने आ सकती थी, इसलिए भाजपा ने सदन में वोटिंग नहीं कराई। जिस तरह एनसीपी ने मतदान के समय बहिर्गमन किया था, उसके बाद ही तय हो गया था कि 135 सदस्यों के साथ भाजपा सदन में बहुमत सिद्ध कर ही देगी। इससे पहले स्पीकर पद के लिए शिवसेना और कांग्रेस ने अपने प्रत्याशी हटाकर भाजपा का रास्ता साफ कर दिया था।
शिवसेना के अहसान का बदला भाजपा ने ध्वनिमत से विश्वासमत प्राप्त करके तत्काल चुका दिया। यदि भाजपा सदन में मतदान कराती तो शिवसेना के 20 विधायकों द्वारा क्रॉस वोटिंग की पूरी संभावना थी। फिलहाल भाजपा महाराष्ट्र में शिवसेना में किसी और विभाजन को हवा नहीं देना चाहती, क्योंकि इसका असर केंद्र सरकार के स्थायित्व पर पड़ सकता है। राज्यसभा में मोदी सरकार अल्पमत में है। जयललिता से ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। ममता का तो मिजाज ही अलग है और बाकी पूर्व सहयोगी भी उतने उदार नहीं हैं। लिहाजा अपनों को ही साधकर रखना पड़ेगा। इसलिए सुरेश प्रभु के अलावा कोई और झटका न देते हुए भाजपा ने फिलहाल शांति की नीति अपनाई है। किंतु महाराष्ट्र में यह शांति विधानसभा में दिखाई नहीं दी।
गवर्नर सी. विद्यासागर रॉव के साथ कांग्रेस के 5 विधायकों ने धक्का-मुक्की की जिसके चलते उन्हें निलंबित कर दिया गया। सदन में भी राज्यपाल वापस जाओ के नारे लगाए गए। कांग्रेस विधायक अब्दुल सत्तार और भाजपा विधायक गिरीश महाजन के बीच सदन में ही तीखी नोक-झोंक हो गई। उधर विदर्भ के पक्ष में भी नारे लगाए गए। प्रोटेम स्पीकर ने कहा कि यह महाराष्ट्र की विधानसभा है और इसमें क्षेत्रीय नारे लगाने वालों को सस्पेंड कर दिया जाएगा। बाद में हरि भाऊ बागड़े स्पीकर चुने गए और उसके बाद सदन में जिस तरह का हल्ला देखा गया, वैसा हल्ला लंबे समय से नहीं देखा गया। अभी फिलहाल हालात यह हैं कि शिवसेना विपक्ष में है। एनसीपी डावांडोल है और कांग्रेस अपनी भूमिका की तलाश में है। कांगे्रस को उम्मीद है कि भाजपा-शिवसेना फूट का लाभ निकाय चुनाव में मिलेगा। भीतर ही भीतर भाजपा और शिवसेना साथ आने की कोशिश कर रही हैं लेकिन मंत्रियों की संख्या और पोर्टफोलियो को लेकर दोनों के बीच गतिरोध बना हुआ है।
शिवसेना ने अपने आक्रामक तेवर बनाए रखे हैं, ताकि भाजपा दबाव में रहे। उद्धव ठाकरे ने तो यहां तक कह दिया कि यदि वोटिंग होती है तो भाजपा की सरकार का हश्र भी 13 दिन की वाजपेयी सरकार की तरह होगा। लेकिन फिलहाल तो 6 माह भाजपा सरकार सुरक्षित है और शिवसेना से गठबंधन होने की स्थिति में भाजपा को अधिक लाभ मिलेगा। लेकिन गठबंधन नहीं हुआ तो कोई बड़ा नुकसान नहीं होगा, क्योंकि कोई भी दल चुनाव में जाने के मूड में नहीं है।
तलाक पर अंतिम मुहर?
दरअसल शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी की दोस्ती के ताबूत में अंतिम कील तो तब ही ठुक गई थी, जब शिवसेना ने महाराष्ट्र में विपक्ष में बैठने का फैसला कर लिया था और उधर सुअवसर देख शरद पवार ने भाजपा को समर्थन देने के अपने निर्णय को अटल घोषित कर दिया था। ये दोनों घटनाक्रम एक ही दिन में बहुत तेजी से घटे। सुरेश प्रभु ने जिस तरह शिवसेना से किनारा कर लिया था, उसके बाद मित्रता की संभावना खत्म हो गई थी।
उद्धव ठाकरे ने केंद्रीय मंत्रीमंडल में शामिल होने जा रहे अपने मंत्री पद के प्रत्याशी को एयरपोर्ट से ही वापस बुला लिया था, भाजपा को 48 घंटे का अल्टीमेटम दे दिया था और उधर सरकार बनाने की कोशिश करते हुए एनसीपी से बातचीत भी शुरू कर दी थी। इस घटनाक्रम ने भाजपा के दिल्ली स्थित नेताओं को सचेत कर दिया था। शिवसेना भाजपा को रोकने के लिए इतने नीचे गिर सकती है यह कल्पना भाजपा ने नहीं की थी। एक तरह से शिवसेना का यह कदम अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के समान ही था, क्योंकि इससे भाजपा को खुला मैदान मिल गया और सुरेश प्रभु के भाजपा से जुडऩे के कारण शिवसेना को उसी के दांव से भाजपा ने पटकनी दे दी। यहां तक की खबर यह भी आने लगी कि शिवसेना के 20-22 विधायक भाजपा के संपर्क में हैं। अब शिवसेना चारों खाने चित है और उद्धव ठाकरे के पास भाजपा के साथ गठबंधन करने अथवा विपक्ष में बैठने के अलावा कोई चारा नहीं है। उधर एनसीपी ने मतदान का बहिष्कार करके फिलहाल बिना शर्त समर्थन दिया है, इसका पुरस्कार एनसीपी नेताओं के खिलाफ चल रहे मामलों को शिथिल करके दिया जा सकता है। लेकिन भाजपा बहुमत से मात्र 10 विधायक दूर है और कांग्रेस में असंतोष के चलते विघटन की संभावना प्रबल होती जा रही है।
कांग्रेस की राज्य इकाई यदि अपने नेताओं को संभालने में असफल रही, तो भाजपा अंतत: मजबूत ही होगी। लेेकिन इसके लिए भाजपा को जोड़-तोड़ की राजनीति करनी पड़ेगी, जिससे राज्य के नेता सहमत नहीं हैं। वे कांग्रेस के दलबदलुओं को मंत्रीपद देने से बेहतर शिवसेना से सम्मानजनक समझौता करना समझते हैं। उनका मानना है कि शिवसेना को 5-6 मंत्रीपद देकर मना लिया जाए। पर शिवसेना की जिद बरकरार है। सुनने में आया है कि वह उप-मुख्यमंत्री पद सहित 8-10 महत्वपूर्ण विभाग भी चाहती है, जो देना भाजपा के लिए संभव नहीं है। संभवत: इसी जिद के चलते शिवसेना ने एनसीपी से भी बातचीत की थी।
हालांकि पवार कह रहे हैं कि इस बातचीत में किसी प्रकार का प्रस्ताव नहीं रखा गया था। दरअसल शिवसेना भाजपा पर दबाव बनाना चाह रही थी। किंतु 288 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा 135 सदस्यों का समर्थन पहले ही हासिल कर चुकी है, ऐसी स्थिति में भाजपा को सत्ता से अलग रखने के लिए शिवसेना, राकांपा और कांगे्रस एक मंच पर आते हैं तो यह तीनों दलों के लिए आत्मघाती ही होगा। जहां तक एनसीपी के बाहरी समर्थन का सवाल है, यह कदम भी भाजपा को कुछ डैमेज कर सकता है, लेकिन भाजपा विश्वासमत के बाद मिले 6 माह के समय का सदुपयोग सत्ता को मजबूत करने में करेगी और यदि इस दौरान शिवसेना विपक्ष में रही तो शिवसेना को मनाने के लिए भी भाजपा प्रयास कर सकती है। 6 माह के भीतर कई राज्यों के चुनावी परिणाम भी आएंगे और भाजपा के रुतबे तथा आत्मविश्वास में इन परिणामों से परिवर्तन अवश्यमेव आएगा। यदि भाजपा जीतती है तो इसका प्रभाव उन राज्यों में पड़ेगा जहां भाजपा की सत्ता है। लेकिन महाराष्ट्र में भाजपा के परफारमेंस के ऊपर मित्रों की संख्या और शिवसेना का रुख तय होगा। शरद पवार लगातार भाजपा की निकटता पाने की कोशिश कर रहे हैं। अजीत पवार भी भाजपा को लेकर नरम दिल बन चुके हैं। उधर बीजेपी ने सरकार में आते ही वित्त विभाग का श्वेत पत्र जारी करने का संकेत दिया है जिससे अजीत पवार की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
महाराष्ट्र 3 लाख करोड़ रुपए के कर्ज में डूबा है, ऐसी स्थिति में सरकार ने यदि पिछली सरकार के कच्चे-चि_े खोले तो कई नेता निशाने पर आ जाएंगे। उधर शिवसेना ने विपक्ष की भूमिका पहले से ही निभाना प्रारंभ कर दी थी। मुंबई के लिए अपर मुख्य सचिव रैंक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी की नियुक्ति का फैसला शिवसेना को रास नहीं आया और सांसद राहुल शेवाले ने इसे मुंबई को महाराष्ट्र से तोडऩे की साजिश घोषित की, इसके बाद राजनीतिक बवाल मच गया।