धर्म-आतंक के बीच रिश्ता न जोड़े
19-Nov-2014 06:36 AM 1234811

आसियान में बोले मोदी

म्यामांर में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया से अनुरोध किया कि वे धर्म और आतंक के बीच किसी भी प्रकार के रिश्ते को ठुकरा दें। मोदी का म्यांमार में दिया गया यह भाषण आतंकवाद पर भारत के स्पष्ट नजरिए का प्रतीक माना जा रहा है।

भारत चाहता है कि सारी दुनिया मिलकर आतंकवाद के खिलाफ स्पष्ट और निर्णायक लड़ाई लड़े। यह तभी संभव है जब धर्म और आतंकवाद को मिलाकर देखना बंद किया जाएगा। ईस्ट एशिया समिट में मोदी का यह आव्हान उन 18 ताकतवर देशों के समक्ष आतंकवाद के मुद्दे को प्रमुखता से रखने की पहल भी है जो इस संगठन की रीढ मानी जाती है। इसमें मुख्य रूप से अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा और चीन के प्रधानमंत्री ली कीक्वियोंग शामिल थे।

ओबामा मोदी को मैन ऑफ एक्शन कहकर पहले ही प्रशंसा से नवाज चुके थे और मोदी ने आत्मविश्वास में म्यांमार की राजधानी में इस समिट के दौरान अपनी बात रखी। मोदी ने कहा कि वे इस्लामिक स्टेट नामक आतंकी समूह पर ईस्ट एशिया के घोषणपत्र का समर्थन करते है लेकिन साथ ही आतंकवाद पर सभी देशों के मिले जुले प्रयास को भी बढ़ावा देने का आव्हान करते हैं। उन्होंने चेतावनी दी कि अलगाव, अतिवाद और आतंकवाद की चुनौतियां बढ़ रही हंै। ड्रग, हथियारों की तस्करी तथा मनी लॉड्रिंग के बीच गहरा संबंध है। मोदी की इस चेतावनी को आसियान में धैर्य और ध्यान से सुना गया। हालांकि यह भी सच था कि आसियान के दौरान भारत ओर चीन के बीच दक्षिण चीन समुद्र में बढ़ रहे तनाव की छाया देखी गई, किंतु जानकारों का यह मानना था कि आसियान ने परस्पर विरोधी देशों को एक मंच पर आते हुए सुरक्षित और सकारात्मक वातावरण बनाने का अवसर उपलब्ध कराया।

म्यांमार में आयोजित इस समिट का अपना महत्व है आधी शताब्दी तक चले तानाशाही के शासन से उभरता म्यांमार लोकतंत्र की दिशा में तेजी से कदम बढ़ा रहा है, लेकिन म्यांमार की लोकतंत्र की लड़ाई की प्रमुख नेत्री आंग सान सू की नए कानूनों के कारण राष्ट्रपति का चुनाव नहीं लड़ सकी प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद आंग सान सू की ने इस चिंता से भी प्रधानमंत्री को अवगत कराया। संभवत: वह अपेक्षा रख रही थी कि भारत इस दिशा में दवाब बनाएगा एवं प्रयास करेगा लेकिन भारत म्यांमार के साथ दवाब की रणनीति पर कार्य नहीं कर रहा है बल्कि उसका प्रयास है कि वह और म्यांमार मिलकर क्षेत्र में बढ़ रहे चीन के प्रभाव को कम करें। पिछले एक दशक में म्यांमार का चीन के प्रति झुकाव कुछ ज्यादा ही हो चुका है। जो कि भारत के लिए चिंता का विषय है। नरेंद्र मोदी की रणनीति है कि म्यांमार में सत्तासीन सरकारों के साथ शांति और मैत्रीपूर्ण रिश्ते बने रहे ताकि चीन की घेराबंदी को माकूल जवाब दिया जा सके।

आसियान और पूर्वी एशिया शिखर बैठकों में भाग लेने के बाद मोदी ने इन बैठकों को सकारात्मक बताया है। जब वे दिल्ली से म्यांमार, ऑस्टे्रलिया और फिजी की दस दिवसीय यात्रा कर रहे थे तब भी उन्होंने कहा था कि आसियान हमारी ईस्ट नीति की धुरी है। वह एशियाई सदी के हमारे सपने का केंद्र है और सहयोग तथा एकीकरण इसकी विशेषताएं हैं।  दुनिया के किसी भी क्षेत्र में न तो इतनी गतिशीलता है और न ही उसके सामने इतनी चुनौतियां हैं जितनी हिंद महासागर, एशिया महाद्वीप और प्रशांत महासागर क्षेत्र के सामने हैं। पूर्वी एशिया शिखर बैठक में क्षेत्र और विश्व के भविष्य को आकार देने की क्षमता है।

ऑस्ट्रेलिया के ब्रिस्बेन शहर में मोदी 15 नवंबर को विश्व की सबसे विकसित और मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देशों के समूह-20 की वार्षिक शिखर बैठक में हिस्सा लेंगे। इसके बाद वे कैनबरा में ऑस्ट्रेलिया के अपने समकक्ष टोनी एबट से अलग से द्विपक्षीय वार्ता करेंगे।

16 से 18 नवंबर तक मोदी सिडनी, कैनबरा और मेलबर्न जैसे मशहूर ऑस्ट्रेलियाई शहरों का दौरा करेंगे। मोदी एबोट से वार्ता करने के अलावा केनबरा में ऑस्ट्रेलिया की संघीय संसद को संबोधित करेंगे।  एबोट ने मोदी के सम्मान में दुनिया के मशहूर और 161 साल पुराने मेलबर्न क्रिकेट ग्राउंड में स्वागत समारोह रखा है। मोदी सिडनी के ओलंपिक पार्क में आयोजित एक स्वागत समारोह में भारतीय समुदाय से मुखातिब होंगे। फिर  19 नवंबर को एक दिन की फिजी यात्रा पर जाएंगे। किसी भारतीय प्रधानमंत्री की फिजी यात्रा 33 साल बाद होगी। इससे पहले 1981 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी वहां गईं थीं। मोदी 1986 के बाद ऑस्ट्रेलिया जाने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री होंगे। इससे पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी वहां गए थे।

नरेंद्र मोदी ऑस्ट्रेलिया दौरे में 18 नवंबर को मेलबर्न में बड़ी कंपनीज के सीईओ और मैनेजिंग डायरेक्टर को देंगे। बताया जा रहा है कि करीब 500 सीईओ इसमें शामिल होंगे। पूर्व पीएम राजीव गांधी के बाद कोई भी भारतीय प्रधानमंत्री ऑस्ट्रेलिया नहीं गया था। 18 नवंबर को मेलबर्न में मोदी के लेक्चर में शामिल होने वालों में प्रेट इंडस्ट्री और ग्लोबल चेयरमैन ऑफ वीसी इंडस्ट्री के चेयरमैन एंथनी जोसेफ प्रेट, बीएचपी बिलिंटन लिमिटेड के एंड्रयू मैकेंजी, फिल एडमंड्स के मैनेजिंग डायरेक्टर रियो टिंटो और एचएसबीसी ऑपरेशन इन ऑस्ट्रेलिया के सीईओ टॉनी क्रिप्स होंगे। इसके अलावा भारत से गौतम अड़ानी, महिंद्रा ग्रुप के आनंद महिद्रा, इंफोसिस के विशाल सिक्का मौजूद रहेंगे।

गर्वनर ऑफ विक्टोरिया इस इवेंट का मेजबान होगा। ऑस्ट्रेलिया इंडिया बिजनेस काउंसिल (एआईबीसी) इसका इवेंट आयोजक है। एआईबीसी का निर्माण 1986 में राजीव गांधी और ऑस्ट्रेलियाई पीएम बॉब हैवॉक ने किया था। एआईबीसी के टीम चेयरमैन दिपेन रुघानी ने बताया कि वह मोदी का स्वागत करने के लिए उत्सुक हैं।

फिजी में प्रधानमंत्री की एकदिवसीय यात्रा का महत्व इसलिए है क्योंकि फिजी के साथ भारत के संबंध उतने गर्मजोशी भरे नहीं रहे है। भारतीय मूल के महेंद्र चौधरी को जब वर्ष 2000 में प्रधानमंत्री पद से अपदस्थ कर दिया गया था। उस वक्त केंद्र में एनडीए की सरकार थी। महेंद्र चौधरी को भारत से सहयोग की उम्मीद थी लेकिन भारत ने तटस्थता का रूख अपनाया रखा। 1987 में भी इसी तरह भारतवंशियों के प्रभाववाली पहली सरकार को अपदस्थ कर दिया गया था। उस वक्त भी भारत से उम्मीद थी कि भारत कुछ ठोस कदम उठाएगा, लेकिन भारत अपनी समस्याओं से जूझ रहा था। श्रीलंका में तमिलों की समस्या के कारण भारत फिजी में उस समय भी ध्यान नहीं दे पाया। अब नरेंद्र मोदी की यात्रा से उम्मीद लगी है कि भारत फिजी में पहले की अपेक्षा ज्यादा रूचि दिखाते हुए वहां के राजनीति हालातों पर नजर रखेगा। फिजी जैसे देशों में भारतीय बड़ी तादाद में रहते है और भारत का कालाधन ऐसे देशों में खपाया जा सकता है इसलिए भारत का फिजी के निकट आना जरूरी है।

फिजी का इतिहास भारत के बगैर अधूरा है। वहां के प्राकृतिक संसाधनों विशेषकर लकड़ी के लिए पश्चिमी उपनिवेशवादी फिजी आए थे। बाद में यहां गन्ने की खेती में काम करने भारतीयों को लाया गया। पश्चिमी उपनिवेशवादियों के पीछे-पीछे उनके पिछलग्गू ईसाई मिशनरी भी फिजी पहुंच गए। उन्होंने वहां के भोले-भाले, प्रकृति उपासक वनवासियों को ईसाई बनाना आरम्भ कर दिया। 1970 में जब फिजी स्वतंत्र हुआ, तब सत्ता के बंटवारे की बात उठी। उस समय जो संविधान फिजी में लागू हुआ उसमें भारतवंशियों को काफी कम अधिकार दिए गए। भारतवंशियों ने उसे सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। किन्तु फिर भी ईसाई मिशनरियों ने, जो भारत के सांस्कृतिक प्रभाव से भयभीत रहे हैं, मूल फिजीवासियों को भारतवंशियों के विरुद्ध भड़काना बन्द नहीं किया। उसी का परिणाम हुआ कि भारतवंशियों के शान्ति और सद्भाव में विकश्वास रखने और मूल फिजीवासियों का किसी प्रकार का शोषण न करने के बाद भी पिछले 4 दशकों में सत्ता का थोड़ा-बहुत जो भी भाग उनके पास है, उससे उन्हें हथियाने के लिए दो बार सत्ताहरण किया गया है।

फिजी की सेना में अधिकतर सैनिक फिजी के मूल निवासी हैं। सौ वर्षों से भी अधिक समय तक फिजी के मूल निवासी तथा भारतीय मूल के लोग एक साथ सौहाद्र्र के साथ रह रहे थे। किन्तु फिजी आज एक उदाहरण बन गया है कि घृणा किस प्रकार सामुदायिक सम्बंधों में विषबेल बो देती है। बहुजातीय समाजों को अपने विभिन्न घटकों के भय और उनकी इच्छाओं के प्रति संवेदनशील होना पड़ता है। 1987 हुए सैन्य सत्ताहरण के विरोध में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत क्षोभ व्यक्त किया गया था। पड़ोसी देशों ने व्यापारिक प्रतिबन्ध लगा दिए थे। पर्यटन से होने वाली आय भी बहुत घट गई थी। व्यापार में हुए पतन से पूंजी का पलायन भी आरम्भ हो गया था। सत्ताहरण के बाद का समय भारतीय मूल के लोगों के लिए बहुत कठिनाई का समय था। उनमें से बहुत से लोग आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड चले गए। इससे उनकी संख्या घटकर 44 प्रतिशत रह गई। इस समय फिजी की कुल 8,000,00 की जनसंख्या में 51 प्रतिशत मूल निवासी हैं। सन् 1990 में बना नया संविधान भारतीय मूल के लोगों के साथ भेदभाव बरतता था। उसने संसद में उनके प्रतिनिधियों की संख्या भी कम कर दी थी। वर्ष 1994 तक आर्थिक कुप्रबन्धन और राजनीतिक षड्यंत्रों के चलते राबूका का जनसमर्थन घट गया था। राबूका को अपनी पार्टी की राजनीति और प्रधानमंत्री पद-दोनों के लिए महेन्द्र चौधरी की नेशनल लेबर पार्टी का समर्थन मांगना पड़ा। उस समय तक यह स्पष्ट हो चुका था कि किसी भी दल को सत्ता में आने के लिए भारतीय मूल के लोगों का समर्थन हासिल करना ही पड़ेगा। बाद में 1997 में एक अन्य और अधिक समतामूलक संविधान का निर्माण किया गया। इस संविधान के अन्तर्गत जब 1999 में चुनाव हुए तब राबूका का दल चुनाव हार गया और भारतीय मूल के महेन्द्र चौधरी प्रधानमंत्री बने।

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