10-Nov-2014 02:43 PM
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100 दिन में कालाधन भारत आ जाएगा, विदेशों में 25 लाख करोड़ जमा हैं, रामदेव बाबा बैलगाड़ी पर रखकर कालाधन ले आएंगे, कालेधन से देश में विकास की गंगा बह जाएगी बगैरह-बगैरह। जितने मुंह उतनी बातें। लफ्जों की यह बेशर्म मर्दानगी आम चुनाव के दौरान बदस्तूर देखने को मिली। जनता भी इसी भरम में आ गई और ऐतबार कर बैठी। न तो भाजपा ने और न ही कांग्रेस ने यह चिंतन करने का प्रयास किया कि कालाधन कैसे लाया जा सकता है? उसके लिए क्या कार्य योजना हो सकती है? उससे भी बड़ा सवाल, कि विदेशों में खुले भारतीयों के सारे खातों में जमा पैसा वास्तव में कालाधन ही है या किसी की मेहनत की गाढ़ी कमाई है? क्या विदेशों में खाता खोलना अपराध है? चुनाव के दौरान कुछ इस तरह से प्रोजेक्ट किया गया मानो विदेश में जिनके भी खाते हैं वे सब कालाबाजारी हैं। जबकि सच तो यह है कि जिन 10 देशों के कई बैंकों में 55 हजार खाते हैं, उनमें से 1 प्रतिशत का धन भी भारत वापस आ जाए तो बहुत बड़ी बात होगी।
सबसे पहले तो सरकार को यह पता लगाना होगा कि जो धन विदेशों में जमा है, वह कितना है। अभी तक हवा-हवाई आंकड़े दिए जाते रहे हैं। बातें लाखों करोड़ की की गई, लेकिन असलियत में 15-20 हजार करोड़ रुपए का ही पता चल पाया है। सुप्रीम कोर्ट को जिन 627 लोगों की सूची सौंपी गई है, उनमें से अधिकांश ने 20 से लेकर 100 करोड़ तक जमा कराए हैं। ये सब छोटी मछलियां हैं। जाहिर है, कालाधन विदेश में है यह कहकर भ्रम फैलाया गया जबकि कालाधन तो देश में ही सुरक्षित रखा हुआ है, जिसके कई स्रोत हैं। लेकिन फिर भी यह 627 नाम सामने आ गए तो क्या इन सब लोगों का पैसा भारत लाया जाएगा? इनमें से 150 लोगों ने अपनी रकम घोषित करते हुए उस पर टैक्स जमा कर दिया है और पैनल्टी भी दे दी है। इसलिए उनके खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई संभव नहीं है। प्रकरण केवल उन्हीं मामलों में बनेंगे जिनमें यह सिद्ध हो जाएगा कि बैंकों में जमा रकम पर टैक्स नहीं दिया गया। साथ ही यह सवाल भी पूछा जा सकता है कि इतनी बड़ी रकम विदेशों में किन स्रोतों से पहुंचाई गई?
विदेशी बैंकों में जमा रकम का पता लगाना समुद्र में सुई तलाशने के समान है। कई देशों से भारत की संधि नहीं है इसलिए वे खाताधारियों के नाम बताने के लिए बाध्य नहीं हैं। जिन देशों से दोहरी कराधान संधि है, वे भी अपने बैंकों के ग्राहकों के नाम कुछ शर्तों के साथ ही सौंपेंगे। इनमें से गोपनीयता की शर्त सर्वप्रथम है। इसलिए जनता सारे खाताधारियों के नाम जान पाएगी, इसमें संदेह ही है।
फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से वे नाम मांगकर सरकार की राह आसान करने की कोशिश की है, जो एसआईटी को पहले ही मुहैया करा दिए गए थे। इसमें 300 नाम तो अप्रवासी भारतीयों के हैं, जो देश के आयकर कानून के दायरे में नहीं आते। बचे 327 लोगोंं की जांच करने के लिए 31 मार्च तक की मोहलत एसआईटी को दी गई है, जो एक माह के भीतर न्यायालय में स्टेटस रिपोर्ट सौंपेगी। वैसे भी कालेधन को लेकर भाजपा में ही सुब्रह्मणयम स्वामी और राम जेठमलानी जैसे राहु-केतू मुखर रहे हैं। बाबा रामदेव ने इसके लिए आमरण अनशन किया था और अन्ना हजारे जैसे एक्टिविस्टों ने कालेधन का मुद्दा उठाया था। लेकिन अब गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में होने के कारण फिलहाल यह मामला मीडिया की सुर्खियों से मार्च तक तो ओझल रहेगा और तब तक सरकार को भी थोड़ी राहत रहेगी। अगली सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में 3 दिसंबर को होगी।
इसका अर्थ यह हुआ कि कालाधन चुनावी मुद्दा बनकर रह जाएगा। किसी भी राजनीतिक दल की सरकार में वह इच्छाशक्ति नहीं है कि कालाधन भारत ला सके। हाल ही में जब बर्लिन में टैक्स चोरी और कालेधन की जानकारी बांटने के लिए 51 देशों ने आपसी समझौते किए तो भारत ने इस बैठक में भाग ही नहीं लिया। इससे सरकार की गंभीरता समझी जा सकती है कि वह भी पिछली सरकारों की तरह कालाधन को चुनावी स्टंट मात्र मानती है। जो दल इस समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए बर्लिन गया था, वह सरकारी पैसों पर मौज-मस्ती करके वापस लौट आया लेकिन बैठक में शामिल नहीं हुआ। जिस देश से हर वर्ष 5 लाख 25 हजार करोड़ रुपया कालेधन के रूप में बाहर भेजा जा रहा हो, वह देश यदि कालेधन संबंधी किसी संधि पर हस्ताक्षर करने से पीछे हटता है तो दाल में कुछ काला अवश्य नजर आता है और इससे यह पता चलता है कि कांग्रेस की तरह भाजपा नीत सरकार भी कालेधन पर देश की जनता को भरमा रही है। जो 627 नाम केंद्र के पास हैं, वे तो 2011 में एचएसबीसी बैंक की जो सूची लीक हो गई थी, उनके हैं। 173 नाम जर्मन सरकार से मिले हैं। बाकी सरकार के पास कुछ नहीं है। 612 नामों की सूची इंटरनेशनल कंजोर्शियम ऑफ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स के पास है। वह सरकार को बताने के लिए बाध्य नहीं है। यानि कुल 173 नाम ही सरकार द्वारा प्राप्त किए गए, जो कि यूपीए सरकार ने प्राप्त किए। विदेशों में 63 लाख करोड़ रुपए होने का दावा करने वाली भाजपानीत सरकार ने एक भी नाम पता नहीं किया है, अलबत्ता 8 नाम सार्वजनिक अवश्य कर दिए हैं। लेकिन यह तो कालेधन के महासागर की कुछ बूंदें मात्र हैं। भारत अंतर्राष्ट्रीय रूप से उतना सक्षम नहीं है कि वह अमेरिका की तरह अपना पैसा वापस देश में ले जाए। भारत केवल दबाव बना सकता है। जिन स्विस बैंक को बदनाम किया जा रहा है, उनमें 14 हजार करोड़ रुपए भारतीयों का जमा है। इसमें से कितना कालाधन है, किसी को नहीं पता। 2006 में स्विस अधिकारियों ने भारत सरकार को बताया था कि तकरीबन 23 हजार करोड़ रुपए भारतीयों का जमा है, लेकिन 2010 आते-आते यह धन घटकर 9 हजार करोड़ रुपए रह गया। जाहिर सी बात है, 14 हजार करोड़ रुपए निकालकर ठिकाने लगा दिए गए। यह अकेले स्विस बैंक में हुआ बाकी बैंकों में क्या घालमेल हुआ होगा, इसका पता लगाना आसान नहीं है। सरकार को विदेशी बैंकों में भारतीयों द्वारा किए गए पिछले 2 दशक के लेन-देन, खातों इत्यादि का ब्यौरा प्राप्त करना चाहिए, तभी किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। विदेश मंत्रालय की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है। फिलहाल तो मात्र 3 हजार करोड़ रुपए ही वापस आने की संभावना है। यदि इस सारे पैसे को कालाधन मान लिया जाए, तो यह आंकड़ा चुनाव के दौरान बोले गए आंकड़ों के मुकाबले बहुत छोटा है।
यदि भाजपा ने 63 लाख करोड़ रुपए का आंकड़ा देश के सामने रखा था तो कम से कम 63 हजार करोड़ रुपए ही देश में वापस लाने का कारनामा कर दिखाए, जिससे देशवासियों को कुछ तो सुकून मिले। सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने कालेधन पर एसआईटी गठित की थी लेकिन इस एसआईटी ने पुरानी जानकारियों पर ही आगे काम किया। अभी तक कोई भी जानकारी ऐसी नहीं है जो ताजातरीन हो। फिर कालेधन का मुद्दा इतना उछल गया है कि जिन लोगों का पैसा कथित रूप से विदेशों में जमा था उन्होंने ज्यादातर पैसा ठिकाने लगा दिया है। ऐसे में सरकार के हाथ कुछ लगने वाला नहीं है। सरकार के कदम बौखलाए हुए और खोखले प्रतीत हो रहे हैं। यदि विदेशी खाताधारियों के खातों को फ्रीज करने की दिशा में कोई ठोस कदम उठाया जाता, तो कुछ हाथ में अवश्य आता। जिन 25 हजार वैध खातों की बात हो रही है, उनकी राशि अवश्य पता लग सकती है लेकिन वह राशि जहां है वहीं रहेगी, भारत लाना संभव नहीं है।
सत्य तो यह है कि वर्ष 2009 से ही कालेधन का मुद्दा चल रहा है। 5 वर्ष की अवधि में उन लोगों ने कई रास्ते तलाश लिए हैं जो कालेधन को जोडऩे में माहिर हैं। अब ये पैसा विदेश जाता है और विदेशी निवेश के नाम पर वापस भारत में निवेश कर दिया जाता है। आम के आम गुठली के दाम। कालेधन को सफेद करने और कालेधन से मुनाफा कमाने का यह गोरखधंधा बहुत फल-फूल रहा है। मॉरिशस जैसे छोटे देश से भारत में जो भारी निवेश हो रहा है, वह क्या है? इस निवेश की भी जांच होनी चाहिए। कालेधन के खिलाड़ी अब स्विस बैंकों को सुरक्षित नहीं मानते, क्योंकि स्विस बैंक बदनाम हो चुके हैं। इसीलिए पैसा विभिन्न देशों में लगाया जा रहा है, जिसे पता करना आसान नहीं है। जहां तक बैंकों का प्रश्न है, 25 हजार खाते तो ऐसे हैं जिनके मालिकोंं का नाम पता नहीं चल पाया है। सुप्रीम कोर्ट में भी जो नाम सौंपे गए हैं वे फ्रांस से मिले हैं, स्विट्र्जलैंड और जर्मनी से मिले नाम अभी भी गुप्त हैं। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने सख्ती दिखाई है और सरकार को फटकार लगाने के बाद कहा है कि आप नाम बताएं जांच हम करा लेंगे। जाहिर है सरकार खाताधारियों को बचाना चाहती है। जिस भाजपा ने कालेधन को एक बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया था आज उसी की सरकार ने कोर्ट में दलील दी है कि विदेशों में पैसे रखना अपराध नहीं है। संविधान में सभी को निजता का अधिकार दिया गया है। हम सबके बारे में नहीं बता सकते। आयकर विभाग सभी खातों की जांच कर रहा है। टैक्स चोरी का केस बनने पर नाम सामने लाएंगे। एसआईटी वैधानिक संस्था नहीं है। हमारे कई देशों से करार हैं। सभी लोगों के नाम बताने से भारत के कूटनीतिक संबंध उन देशों से खराब हो सकते हैं। सूचना गोपनीय रखना जरूरी है। सरकार ने यह भी कहा है कि अदालत कृपया अपना पुराना आदेश संशाधित करे। उसमें विदेश में पैसा रखने वाले सभी लोगोंं के नाम जाहिर करने के निर्देश दिए गए हैं।
काले धन पर कलाबाजी
कोयला और कालाधन ने पिछली सरकार की कब्र खोदी थी। अब जागरूक जनता सरकार से पूछ रही है कि कालाधन कहां है? वे लोग कौन हैं जिनका धन स्विस बैंक के अलावा जूलियस बेयर, क्रेडिट सुइस और यूबीएस बैंक जैसे तमाम बैंकों में जमा है? सरकार को विभिन्न देशों से कुछ संधियां करनी पड़ेंगी, जो फिलहाल अस्तित्व में नहीं हैं। जिन देशों से दोहरी कर संधियां हैं उन देशों के बैंकों में पैसा जमा करना अपराध नहीं माना जाता, क्योंकि इस पैसे पर समुचित कर पहले ही दे दिया जाता है। इसलिए खाता धारियों के नाम उजागर होने मात्र से यह तय नहीं हो सकता कि खाताधारी कालाधन ठिकाने लगा आए हैं।
स्विट्जरलैंड के अग्रणी बैंकों ने ब्लैक मनी को लेकर विवादों में घिरे ऐसे इंडियन कस्टमर्स से दूरी बनाने का प्रयास करना शुरू कर दिया है, जो भविष्य में उनके लिए परेशानी का कारण बन सकते हैं। सूत्रों के अनुसार, स्विस बैंकों ने चार संदिग्ध भारतीयों से अपना पैसा 31 दिसंबर तक निकाल लेने को कहा है। कहा जा रहा है कि इनमें से तीन मुंबई और एक दिल्ली का निवासी है। पिछले कुछ हफ्तों से बैंक प्रबंधकों द्वारा गोपनीय अकाउंट्स को बंद करने को कहा जा रहा है। एक खाताधारक को 30 अक्टूबर तक अपना खाता बंद करने को कहा गया था, जबकि एक अन्य खाताधारक को यह साबित करने को कहा गया था कि क्या उसने बैंक में जमा कराए गए धन पर टैक्स चुकाया है। एक दशक पहले ये अकाउंट स्विस बैंकों में खोले गए हैं। भारतीय खाताधारकों को ये फोन कॉल जूलियस बेयर, क्रेडिट सुइस और यूबीएस बैंक से आए हैं, जो भारत में कार्यरत कंपनियों के बीच अपनी गोपनीयता और सुविधाओं के लिए जाने जाते हैं। सरकार के पास ऐसे खाताधारकों के खिलाफ पर्याप्त सबूत हैं, जिन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाकर स्विस बैंकों में बड़ी रकम जमा कर रखी है।
स्विस बैंकों में जमा भारतीय धनराशि में 2013 में 40 फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई थी, जो करीबन भारतीय मुद्रा में 14000 करोड़ रुपए के आसपास होती है। पहले यह राशि तकरीबन 9514 करोड़ रुपए थी।
क्या है गणित विदेशी बैंकों का?
- भारतीयों के विदेशों में जमा धन का कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।
- वाशिंगटन के थिंक टैंक ग्लोबल फाइनेंशियल इंट्रीग्रिटी (त्रस्नढ्ढ) के मुताबिक, तकरीबन 28 लाख करोड़ रुपए भारतीयों के विदेशों में जमा हैं।
- थिंक टैंक के मुताबिक, यह राशि 1948 से 2008 के बीच उन देशों में जमा कराई गई है, जहां जमा राशि पर टैक्स न के बराबर लगता है।
- केंद्र सरकार ने भी 2011 में दिल्ली के तीन थिंक टैंक नेशनल काउंसिल फॉर अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (हृष्ट्रश्वक्र), नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (हृढ्ढक्कस्नक्क) और नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ फाइनेंशियल मैनेजमेंट (हृढ्ढस्नरू) को काली अर्थव्यवस्था के सही आंकड़े उजागर करने के काम में लगा रखा है।
- फाइनल रिपोर्ट अभी भी प्रस्तुत नहीं की गई है।
कहां गए आंदोलन करने वाले
बीते कुछ वर्षों में यूपीए सरकार के कार्यकाल में काला धन वापस लाने के लिए देश में कई बड़े आंदोलन भी हुए। इनमें समाजसेवी अन्ना हजारे और योगगुरु बाबा रामदेव का आंदोलन प्रमुख था। वहीं, वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने भी काला धन जमा करने वालों के नाम उजागर करने वाली एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की है, जिस पर हाल ही में सरकार की ओर से कहा गया कि वह कई देशों से दोहरी कर संधि के चलते खाताधारकों के नाम उजागर नहीं कर सकती है। इसके अलावा, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी पिछले हफ्ते कहा था कि स्विटरजरलैंड सरकार खाताधारकों के नाम वाली लिस्ट साझा करने के लिए तैयार हो गई है।
टैक्स और जुर्माना
यह गलतफहमी लंबे समय से फैलाई गई है कि विदेशी बैंकों में जमा सारा पैसा सरकार के खजाने मेें आ जाएगा। सत्य तो यह है कि इस पैसे पर टैक्स लगाया जाएगा। इस पर जुर्माना किया जा सकता है, यदि पैसे का स्रोत सही नहीं बताया गया तो उस स्थिति में पैसा राजसात करके खाताधारी के खिलाफ कानूनी कार्यवाही हो सकती है। विशेषज्ञ कहते हैं कि टैक्स से बचने के लिए जो पैसा विदेशों में जमा कराया जाता है उस पर सरकार टैक्स, ब्याज और जुर्माना ले सकती है। इतना अवश्य है कि यह पैसा देश के बैंकों में जमा रहेगा तो बैंकों की आर्थिक ताकत बढ़ेगी, निवेश के लिए पैसा मिलेगा, ब्याज दरों में भी सुधार आ सकता है। इसलिए कांग्रेस और भाजपा के बीच कालाधन को लेकर चल रही स्टंटबाजी निराधार है यह केवल राजनीतिक दांव-पेच है होगा वही जो नियमों के अनुसार संभव है।
