17-Oct-2014 07:48 AM
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1994 में जब जर्मनी में Aquisgran Foundation Ùð The Aachener International Peace Award से भारत के एक अनाम से बाल अधिकार एक्टिविस्ट कैलाश सत्यार्थी को सम्मानित किया
था उस वक्त भारत के मीडिया में सत्यार्थी की कोई विशेष चर्चा नहीं हुई, मल्टीनेशनल मॉनिटर ने अवश्य उनका एक साक्षात्कार लिया था। इससे पता चलता है कि बंधुआ मजदूरोंं खासकर बंधुआ बच्चों के मुद्दों को लेकर समाज और मीडिया कितना सुप्त था। लेकिन सत्यार्थी जाग्रत थे, उनकी चेतना शून्य नहीं हुई थी। बंधुआ मजदूरी में पिसते बच्चों के प्रति उनकी संवेदना उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही थी और वे संपूर्ण करुणा तथा दया के साथ उन बच्चों का भाग्य बदलने में जुटे हुए थे। इस दौरान कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने उन्हें पुरस्कारों से नवाजा, लेकिन बाल श्रमिकों और बंधुआ श्रमिकों का यह उद्धारक प्राय: मीडिया की नजरों से ओझल ही रहा। टीआरपी और सर्कुलेशन के पीछे भागते मीडिया के सामाजिक सरोकार तो उस दौर में ही खत्म हो चुके थे, जब बाजार इस देश की मंडियों से निकलकर लोगों के ड्राइंगरूम में सज चुका था। इसलिए खबरें भी वही आती थीं, जो बिकाऊ हों और उबाऊ न हों। ऐसे हालात में गुपचुप मीडिया की नजरों और प्रचार से दूर काम करने वाले उस अनाम से सत्यार्थी को भला कौन पूछता। किंतु उन्हें इसकी चाह भी नहीं थी। उन 85 हजार बच्चों की आंखों में चमकती आशाओं के जुगनुओं से आलोकित सत्यार्थी अनवरत काम में जुटे रहे। उनकी हत्या की कोशिश हुई, उनके दो साथियों को मार डाला गया, वे स्वयं कई बार लहुलुहान हुए। हड्डियां तुड़वा बैठे लेकिन डटे रहे। बच्चों को गुलामी से बचाने के लिए, उन्हें अवैध यौनाचार से लेकर अनवरत श्रम और पीड़ा से मुक्ति दिलाने के लिए कैलाश सत्यार्थी ने हिमालय-सा विशाल भागीरथी प्रयास किया और आज नोबेल समिति ने उन्हें पुरस्कृत करके अपनी प्रासंगिकता तथा विश्वसनीयता बचाने की कोशिश की है। अन्यथा इस सम्मान की प्रतिष्ठा को तो क्षति उस दिन ही पहुंच चुकी थी जब अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को इस सम्मान के लिए चुना गया था, जबकि उस वक्त दुनिया में ओबामा से कहीं ज्यादा योग्य व्यक्ति मौजूद थे। लेकिन यह एक अलग विषय है, महत्वपूर्ण यह है कि दुनिया ने सत्यार्थी की लगन को समझा और उन्हें सराहना दी।
सत्यार्थी की जीवन यात्रा एक तरह से सत्य को पाने की उत्कट आकांक्षा का ही परिणाम है। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान जब सत्यार्थी ने देखा कि उनकी तरह वे सब बच्चे भाग्यशाली नहीं हैं जो योग्य होते हुए भी शिक्षा से वंचित हैं। अपने कॉलेज के दिनों से ही कैंटीनों में, दुकानों पर, कारखानों में, गैरेजों में काम करते या फिर काम के अभाव में भीख मांगते बच्चों को देखकर सत्यार्थी का मन द्रवित हो उठता था। धीरे-धीरे उनकी इस करुणा ने जिज्ञासा का रूप ले लिया और वे यह पता लगाने में जुट गए कि बच्चों के जीवन के इस अंधकार का कारण क्या है? उन्हें कुछ बातें पता चलीं, उन्होंने रेलवे स्टेशन से लेकर तमाम जगह भीख मांगने वाले, काम करने वाले, कचरा बीनने वाले बच्चों से मिलकर उनका दुख-दर्द जाना, उनकी समस्याओं की पड़ताल की और उन समस्याओं की गहराई में जाने का प्रयास किया। यह 80 का दशक था। 11 जनवरी 1954 को जन्में सत्यार्थी ने जब समस्या को गहराई से देखा तो इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर के रूप में सुनहरे भविष्य को छोड़कर उन्होंने बाल श्रमिकों की अंधेरी राहों पर भटकने का कठोर निर्णय ले लिया। उस वक्त इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर का पेशा सम्मानजनक होने के साथ-साथ दुर्लभ भी था। देश में गिने-चुने इंजीनियरिंग
कॉलेजेस थे जिनमें प्रवेश मिलना आसान नहीं था, जिसे मिल जाता था उसकी लॉटरी लग जाती थी, लेकिन सत्यार्थी की लगन अलग थी।
उन्होंंने बचपन बचाओ आंदोलन की शुरुआत की और अगले 20 वर्ष के दौरान वे पूरे भारत में बच्चों के अधिकारों के मुखर प्रवक्ता बन गए। लेकिन राजनीति और मीडिया से उनकी दूरी
बनी रही।
जब कांग्रेस सरकार ने राष्ट्रीय बाल आयोग बनाया उस वक्त अनुमान लगाया जा रहा था कि सत्यार्थी को कोई अच्छी भूमिका दी जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दक्षिण में बच्चों के अधिकारों केे लिए काम कर रही शांता सिन्हा को भूमिका दी गई। सत्यार्थी गुप-चुप काम करने में माहिर हैं इसलिए वे किसी पद या प्रचार से बचते हैं। वर्ष 2004 में जब उत्तर प्रदेश के गोंडा जिला स्थित करनैलगंज में ग्रेट रोमन सर्कस में काम करने के लिए नेपाल से लाई गई लड़कियों को मुक्त कराने के लिए प्रयासरत सत्यार्थी पर जानलेवा हमला हुआ, उस वक्त मीडिया के माध्यम से लोगों ने जाना कि सत्यार्थी कौन हैं। यह एक दशक पहले की बात है। उन 11 लड़कियों को सत्यार्थी बचाने में कामयाब रहे। उस वक्त किसी दैनिक समाचारपत्र में उन मासूम बच्चियों का एक चित्र छपा था, उनकी आंखों में दर्द और कृतज्ञता थी। सिर पर पट्टी बांधे दर्द से कराहते किंतु अपने लक्ष्य के प्रति सचेत और चैतन्य सत्यार्थी से जब मीडिया ने बात की, तो उन्होंने वही दोहराया कि बच्चों को उनके माता-पिता के संरक्षण में ही रहना चाहिए। उनकी जगह स्कूल और खेल के मैदान हैं। उन्हें काम पर भेजना या उनसे भीख मंगवाना मानवता के प्रति अपराध है।
भारत में यह अपराध पीढ़ी दर पीढ़ी होता रहा है। बंधुआ मजदूरी एक ऐसा दंश है, जिसे गरीब परिवार के बच्चे सबसे ज्यादा झेलते हैं। उनका जीवन इसी उम्मीद में कट जाता है कि कभी-न-कभी तो मुक्ति मिलेगी, लेकिन मुक्ति नहीं मिल पाती। क्योंकि करोड़ों बाल श्रमिकोंं को बचाने के लिए एक अकेला सत्यार्थी पर्याप्त नहीं है। इसके लिए दीर्घकालीन योजना की आवश्यकता है। विकसित देश भारत के कालीन सहित कई उत्पादों का बहिष्कार करते रहे हैं, लेकिन उन्हें भी भारत के बालश्रम की जटिलताओं का आभास नहीं है। इन जटिलताओं को तो कैलाश सत्यार्थी जैसे जमीनी एक्टिविस्ट ही समझ सके हैं, जिन्होंने समाज के भीतर घुसकर अपनी जान की परवाह किए बगैर उन 82 हजार 625 बच्चों को पिछले 34 वर्षों के दौरान मुक्ति दिलाई है, जिनमें से बहुत से अच्छी शिक्षा ले चुके हैं और आज सत्यार्थी की इस उपलब्धि पर उनकी आंखों में भी आंसू हैं।
किंतु 82 हजार 625 बच्चों की मुक्ति बालश्रम की एक विशाल समस्या का छोटा सा समाधान भर है। 1979 में बाल मजदूरी की समस्या और उससे निजात दिलाने हेतु जिस गुरुपाद स्वामी समिति का गठन किया गया था, उसने उस समय जो आंकड़ा दिया था वह अत्यंत भयानक था। लेकिन यह रिपोर्ट भी 7 साल तक धूल खाती रही। 1986 में बाल मजदूरी (प्र्रतिबंध एवं विनियमन) अधिनियम लागू करते हुए खतरनाक व्यवसायों में बालश्रम पर रोक लगाई गई और वर्ष 1987 में राष्ट्रीय बाल मजदूरी नीति तैयार की गई।
यह दोनों परिवर्तन केवल कागजों पर थे और बाल मजदूर बढ़ रहे थे। वे उत्तरकाशी में फटाके बना रहे थे, कानपुर की चमड़ा इकाईयों में उनके हाथ-पैर गलने के बावजूद उनसे काम लिया जाता था। गुजरात में बंदरगाहों पर वे टूटे जहाजों केे अवशेषों को अपने कोमल हाथों से चुन रहे थे, तो मिर्जापुर सहित देश के कई हिस्सों में रेशमी कालीन बुनने के लिए अपनी बारीक उंगलियों से दिन-रात
मेहनत कर रहे थे। 57 खतरनाक उद्योगों के अलावा घरों, ढाबों से लेकर वेश्यालयों में उन मासूम बच्चों को काम करते देखा जा सकता था। बीच में जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ हल्ला हुआ तो सरकार ने कुछ खतरनाक उद्योगों पर छापे भी डाले और 1 लाख 5 हजार बच्चों को स्कूल भेजने का प्रबंध किया, लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं था। जो कुछ किया जा रहा था, वह ऊंट के मुंह में जीरे के समान था। 1991 की जनगणना में आंकड़ा आया कि देश में बाल श्रमिकों की संख्या 1.1 करोड़ है। 1999 और 2000 में एनएसएसओ के सर्वेक्षण प्रतिवेदन में यह संख्या 1 करोड़ 4 लाख के करीब बताई गई। लेकिन सच तो यह है कि आज भी भारत में करीब 2 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं। यदि इनमें उन बच्चों को भी जोड़ दिया जाए जो किसी कारण से स्कूल नहीं जाते हैं, तो यह आंकड़ा 10 करोड़ के करीब पहुंच जाएगा। दुख की बात तो यह है कि हमारे देश के कर्णधार कृषि और पशुपालन में जुटे बाल श्रमिकों को बाल श्रमिक नहीं मानते। उनके विषय में कहा जाता है कि वे पैतृक हुनर सीख रहे हैं। लालू यादव तो जब मुख्यमंत्री हुआ करते थे, उस वक्त उन्होंंने स्कूलों में चरवाहों के बच्चों को अपनी गाय-भैंस लाने की छूट भी दे दी थी। चरवाहा स्कूल का यह प्रयोग औंधे मुंह गिर गया और बाल श्रम की कठोर सच्चाई बनी रही। आज भी देश का प्रत्येक सातवां बच्चा बाल श्रमिक के रूप में जन्म लेता है। प्रतिवर्ष जन्मने वाले 11.5 लाख अमान्य बच्चों में से अधिकांश 5-6 वर्ष की उम्र से ही बाल श्रमिक बन जाते हैं। निश्चित रूप से इसका कारण गरीबी, अशिक्षा और तीव्र जनसंख्या विकास ही है। देश का सर्वाधिक निर्धन तबका ज्यादा बच्चों को परिवार की आमदनी का साधन मानता है। जितने ज्यादा बच्चे होंगे वे उतना ही काम करेंगे और पैसा कमाएंगे। यह गलतफहमी जनसंख्या को तो विस्फोट की कगार पर पहुंचा ही चुकी है लेकिन उससे भी ज्यादा दुखद यह है कि चाय बागानों में पत्तियां तोड़ते कोमल हाथ, होटलों और ढाबों पर झूठे बर्तन मांझते बच्चे, मिर्जापुर के कालीन उद्योग में और किसी गैरेज में अपनी आंख और हाथ कुर्बान करने वाले बच्चे बढ़ रहे हैं। वे 12 घंटे काम करते हैं और भारत के कुल राष्ट्रीय उत्पाद का 20 प्रतिशत उन्हीं के कोमल हाथों से बनता है। पूरी दुनिया में 25 करोड़ बाल श्रमिक हैं, जिनमें से भारत में ही एक तिहाई हैं और इनकी सर्वाधिक संख्या असंगठित क्षेत्रों में है। ऐसी स्थिति में उन बच्चों को भी कैलाश सत्यार्थी का इंतजार है, जो इस पुरस्कार के बाद यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि शायद सरकार को कुछ प्रेरणा मिलेगी। सत्यार्थी का संगठन दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों के अतिरिक्त उड़ीसा, झारखंड, असम के दूरवर्ती इलाकों में देश के हर कोने में काम कर रहा है।
उन्होंने ग्लोबल मार्च अगेन्स्ट चाइल्ड लेबर नामक मुहिम चलाई है, जो दुनिया के कई देशों में सक्रिय है। लेकिन उनका दृढ़ विश्वास है कि दलगत राजनीति से समाज में बदलाव संभव नहीं है। कभी स्वामी अग्रिवेश के साथ मिलकर बचपन बचाओ आंदोलन शुरू करने वाले सत्यार्थी शायद इसी वजह से अग्रिवेश से अलग हो गए क्योंकि अग्रिवेश का मानना था कि राजनीतिक दल के माध्यम से समाज में बदलाव आएगा। उन्हें विश्वास है कि नोबल अवार्ड के बाद बाल मजदूरी एक बड़ा मुद्दा बनेगा क्योंकि बाल मजदूरी के खिलाफ काम करने वाले किसी कार्यकर्ता को पहली बार यह पुरस्कार दिया गया है। इस पुरस्कार की सार्थकता तभी संभव है, जब हम बाल मजदूरी के कलंक को पूरी तरह पोंछ दें। उन्होंने संदेश दिया है- ग्लोबलाइजेशन ऑफ कंपेशन फॉर चिल्ड्रन (बच्चों के लिए करुणा का भूमण्डलीकरण)
सत्यार्थी को मिले पुरस्कार और सम्मान
कैलाश सत्यार्थी को भारत में राजनीतिक कारणों से उतना महत्व नहीं दिया गया। क्योंकि भारत के राजनीतिक दिग्गज पश्चिम की उस आलोचना से असहज महसूस करते हैं जिसमें भारत के बालश्रम को निशाना बनाया जाता है, किंतु दुनिया में बाकी देशों ने सदैव कैलाश सत्यार्थी के सत्य को पहचानते हुए उन्हें कई पुरस्कार और सम्मान दिए जिनमें से प्रमुख है...
2014 : नोबल शांति पुरस्कार
2009 : डिफेंडर्स ऑफ डेमोक्रेसी अवॉर्ड अमेरिका
2008 : अल्फोन्सो कोमिन इंटरनेशनल अवॉर्ड स्पेन
2007 : गोल्ड मेडल ऑफ इटेलियन सीनेट
2007 : हीरोज एक्टिंग टू एंड मॉडर्न डे स्लेवरी अमेरिका
2006 : फ्रीडम अवॉर्ड अमेरिका
2002 : वेलनबर्ग मेडल मिशीगन विश्वविद्यालय अमेरिका
1999 : फ्रेडरिक एबर्ट स्टिफटंग अवॉर्ड जर्मनी
1998 : गोल्डन फ्लेग अवॉर्ड नीदरलैंड
1995 : राबर्ट एफ केनेडी ह्यूमन राइट्स अवॉर्ड अमेरिका
1995 : द ट्रमपेटर अवॉर्ड अमेरिका
1994 : द आरचेनर इंटरनेशनल पीस अवार्ड जर्मनी
1993 : इलेक्ट्रेट अशोक फेलो अमेरिका
पाकिस्तान पचा नहीं पाया मलाला के अवार्ड को
पाकिस्तान सहित दुनिया भर के कठमुल्लों के जेहन में सन्नाटा छाया हुआ है। उनके बदन पर चींटियां रेंग रही हैं, जिस लड़की को उन्होंने गोलियों से भूना और स्कूल जाने से रोकना चाहा आज नोबल समिति ने उसे नोबल शांति पुरस्कार से नवाज दिया। मलाला की यह उपलब्धि पाकिस्तान के कट्टरपंथ में ड्रोन से दागी गई किसी मिसाइल की तरह ही गिरी है। वे इस पुरस्कार को पश्चिमी देशों की साजिश मानते हैं और कहते हैं कि मलाला के बहाने मुस्लिम महिलाओं को भड़काने की साजिश की जा रही है। मलाला को नोबल शांति पुरस्कार की घोषणा ऐसे समय में हुई, जब ईसिस ने ईराक में महिलाओं का बाजार लगाया हुआ है। मध्ययुगीन बर्बर दिनों की याद ताजा हो गई है। आश्चर्य होता है यह जानकर कि मलाला उसी समाज से निकलकर दुनिया के सामने आई है, जिस समाज में कुछ कट्टपंथियों के कारण मजहब का हवाला देकर महिलाओं और बच्चों का बदस्तूर शोषण किया जा रहा है। मलाला ने तो अपनी लड़ाई लड़ ली लेकिन उन तमाम लड़कियों के लिए लड़ाई अभी भी मुश्किल है, जिन्हें आग से खेलना पड़ता है और अपनी जान जोखिम में डालकर पढ़ाई करनी पड़ती है। मलाला इसी जोखिम का प्रतीक बन गई है। उसने एक लंबी लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की। नोबल समिति ने मलाला को पुरुस्कृत करते समय हिंदू और मुसलमान शब्द का प्रयोग करके संभवत: दोनों देशों के आंतरिक हालात की तरफ इशारा किया है, जहां दोनों कौमें मानव मात्र के कल्याण और इंसानियत को भूलकर एक-दूसरे के खून की प्यासी हो रही हैं।
-Rajendra Agal