17-Oct-2014 09:16 AM
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कर्नाटक हाईकोर्ट के न्यायाधीश ए.वी. चंद्रशेखर ने जब जयललिता की जमानत की अर्जी ठुकराते हुए उन्हें जेल में ही बने रहने का आदेश दिया उस समय तक अन्ना द्रमुक के कई कार्यकर्ता मिठाई खा

चुके थे। कार्यकर्ताओं को गलतफहमी थी कि सरकारी वकीलों ने जयललिता की जमानत की अपील का विरोध न करने का फैसला किया है, इसलिए अम्मा बड़ी आसानी से जेल के बाहर आ जाएंगी। उन्हें जाने-माने वकील रामजेठमलानी पर भी भरोसा था, जिनकी सफलता की दर कुछ ज्यादा ही है और वे कुख्यात लोगों को बचाने के लिए कुख्यात हैं।
लेकिन न तो रामजेठमलानी का जादू चला और न ही सरकारी वकीलों का हथियार डालना कारगर सिद्ध हुआ। जयललिता की जमानत निरस्त कर दी गई। अब सुप्रीम कोर्ट से जयललिता ने स्वास्थ्य के आधार पर जमानत मांगी है जिस पर निर्णय आना बाकी है। हाई कोर्ट के अनापेक्षित फैसले ने उन लोगों के मुंह का स्वाद कड़वा कर दिया, जो खुशी के मारे कई किलो मिठाई निगल चुके थे। दूसरी तरफ उन लोगों को भी निराशा हुई जो बड़े
जलसे की तैयारी में थे। तमिल फिल्म जगत की एक गुमनाम सी अभिनेत्री माया ने तो अपनी बेटी के साथ पुलिस स्टेशन के बाहर ही कैरोसिन से स्नान कर लिया और जब तक आग नहीं लगाई जब तक कि पुलिस बचाने नहीं आ गई। इस नौटंकी से इस अभिनेत्री को थोड़ी पब्लिसिटी भी मिल गई।
बहरहाल जयललिता को जमानत न मिलने के कारण राज्य में कानून व्यवस्था चरमरा गई है और पीएमके ने धारा 355 लगाने की मांग की। इस धारा के तहत केंद्र किसी राज्य पर नियंत्रण के लिए ज्यादा शक्ति अपने हाथ में ले लेता है। लेकिन भाजपा सरकार शायद ही ऐसा कोई नासमझी भरा कदम उठाएगी क्योंकि मोदी तो जबसे सत्तासीन हुए हैं, केंद्र का शिकंजा कम करने में जुटे हुए हैं। योजना आयोग का खात्मा इसी का पहला चरण है। ज्यों-ज्यों जयललिता की जमानत की अवधि लंबी होती जा रही है, तमिलनाडु में राजनीतिक समीकरण बेहद तेजी से बदलने लगे हैं। द्रविड़ सियासत वाले दो दलों के बीच बटी तमिलनाडु की राजनीति अब बहुकोणीय होने के प्रबल आसार दिख रहे हैं। सजा की घोषणा होते ही जयललिता के पास अब खड़ाऊं शासन चलाने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा है। जयललिता की पार्टी में उनके बाद बाकी सभी नेता बेहद बौने हैं।
हालांकि, समस्या या प्रभाव तात्कालिक नहीं, बल्कि दूरगामी है। जयललिता के जेल में रहने के बाद अन्नाद्रमुक एकजुट रह पाएगी या बिखर जाएगी, यह भविष्य के गर्भ में है। खास बात यह है कि यह घटनाक्रम ऐसे समय में हुआ है, जबकि तमिलनाडु में जयललिता के सामने कोई राजनीतिक चुनौती ही नहीं दिख रही थी। उनके चिर व कट्टर प्रतिद्वंद्वी द्रमुक परिवार में आपस में ही महाभारत छिड़ी हुई है। द्रमुक सुप्रीमो करुणानिधि शारीरिक रूप से अशक्त हैं और वह धीरे-धीरे राजनीति से खुद को किनारे कर रहे हैं। परिवार में बगावत है, क्योंकि उन्होंने कमान छोटे बेटे एम.के. स्टालिन को थमा दी है। बड़े बेटे एम.के. अलागिरी और बेटी कनीमोरी समेत परिवार के अन्य सदस्य इस फैसले के खिलाफ मुखर हैं। अलागिरी तो पार्टी से बाहर भी निकाले जा चुके हैं। इस पारिवारिक कलह का ही नतीजा था, कि लोकसभा चुनाव में द्रमुक खाता तक नहीं खोल सकी थी। बारी-बारी से करुणा और जया के बीच लगभग आधी सदी से बंटती रही तमिलनाडु की सियासत नए घटनाक्रम से बदल सकती है।
पॉलिटिकल पंडित इस बात से भी इन्कार नहीं कर रहे हैं कि तमिलनाडु की जुनूनी सियासत में जयललिता समर्थक कुछ अप्रिय कर गुजरें। अपने नेता के लिए आत्मदाह करने से लेकर जीभ या हाथ की नसें काटने जैसे वाकये बेहद आम रहे हैं। नेताओं या फिल्म स्टारों के मंदिर तो तमिलनाडु में जगह-जगह बने हैं। मौजूदा राजनीतिज्ञों में जयललिता के ही सबसे ज्यादा मंदिर हैं। ऐसे में राष्ट्रीय दलों के लिए भले ही तमिलनाडु की सियासत में करीब 50 साल बाद पैर जमाने का मौका दिख रहा हो, लेकिन यह इतना आसान नहीं होगा। ध्यान रहे कि 1967 में कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री एम. भक्तवत्सलम थे। उसके बाद से लगभग आधी सदी से द्रमुक या अन्नाद्रमुक के बीच ही सत्ता बंटती रही। आधा दर्जन से ज्यादा क्षेत्रीय दल भी उभरे, लेकिन वे सिर्फ तमिलनाडु के छोटे-छोटे क्षेत्र के ताल्लुकदार ही रहे।
-Bindu Mathur