17-Oct-2014 09:51 AM
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विलियम शेक्सपीअर की रचनाएं निर्देशक विशाल भारद्वाज को काफी पसंद हैं। मैकबेथ पर आधारित मकबूलÓ और ओथेलो पर आधारित ओंकाराÓ वे बना चुके हैं। उनकी ताजा फिल्म हैदरÓ हेमलेट

से प्रेरित है। शेक्सपीअर की रचनाओं को वे भारतीय पृष्ठभूमि से बखूबी जोड़ते हैं और हैदरÓ को 1995 के कश्मीर के हालात की पृष्ठभूमि पर बनाया गया है। अलीगढ़ में पढ़ रहे हैदर मीर (शाहिद कपूर) को तब कश्मीर अपने घर लौटना पड़ता है, जब उसके पिता डॉक्टर हिलाल मीर (नरेंद्र झा) को आर्मी पकड़ लेती है। हिलाल ने एक आतंकवादी का अपने घर में ऑपरेशन किया था। अचानक हैदर के पिता लापता हो जाते हैं। पूरे कश्मीर को कैदखाना मानने वाला हैदर उनकी तलाश शुरू करता है। हैदर की तकलीफ तब और बढ़ जाती है जब उसे पता चलता है कि उसकी मां गजला मीर (तब्बू) उसके चाचा खुर्रम मीर (केके मेनन) के बीच संबंध है। अपने पिता के बारे में हैदर को रूहदार (इरफान खान) के जरिए ऐसा सुराग मिलता है कि वह हिल जाता है। क्या हैदर अपने पिता को ढूंढ पाता है? उसके पिता को गायब करने में किसका हाथ है? क्या हैदर की मां और चाचा के संबंध टूटते है? इनके जवाब हैदर (फिल्म) में मिलते हैं। फिल्म का स्क्रीनप्ले विशाल भारद्वाज और बशरत पीर ने मिलकर लिखा है। कश्मीर के राजनीतिक हालात को उन्होंने कुशलता के साथ कहानी में गूंथा है। जहां एक ओर हैदर पारिवारिक स्तर पर अपनी समस्याओं से जूझता रहता है, वहीं दूसरी ओर कश्मीर की समस्याएं भी उसके आड़े आती हैं। फिल्म में एक संवाद है, कि जब दो हाथी लड़ते हैं तो कुचली घास ही जाती है। दो बड़े मुल्कों की लड़ाई का नतीजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। कई लोग लापता हैं जिनके बारे में कोई नहीं जानता। ऐसी महिलाएं जिनके पति लापता हैं उन्हें आधी बेवा कहा जाता है और हैदर की मां भी आधी बेवा है। ऐसी कई बातों को इशारों में दर्शाया गया है और बहुत कुछ दर्शक की समझदारी पर लेखक और निर्देशक ने छोड़ा है।
निर्देशक विशाल भारद्वाज ने पूरी फिल्म पर ऐसा कश्मीरी रंग चढ़ाया है कि लगता ही नहीं कि हेमलेट और कश्मीरी पृष्ठभूमि दो अलग चीज हैं। बदला, राजनीति, रोमांस, आतंकवाद जैसे वो सारे तत्व कहानी में मौजूद हैं जो कमर्शियल फिल्मों के भी आवश्यक अंग माने जाते हैं, लेकिन विशाल का प्रस्तुतिकरण फिल्म को अलग स्तर पर ले जाता है। हालांकि फिल्म की गति को उन्होंने बेहद धीमा रखा है और कई बार तो धैर्य आपकी परीक्षा लेने लगता है। विशाल की पिछली फिल्मों को देखा जाए तो वे बात को आक्रामक तरीके से पेश करते हैं, लेकिन हैदरÓ में उनका प्रस्तुतिकरण अलग मिजाज लिए हुए हैं। सेकंड हाफ में हैदर की मनोदशा का चित्रण विशाल ने बखूबी किया है। एक सीन तो कमाल का है जिसमें हैदर भीड़ के सामने तमाशा पेश करता है। हैदरÓ की अनोखी बात यह भी है कि कहानी में आगे क्या होने वाला है, कौन सा किरदार किस करवट बैठेगा, इसका अंदाजा लगाना आसान नहीं है। विशाल खुद संगीतकार भी हैं इसलिए वे गानों के माध्यम से कहानी को कहना खूब जानते हैं। एक गाने में कुछ बूढ़े लोग कब्र खोदते हैं और गाते हुए लोगों का इंतजार करते हैं, ताकि उन्हें दफना सकें। कश्मीर की बेबसी इस गाने में झलकती है। बिस्मिलÓ गाना भी पूरी कहानी का निचोड़ है। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक भी उम्दा है। शाहिद कपूर को कठिन रोल मिला है, जिसका निर्वाह उन्होंने बेहतरीन तरीके से किया है। हैदर एक ऐसा किरदार है जिसको अपने ही छलते हैं, इससे उसका मानसिक संतुलन तक बिगडऩे लगता है, उसके इस दर्द को शाहिद ने अच्छे से पेश किया है। तब्बू का किरदार सबसे सशक्त है और पूरी कहानी उनके इर्दगिर्द घूमती है। तमाम दृश्यों में वे अपने साथी कलाकारों पर भारी पड़ती हैं। एक अच्छा कलाकार किस तरह से फिल्म में जान डाल देता है, इसका उदाहरण इरफान खान है। इरफान की एंट्री के पहले फिल्म बहुत ही स्लो लगती है, लेकिन उनके आते ही फिल्म का स्तर ऊंचा उठ जाता है। ऐसा लगता है कि काश इरफान का रोल और लंबा होता। केके मेनन और श्रद्धा कपूर का अभिनय भी प्रभावित करने वाला है।