नसबंदी का टारगेट बना जानलेवा
20-Nov-2014 06:07 AM 1234867

छत्तीसगढ़ में नसबंदी का टारगेट पूरा करने के लिए डॉक्टरों ने इतनी जल्दबाजी दिखाई कि 15 महिलाओं ने दम तोड़ दिया और 32 गंभीर रूप से बीमार हो गईं। 8 नवंबर का दिन छत्तीसगढ़ के परिवार नियोजन के इतिहास में काला दिन ही कहा जाएगा।

नसबंदी का टारगेट पूरा करने के लिए बिलासपुर से करीब 10 किलोमीटर दूर कानन पेंडारी के नेमीचंद अस्पताल में शिविर लगाया गया था और महिलाओं को इस शिविर में भाग लेने के लिए आस-पास के गांवों से लाया गया। जिला अस्पताल के डॉ. आर.के. गुप्ता, डॉ. के.के. ध्रुव, डॉ. निखटा ने दूरबीन पद्धति से ऑपरेशन करके सभी महिलाओं को छुट्टी दे दी। जल्दबाजी मेेंं किए गए इन ऑपरेशनों में न ता जांच-पड़ताल ठीक से हुई और न ही ऑपरेशन ठीक से किए गए। ऑपरेशन के 12-13 घंटे बाद महिलाओं की हालत बिगडऩे लगी। उन्हें उल्टियां होने लगीं। 11 नवंबर तक 13 महिलाओं ने दम तोड़ दिया। 32 को गंभीर रूप से देखभाल में रखा गया था। कुल मिलाकर 56 महिला

एं भर्ती हुईं। सरकार ने हमेशा की तरह मृतकों के परिजनों को 2-2 लाख रुपए और गंभीर रूप से बीमार महिलाओं के परिजनों को 50-50 हजार रुपए की सहायता राशि देने की घोषणा की है। उधर विपक्ष मुखर हो उठा है, अजीत जोगी ने 5-5 लाख रुपए मुआवजा देने की मांग करते हुए मुख्यमंत्री से लेकर स्वास्थ्य मंत्री तक सभी से इस्तीफा मांग लिया। लेकिन असली समस्या वहीं की वहीं है।
छत्तीसगढ़ में मोतियाबिंद से लेकर नसबंदी तक जो भी शिविर लगते हैं, वहां लापरवाही होना तय है, गरीबों की जान की कीमत इस देश में शून्य ही समझी जाती है। डॉक्टरों को मालूम है कि वे लापरवाही करेंगे तो भी सरकार बचा ही लेगी, क्योंकि सरकार के पास डॉक्टरों की कमी है। जो ऑपरेशन निजी अस्पतालों में बड़ी सहूलियत और बिना किसी खतरे के सम्पन्न हो जाते हैं, उन्हीं ऑपरेशनों के लिए सरकारी अस्पतालों में जाना मौत का सबब हो सकता है। डॉक्टर से लेकर नर्स तक और चिकित्सकीय स्टॉफ तक सभी गरीबों को इंसान समझने के लिए तैयार ही नहीं हैं। वे घटिया तरीके से इलाज करते हैं। लापरवाही बरतते हैं। स्वच्छता का बिल्कुल ध्यान नहीं रखते और मरीजों की जांच-पड़ताल को लेकर भी पर्याप्त लापरवाही की जाती है। विडम्बना यह है कि सरकारी अस्पतालों में कार्यरत ये डॉक्टर ही जब निजी अस्पतालों में अपना जोहर दिखाते हंैं तो उनसे कोई चूक नहीं होती। सरकारी अस्पताल में आते ही इनकी लापरवाहियां चरम सीमा पर पहुंच जाती हैं। छत्तीसगढ़ में यह लापरवाही तो स्वास्थ्य मंत्री के गृह जिले में ही हुई।  स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही पहले भी उजागर हो चुकी है। प्रदेश में आंख फोड़वा कांड एवं गर्भाशय कांड पहले भी घटित हो चुके हैं।

सरकार नहीं चेती

पहले भी ऐसे कई मामले हो चुके हैं किन्तु स्वास्थ्य मंत्री सहित स्वास्थ्य संचालक व सचिव का रवैया सकारात्मक नहीं रहा है। आलम यह है कि संयुक्त संचालक अमर सिंह ठाकुर और सीएमओ भी लापवाही बरतने में कोई कसर नहीं छोड़ते। डॉक्टरों के गैरजिम्मेदाराना कृत्यों की वजह से पहले भी लोगों को नुकसान होता रहा है। वर्ष 2011 में बालोद के शिविर में मोतियाबिंद के ऑपरेशन के बाद 48 लोगों की आंखें खराब हो गई थी। 2012 में दुर्ग में 12 और कवर्धा में 4 लोगों की आंखों की रोशनी चली गई थी। वहीं 2013 में बागबाहरा में छह लोगों की आंखें खराब हो गईं। गर्भाशय कांड में भी हजारों महिलाओं का ऑपरेशन बिना किसी बीमारी के कर दिया गया था।

सिप्रोसिन-500 का रिएक्शन

ऑपरेशन करने के बाद सभी महिलाओं को सिप्रोसिन-500 दवा दी गई थी। इस दवा को लेने के बाद इन महिलाओं को उलटी होने लगी और बीपी लो होने की शिकायत आई। यह दवा एक सप्ताह पहले जिला अस्पताल से आई थी। यह दवा कानन पेंडारी के शिविर में भी आई थी, लेकिन पेंड्रा के नसबंदी शिविर में यह दवा नहीं दी गई थी, इसलिए वहां महिलाएं बीमार नहीं हुई। शासन ने दवाइयां खरीदने, स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंचाने मेडिकल सर्विसेज कॉरपोरेशन (सीजीएमएससी) को जिम्मेदारी दी है, लेकिन जिले के स्वास्थ्य विभाग ने अलग व्यवस्था बना ली है। सालभर से कविता फार्मास्यूटिकल लैबोरेटरी से दवाइयां खरीदी जा रही हैं, जो लघु उद्योग की तरह संचालित हैं। महीनेभर में यहां से पांच लाख रुपए की दवाइयां केंद्रों में भेजी गईं। नसबंदी शिविरों में दी गई दवाइयां भी इसी लेबोरेटरी की हैं। जिस कंपनी ने ये दवाइयां बनाई हैं, उसे राज्य शासन ने प्रतिबंधित कर दिया। महकमे के अफसर सरकारी बजट के मार्फत कविता फार्मा से दवाइयां खरीदकर सरकारी शिविरों के अलावा ब्लॉकों की पीएचसी-सीएचसी में भिजवा रहे हैं। गंभीर यह है कि जिन शिविरों में ऑपरेशन के बाद महिलाओं की मौत या हालत गंभीर होने का मामला सामने आया है, वहां इसी फर्म की एंटीबायोटिक दवा सिप्रोफ्लोक्सिनÓ दी गई है। इसके अलावा इंजेक्शन, एंटीबायोटिक टेबलेट और अन्य दवाइयां भी शामिल हैं। सिप्रोफ्लोक्सिनÓ की निर्माता कंपनी मेसर्स महावर फार्मा प्राइवेट लिमिटेड खम्हारडीह रायपुर है। इधर, नसबंदी कांड में सस्पेंड सीएमएचओ डॉ. आरके भांगे का कहना है कि उन्हें विभाग के ही अफसरों ने इस फर्म से दवाइयां खरीदने की सलाह दी थी।

खत्म हो रही बैगा जनजाति की 2 महिलाओं की भी कर दी नसबंदी

बिलासपुर के ही गौरेला में लगाए गए एक अन्य शिविर में जिन महिलाओं की नसबंदी की गईं उनमें 2 बैगा महिलाएं भी शामिल हैं। बैगा जनजाति को सरकार ने विलुप्त हो रहीं जनजातियों की श्रेणी में रखा है और इनकी नसबंदी करना मना है। गौरेला विकासखंड में 10 नवंबर को नसबंदी का शिविर लगाया गया था। इस शिविर में 26 महिलाओं के ऑपरेशन किए गए थे। यह ऑपरेशन जिला अस्पताल से आए डॉ. केके साव ने किए थे। नसबंदी शिविर में तय लक्ष्य को हासिल (टारगेट अचीव) करने का इतना ज्यादा दबाव था कि यहां धनौली गांव की दो बैगा महिलाओं मंगली बाई (22 साल) और चैती बाई (34 साल) का ऑपरेशन कर दिया गया। बताया जा रहा है कि इन बैगा महिलाओं को बहला-फुसलाकर लाया गया था। स्वास्थ्य विभाग से जुड़ी महिला कार्यकर्ता (जिन्हें छत्तीसगढ़ में मितानिन कहा जाता है) ने बैगा महिलाओं से कहा कि तुम लोग कमजोरी होती जा रही हो, ऑपरेशन के बाद तुम्हारी हालत ठीक हो जाएगी। यह कहकर उन्हें सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र लाया गया और एक पेपर पर अंगूठा लगवाकर ऑपरेशन कर दिया गया। ऑपरेशन करवाने के बाद गंभीर हुई धनौली की बैगा महिला चैतीबाई ने बिलासपुर पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दिया। जिला अस्पताल में जांच की औपचारिकता के बाद डॉक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया। पुलिस को सूचना भेजकर शव तत्काल पोस्टमॉर्टम के लिए मरच्युरी भेज दिया गया। दोपहर 3.15 बजे शव का पंचनामा, पोस्टमॉर्टम और तमाम प्रशासनिक औपचारिकताएं पूरी कर 5.15 बजे शव वाहन से वापस गांव रवाना कर दिया गया। बैगा समुदाय को आदिम जनजाति की श्रेणी में रखा गया है। इनकी तादाद बहुत कम है। केंद्र और राज्य सरकारों ने बैगा समेत कमार, अबुझमडिय़ा और बिरहोर जाति को संरक्षित घोषित किया है। केंद्र ने वर्ष 1998 से इन जनजातियों की नसबंदी पर प्रतिबंध लगा रखा है। इनकी संख्या बढ़ाने की लगातार कोशिश हो रही है। बैगाओं की बात करें तो वर्ष 2001 की जनसंख्या के अनुसार छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में इनकी आबादी 7,85,320 है। उधर पूरे देश में 27,68,922 बैगा ही बचे हैं।

डॉ. गुप्ता गिरफ्तार

छत्तीसगढ़ में आनंद फानन में 83 महिलाओं का ऑपरेशन करने वाले डॉ आरके गुप्ता को पूछताछ के बाद गिरफ्तार कर लिया गया। बिलासपुर के जिस नेमीचंद जैन अस्पताल में यह ऑपरेशन किए गए वो इस वर्ष अप्रैल से बंद पड़ा था। डॉ गुप्ता को इसी वर्ष गणतंत्र दिवस के मौके पर अपने कॅरियर में 1 लाख से अधिक सर्जरी करने पर पुरस्कृत किया गया था, लेकिन बिलासपुर में उनके माथे पर कलंक लग गया। कहा जाता है कि इसमें डॉ की गलती नहीं है बल्कि जिस दवा का डोज दिया गया था वह दवा ही नकली थी, लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि जिस अस्पताल में पिछले आठ माह से किसी मरीज का इलाज नहीं किया गया और जहां सर्जरी के लिए आवश्यक बुनियादी संरचना नदारद है वहां डॉ ने आपरेट करने की सहमति कैसे प्रदान कर दी। इस परित्यक्त अस्पताल के फर्नीचर को देखकर समझा जा सकता है कि यहां किन हालातों में जमीन पर लेटाकर जानवरों की तरह महिलाओं की सर्जरी की गई होगी।

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