11-Nov-2014 02:48 PM
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महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में संशोधन की पहल ने भाजपा शासित राज्य के मुख्यमंत्रियों को मायूस कर दिया है। यह मायूसी इसलिए है कि वे अब यह बहाना नहीं बना सकते कि केंद्र में उनकी सरकार नहीं है और भेदभाव हो रहा है। जहां तक कांग्रेस शासित प्रदेश के मुख्यमंत्रियों का प्रश्न है, उन्होंने तो जून से ही चिल्लाना शुरू कर दिया था कि उनके साथ भेदभाव हो रहा है और अब सरकार द्वारा महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना- नरेगा या मनरेगा में संशोधन की पहल इन मुख्यमंत्रियों को ज्यादा मुखर करेगी। पर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की खामोशी बढ़ेगी, क्योंकि उनमें से कुछ नरेगा की उपलब्धियों का बखान करते हुए पुन:-पुन: सत्तासीन हुए हैं और बावजूद इस सत्य के कि नरेगा में 40 प्रतिशत तक भ्रष्टाचार है, इस योजना ने ग्रामीण जीवन स्तर को बेहतर बनाने में व्यापक योगदान दिया है, कुछ हद तक गरीबों का भाग्य भी बदला है।
इसी कारण योजना भले ही कांग्रेस सरकार ने बनाई लेकिन इसके खत्म होने या इसमें आमूलचूल परिवर्तन की आशंका ने भाजपा शासित मुख्यमंत्रियों को थरथराने पर विवश कर दिया है। छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सस्ता चावल सहित तमाम घोषणाएं केंद्र की योजनाओं के भरोसे ही करते आए थे। यही हाल मध्यप्रदेश का है। इसलिए इन राज्यों में बड़ी उत्सुकता से होने वाले संशोधनों की प्रतीक्षा की जा रही है और 28 अर्थशास्त्रियों ने भी सरकार को चेतावनी दी है कि इसमें कोई भी संशोधन श्रमिकों के विरोध में ही जाएगा। जहां तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रश्न है, उनके राडार पर योजना आयोग और नरेगा पहले से ही था। योजना आयोग को समाप्त करने की घोषणा करके उन्होंने राज्यों को राहत देने की कोशिश की, लेकिन नरेगा को समाप्त करने या उसका दायरा समेटने की कोशिश खतरनाक हो सकती है।
केंद्र सरकार चाह रही है कि इस योजना को उन 200 जिलों तक सीमित कर दिया जाए जो अत्यंत पिछड़े हैं। जाहिर है इसमें उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे राज्यों को व्यापक लाभ मिलेगा, जहां आने वाले समय में एक-दो वर्ष के भीतर चुनाव होने वाले हैं। लेकिन बाकी प्रदेशों में भाजपा के मुख्यमंत्री जनता को क्या मुंह दिखाएंगे? सरकार की योजना नरेगा एक्ट में संशोधन कर एक्ट में वर्णित मजदूरी और सामान के मौजूदा अनुपात को बदलने (60:40 से घटाकर 51:49) की है। सरकार ने राज्यों से यह भी कहा है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष के शेष महीनों में वे नरेगा पर अपना खर्च सीमित करें।
इस साल आम बजट से पहले राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने केंद्र सरकार को चि_ी लिखकर कहा था कि नरेगा कानून को बदला जाए ताकि नरेगा रोजगार गारंटी की अधिकार आधारित योजना न रहे, वह राहत पहुंचाने की सरकार की कोई सामान्य योजना बन जाए। सामान्य योजना बनते ही योजना पर होने वाले खर्च और योजना के आकार को सीमित करना सरकार के अख्तियार में आ जाता है। वसुंधरा राजे की इसी समझ का एक रूप बीते जुलाई माह में देखने में आया। जुलाई में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने संसद को सूचित किया था कि नरेगा कानून में बदलाव अपेक्षित है। नरेगा कानून में संशोधन की कोशिशें भी चालू हो चुकी थीं। इस कोशिश को झटका सुप्रीम कोर्ट के आदेश से लगा। जुलाई महीने में ही सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया कि नरेगा के अंतर्गत काम करने वाले व्यक्ति को न्यूनतम मजदूरी राज्यों द्वारा तय की गई दर से दी जाए ना कि केंद्र सरकार द्वारा तय की गई दर से। फिलहाल नरेगा के तहत कामगार को मजदूरी राज्यों द्वारा तय दर से मिलती है। अलग-अलग राज्यों में यह दर अलग-अलग है, कहीं भी यह सीमा डेढ़ सौ रुपये से कम नहीं है। केंद्र सरकार चाहती थी कि मनरेगा के तहत लोगों को 119 रुपए की मजदूरी दी जाए। सुप्रीम कोर्ट का फैसला सरकार की मंशा के आड़े आया तो अब कोशिश यह है कि नरेगा कानून को ही बदल दिया जाए।
घटता बजट : तथ्य संकेत करते हैं कि मनरेगा के मद में किया जाने वाला बजट-आवंटन कम हो रहा है। वित्त वर्ष 2014-15 के लिए नरेगा के मद में बजट आवंटन महज 34,000 करोड़ रुपए का था, जो राज्यों द्वारा इस मद में मांगी गई राशि से 45 प्रतिशत कम है। साल 2009-10 में देश के जीडीपी में मनरेगा के मद में हुए आवंटन का हिस्सा 0.87 प्रतिशत था, जो साल 2013-14 में घटकर 0.59 प्रतिशत हो गया। मनरेगा के अंतर्गत खर्च की गई राशि का सालाना औसत 38 हजार करोड़ रुपए का रहा है, जबकि सालाना आवंटन औसतन 33 हजार करोड़ रुपए का हुआ है। आवंटित राशि की कमी के दबाव में मनरेगा का क्रियान्वयन लगातार बाधित होता रहा है और बजट-आवंटन में हो रही कमी को ध्यान में रखें तो यह बात बिल्कुल समझ में आती है कि सौ दिन की जगह क्यों अभी तक नरेगा में गरीब ग्रामीण परिवारों को सालाना औसतन 50 दिन का भी रोजगार नहीं दिया जा सका। नरेगा के अंतर्गत साल 2013-14 में कुल 10 करोड़ लोगों ने रोजगार हासिल किया। अगर मजदूरी और सामान पर खर्च की जाने वाली राशि का अनुपात बदला जाता है तो नरेगा के अंतर्गत रोजगार-सृजन की मौजूदा दर को कायम रखने के लिए अतिरिक्त 20 हजार करोड़ रुपए की जरूरत पड़ेगी। चूंकि सरकार मनरेगा का बजट आवंटन बढ़ाने की जगह घटा रही है, इसलिए विशेषज्ञों को आशंका है कि नरेगा के रोजगार सृजन की क्षमता में 40 प्रतिशत की कमी आएगी।
क्या होगा विकल्प?
एक सवाल यह भी है कि नरेगा का विकल्प क्या होगा? ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार बढ़ाना एक बड़ी चुनौती है। भारतीय कृषि धीरे-धीरे मशीनीकृत होती जा रही है। कृषि का कार्य भी कुछ ऐसा है कि वर्ष भर रोजगार देने में हमारी कृषि सक्षम नहीं है। जब फसल आती है या बुआई होती है, उस समय अधिकतम 180 दिन के लिए खेतिहर मजदूरों को काम मिल पाता है। उस दौरान सभी को काम नहीं मिलता। इसी कारण नरेगा, मनरेगा जैसी योजनाएं अमल में लाई गई हैं। सरकार श्रम कानूनों में बदलाव कर रही है, लेकिन गांव के लिए एक ठोस योजना बनानी ही होगी। यदि मनरेगा को समाप्त किया जाता है तो शहरों पर दबाव बढऩे लगेगा। गांव में जब तक रोजगार नहीं होगा सरकार की आर्थिक योजनाएं असफल ही समझी जाएंगी। लगता है केंद्र अपने हिस्से का खर्च कम करने के लिए इस योजना को समेटना चाहता है।