फडणवीस और खट्टर को कमान
11-Nov-2014 02:44 PM 1234796

हरियाणा और महाराष्ट्र की राजनीति में नए युग की शुरुआत हो गई है। दोनों ही राज्यों में पहली बार भाजपाई मुख्यमंत्रियों ने शपथ ली है। हरियाणा में संघ से आए भाजपा के योग्य और कर्मठ नेता मनोहर लाल खट्टर तथा महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस की ताजपोशी ने यह सिद्ध किया है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी सारे देश में एकला चालो रे की नीति पर अग्रसर है और जिस गति से भाजपा का विजय रथ बढ़ रहा है उसे देखते हुए लगता है कि आने वाले 3-4 वर्षों में भाजपा बिहार, उत्तरप्ररदेश जैसे राज्यों में भी एक बड़ी ताकत बनकर उभरेगी। भाजपा का यह स्वर्णिम दौर है और इसमें संघ का प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा है, जिसके सिद्धांतों पर चलकर ही भाजपा यहां तक पहुंचने में कामयाब रही है। हरियाणा और महाराष्ट्र में सारा चुनाव संघ की रणनीति के इर्द-गिर्द ही केंद्रित रहा। प्रत्याशी चयन से लेकर सरकार के गठन तक हर जगह संघ का व्यापक दखल था। इसी कारण सरकार के काम-काज में भी संघ की कार्यशैली की छांव देखने को मिल सकती है। नरेंद्र मोदी ने जिस तरह सरकारी खर्च कम करने के लिए कदम उठाए हैं और नेताओं, मंत्रियों को जनता का सच्चा लोक सेवक प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, वह संभवत: भाजपा को अन्य पार्टियों से थोड़ा अलग अवश्य करेगा लेकिन ऐसा तभी हो सकेगा जब भाजपा के सभी नेता इस रास्ते को दिल से आत्मसात करें।
बहरहाल हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा का प्रदर्शन किसी करिश्मे से कम नहीं है। हरियाणा में जिस तरह 4 सीटों के मुकाबले भाजपा 46 सीटों तक पहुंची, उसे एक बड़े परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है। नव नियुक्त मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने सत्तासीन होते ही सारे जमीनों के सौदों की जांच कराने की बात कही है। इसका असर गांधी परिवार के दामाद राबर्ट वाड्रा और डीएलएफ पर पड़ सकता है। डीएलएफ के केपी सिंह ने कभी बुढ़ापे में अपने जन्म दिन पर 100 करोड़ रुपए फूंक डाले थे, जिसमें से 20 करोड़ तो केवल शकीरा के ठुमकों पर खर्च किए गए थे। आज राजस्थान और हरियाणा के अलावा दिल्ली में भी भाजपा की सरकार है इसलिए डीएलएफ के शेयर में 30-40 प्रतिशत की गिरावट आ गई है, वहीं अडानी के शेयर आसमान छूने लगे हैं। यह दोनों स्थितियां कई आर्थिक बदलाव के भी संकेत दे रहे हैं। खट्टर हरियाणा में 1979 के बाद पहली बार गैर जाट मुख्यमंत्री बने हैं। वे पंजाबी हैं और उन्हें हरियाणा के सबसे प्रभावशाली जाट समुदाय को संतुलित रखना होगा। अपने मंत्रिमंडल में सभी समुदायों को प्रतिनिधित्व देकर खट्टर ने संतुलन बिठाने की कोशिश की है।  किंतु महाराष्ट्र में बहुमत से करीब 20-22 सीटें कम लाने वाली भाजपा को शिवसेना के रुख के कारण थोड़ी परेशानी हुई है। भाजपा से लगभग आधी सीटें पाने वाली शिवसेना अंतिम समय तक यह मानने को तैयार नहीं थी कि वह महाराष्ट्र में अब सबसे बड़ी पार्टी नहीं है। उसकी हैसियत भाजपा के मुकाबले आधी ही है लेकिन शिवसेना ने अपनी हैकड़ी बनाए रखी। उद्दव ठाकरे फडणवीस की ताजपोशी में अंतिम क्षणों में जाने को तैयार हुए। शिवसेना जैसी पार्टियां ब्लैकमेलिंग का खेल खेलती हैं, लेकिन वर्तमान में हालात थोड़े अलग हैं। इसलिए शिवसेना की ब्लैकमेलिंग को भाजपा ने तवज्जो नहीं दी। भाजपा चाहती है कि शिवसेना सरकार में बिना किसी शर्त के साथ आए और उसे जो मंत्रीपद दिए जाएं उन्हें चुपचाप स्वीकार ले। भविष्य की राजनीति को देखते हुए भी भाजपा शिवसेना को एक सीमा तक तवज्जो देने के मूड में है ताकि आने वाले समय में जो भी गठबंधन बने उसमें भाजपा का बोलबाला रहे। 
उधर दूसरे साथी भी भाजपा के साथ आने को लालायित हैं। चुनाव परिणामों के तुरंत बाद जैसे ही एनसीपी नेता प्रफुल्ल पटेल ने प्रेस के सामने सार्वजनिक रूप से यह कहा कि उनकी पार्टी महाराष्ट्र में सरकार बनाने जा रही भाजपा को बिना शर्त बाहरी समर्थन देने के  लिए तैयार है, शिवसेना में खलबली मच गई। राजनीति की बिसात पर अमित शाह और नरेंद्र मोदी की जोड़ी नंबर-1 ने शिवसेना को मात तो दे ही दी थी लेकिन अमित शाह इतनी गहरी चाल चल गए हैं, इसका आभास शिवसेना को नहीं था। राजनीतिक विश्लेषक एनसीपी के रुख में आए इस परिवर्तन की कैफियत शरद पवार के उन बयानों मेंं तलाशने की कोशिश कर रहे हैं, जो कभी पवार ने नरेंद्र मोदी की तारीफ में कहे थे। पिछले 24 वर्षों में पहली बार सैंकड़े के आंकड़े को महाराष्ट्र में पार करने वाली भाजपा के आत्मविश्वास में यह परिवर्तन आना सहज स्वाभाविक था। 123 सीटें भाजपा की चिर-संचित अभिलाषा के अनुरूप ही आई हैं, जो उसने बाल ठाकरे के दिवंगत होने के बाद संजोई थी। यह सच है कि महाराष्ट्र में दोनों दलों की संयुक्त ताकत कांग्रेस और एनसीपी को नेस्तेनाबूत कर देती, लेकिन इससे बीजेपी को वह फायदा नहीं मिलता जो अब मिल रहा है। शिवसेना से लगभग दोगुनी सीट लाकर भाजपा ने शिवसेना की हैकड़ी खत्म कर दी है। मानने वाले इसे राष्ट्रीय फलक पर एक नई राजनीति का सूत्रपात मान रहे हैं। कांग्रेसी खेमे में निराशा अवश्य है, किंतु कांग्रेस के लिए संतोष इस बात का है कि वह 15 वर्ष तक राज करने के बावजूद महाराष्ट्र में पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। उसकी पराजय में निश्चित रूप से उन घोटालों और भ्रष्टाचारों का योगदान है, जो उसकी सत्ता के दौरान हुए। लेकिन सत्ता विरोधी रुझान ने भी कांग्रेस को पर्याप्त नुकसान पहुंचाया। अब कांग्रेस के लिए नई शुरुआत का अवसर है, यदि वह गठबंधन से बाहर निकलकर अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करती है तो निश्चित रूप से ताकतवर बनके उभरेगी। अन्यथा बिहार और उत्तरप्रदेश की तरह महाराष्ट्र से भी यह कांगे्रस के खात्मे की शुरुआत हो सकती है। खासकर जिस तरह एनसीपी ने रंग बदला है, उस परिदृश्य में कांग्रेस के लिए मुश्किल हालात सामने हैं। इस पराजय के साथ ही कांगे्रस कर्नाटक छोड़कर प्राय: सभी बड़े राज्योंं से रुखसत हो चुकी है। उसकी यह रुखसतगी निश्चित रूप से और पीड़ादायी बन सकती है, क्योंकि कर्नाटक में भी लोकसभा में उसका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था। अब पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों को छोड़ कर कांग्रेस बाकी जगह खत्म हो रही है।
कांग्रेस के प्रवक्ता टीवी पर यह बार-बार दोहरा रहे थे कि महाराष्ट्र में मोदी मैजिक नहीं चला, लेकिन उनकी खुद की पार्टी का क्या बुरा हश्र हुआ है यह उनकी चिंता का विषय नहीं है। मोदी मैजिक तो निर्विवाद रूप से कायम है, वरना अंतिम समय में गठबंधन टूटने के बावजूद भाजपा को 123 सीटें कैसे मिल गईं। निश्चित रूप से मोदी और शाह की रणनीति काम आई। हालात यह थे कि भाजपा को 50 सीटों पर ऐेसे प्रत्याशी खड़े करने पड़े जो अन्य दलों से आए थे। भाजपा के पास बहुत सी सीटों पर तो काडर ही नहीं था। कुछ जिला इकाईयां अवश्य थीं। केंद्र में सत्तासीन होने के बाद इन इकाईयों में थोड़ी चहल-पहल दिखती थी। लेकिन 100 के करीब सीटें ऐसी थीं जहां भाजपा के पास संगठन के रूप में कुछ पदाधिकारी ही थे, जो बैठकर मक्खी मारा करते थे क्योंकि शिवसेना से गठबंधन के चलते उनके पास करने को कुछ नहीं था। विदर्भ में अवश्य भाजपा ने तेजी से जनाधार बढ़ाया था। उसका काडर भी सक्रिय था और कार्यालयों में भी गतिविधियां होती रहती थीं। विदर्भ में भाजपा का अच्छा जनाधार है। आरएसएस का भी यहां लम्बा-चौड़ा कारोबार है इसलिए विदर्भ ने आशा के अनुरूप परिणाम दिए। प्रथक विदर्भ की मांग का समर्थन भाजपा प्रारंभ से ही करती आई है इसलिए भाजपा को यहां फायदा मिलना तय था। लेकिन 123 सीटें आने की वजह से विदर्भ का मुद्दा ठंडा पड़ सकता है। शिवसेना प्रथक विदर्भ की मांग को बिल्कुल स्वीकार नहीं करेगी। बहुमत से 23 सीटें पीछे भाजपा इतनी बड़ी संख्या केे बावजूद खुलकर काम नहीं कर सकती। हालांकि आने वाले दिनों में भाजपा महाराष्ट्र में निरंतर मजबूत होती जाएगी क्योंकि शिवसेना की संकीर्ण राजनीति के दिन लद चुके हैं। जहां तक एमएनएस का प्रश्र है राज ठाकरे को नियंत्रित करने के लिए यही महफूज समय है। शिवसेना का उग्र रूप ठाकरे है। शिवसेना 63 सीटों के साथ राज्य में दूसरे नंबर की सबसे बड़ी पार्टी है, वह सरकार पर दबाव तो बनाए रखेगी लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि राज ठाकरे की गुण्डागर्दी पर अब लगाम लगेगी।

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