11-Nov-2014 06:06 AM
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चुनाव आयोग ने झारखंड और जम्मू कश्मीर में चुनाव की घोषणा कर दी है। दोनों ही राज्यों में पांच चरण में वोटिंग होगी। पहले चरण की वोटिंग 25 नवंबर को होगी। फिर 2, 9, 14 और 20 दिसंबर को वोटिंग होगी। 23 दिसंबर को नतीजे घोषित होंगे। नई सरकार भी तभी अस्तित्व में आएगी। दोनों राज्यों में कांग्रेस समर्थन से सरकार चल रही है। यहां कांग्रेस हारी, तो ऐसा पहली बार होगा जब पूरे देश में कांग्रेस से ज्यादा
भाजपा समर्थित सरकारें होंगी। भाजपा के पास अभी केंद्र और 9 राज्य हैं, जबकि कांग्रेस के पास 11 छोटे राज्य।
झारखंड में तो चुनाव तय था, किंतु जम्मू कश्मीर में चुनाव का विरोध शुरू हो गया है। दीपावली के दिन जब प्रधानमंत्री ने श्रीनगर जाकर 745 करोड़ रुपए के राहत पैकेज की घोषणा की, तो कश्मीर के राजनीतिज्ञों ने इसकी भरसक आलोचना की। लेकिन अब चुनाव की घोषणा ने उन्हें और मुुखर कर दिया है। सभी राजनीतिक दल यह मानकर चल रहे थे कि राज्य के अधिकांश इलाकों में पानी भरा हुआ है, ऐसे में चुनाव सर्वथा अनुचित है। चुनाव आयोग को भी परेशानी जाएगी। लेकिन चुनाव की घोषणा ने सियासी तूफान ला दिया है। सबसे ज्यादा विरोध नेशनल कांफ्रेंस कर रही है क्योंकि उसे अपनी सत्ता खिसकती दिखाई दे रही है। किंतु नेशनल कांफ्रेंस के कड़े विरोध को दरकिनार करके भारतीय चुनाव आयोग ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा के लिए पांच चरणों के चुनावों की तारीख का ऐलान कर दिया। सितंबर में आई बाढ़ ने जम्मू-कश्मीर में बड़े पैमाने पर तबाही मचाई और राजधानी श्रीनगर को तो लगभग बर्बाद कर दिया। इसीलिए चुनाव करवाना बड़ी बहस का मुद्दा बनता जा रहा था।
जम्मू-कश्मीर विधानसभा का छह साल का कार्यकाल 19 जनवरी को खत्म हो रहा है। बहस इस बात पर थी कि क्या ऐसी स्थिति में चुनाव करवाना सही होगा, जब हजारों बाढ़ पीडि़तों के पास अब भी रहने का ठिकाना नहीं है। सिर्फ सत्तारूढ़ नेशनल कांफ्रेंस ही नहीं बल्कि कई नागरिक संगठन भी इस स्थिति में चुनाव करवाने के खिलाफ थे। नेशनल कांफें्रस का कहना था कि चुनाव को फिलहाल टाल देना चाहिए ताकि राहत और पुनर्वास कार्यों पर ध्यान दिया जा सके। हालांकि नेशनल कांफे्रेंस की सहयोगी कांग्रेस समेत अन्य पार्टियां वक्त पर चुनाव करवाने के हक में हैं। अब चूंकि चुनाव आयोग ने चुनाव करवाने की घोषणा कर दी है, इसलिए बहस अब चुनाव संचालन और इसमें भाग लेने में बदल गई है। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने संकेत दिए हैं कि चुनाव में हिस्सेदारी कम हो सकती है और कुछ लोगों का भी यही मानना है। हालांकि अन्य राजनीतिक दलों का मानना है कि बाढ़ और बाढ़ के बाद सरकार के असंतोषजनक प्रदर्शन के चलते लोग बदलाव के लिए बड़ी संख्या में मतदान कर सकते हैं। चुनाव का विरोध करने वाले अलगाववादी राजनीतिक दल चुनावों के बहिष्कार के अपने अभियान को गति दे सकते हैं। राहत और पुनर्वास कार्यों में देरी से लोगों में काफी रोष है और अलगाववादी दल इसे भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे और कोशिश करेंगे की कम से कम लोग मतदान करने निकलें।
आश्चर्यजनक रूप से राष्ट्रपति शासन की मांग की जा रही है, क्योंकि ज्यादातर लोगों का मौजूदा व्यवस्था से विश्वास उठ गया है और उन्हें इस शासन के तहत राहत और पुनर्वास कार्यों पर भरोसा नहीं है। कश्मीर पर नजर रखने वालों को लगता है कि यह समय चुनाव के लिए बहुत अच्छा नहीं है, क्योंकि इससे पहले ही त्रस्त जनता पर और बोझ पड़ेगा। लेकिन वर्तमान सरकार की विफलता को देखते हुए इस स्थिति में
चुनाव करवाना एक अनिवार्य बोझ बन गया है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ज्यादा लोगों के अनुकूल सरकार आ सके, जो पुनर्वास प्रक्रिया को ज्यादा बेहतर ढंग से और पारदर्शी ढंग से निपटा सके।
उधर झारखंड में भी चुनाव की संभावना ने राजनीतिक दलों को सक्रिय कर दिया है। लोकसभा चुनाव की दृष्टि से विश्लेषण करें, तो भाजपा स्पष्ट बहुमत पाती दिख रही है। लेकिन विधानसभा चुनाव में मुद्दे थोड़े अलग होते हैं। ये तय है कि कांग्रेस अकेले इन चुनाव में नहीं जाएगी, वह गठबंधन करके ही लड़ेगी। लेकिन कांग्रेस का गठबंधन दयनीय स्थिति में है। वहीं भाजपा में मुख्यमंत्री पद को लेकर दौड़-धूप शुरू हो चुकी है। देखना है कांग्रेस का गठबंधन भाजपा को कितनी टक्कर देता है।
