17-Oct-2014 09:13 AM
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राजस्थान की रानी वसुंधरा इन दिनों तल्ख मूड में हैं। उपचुनाव की पराजय ने उन्हें आईना दिखा दिया था और उनके विरोधियों ने कहना शुरू कर दिया था कि वसुंधरा का जादू खत्म हो गया है।

विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव की जीत मोदी लहर के कारण मिली थी। वसुंधरा के कानों में यह बात इतनी बार सुनाई दी, कि उन्होंने खींझ कर जयपुर में एक जनसभा में कह ही डाला कि कोई व्यक्ति इस गुमान में न रहे कि उसकी वजह से राजस्थान में लोकसभा की 25 सीटें आई हैं। जाहिर है, निशाना मोदी की तरफ था। मोदी से नाराजगी की शुरुआत तो उस वक्त ही हो गई थी, जब 25 लोकसभा सीट देने वाले राजस्थान से मात्र 1 व्यक्ति को राज्यमंत्री बनाया गया। विश्लेषकों का मानना है, कि इसी उपेक्षा के कारण उपचुनाव में 4 में से 3 सीटें भाजपा हार गई। हालांकि इससे भाजपा के संख्या बल पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन आने वाले समय में यह असंतोष दुखदायी हो सकता है।
वसुंधरा की दुविधा यह है कि जिस तरह वे लोकसभा में क्लीन स्वीप का श्रेय मोदी को नहीं देना चाहतीं, उसी तरह विधानसभा उपचुनाव की पराजय का ठीकरा भी मोदी सरकार के सिर पर नहीं फोड़ सकतीं। यदि जीत वसुंधरा की है, तो पराजय भी उन्हीं की होगी। इसीलिए उपचुनावी परिणामों ने वसुंधरा की जो खिन्नता बढ़ा दी थी, उसमें दिन-दूनी रात-चौगुनी वृद्धि हो रही है और इस आग में घी डालने का काम किया है पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने। दिल्ली में वसुंधरा राजे 3 दिनों तक डेरा जमाए बैठी रहीं, लेकिन अमित शाह ने चुनावी व्यस्तता का हवाला देकर वसुंधरा को मिलने का समय नहीं दिया। किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री की यह घोर उपेक्षा ही मानी जाएगी, पर इसका कारण दूसरा है। केंद्रीय नेतृत्व राजस्थान में वसुंधरा के कद के ही एक-दो नेता और खड़े करना चाहता है। ताकि संतुलन बना रहे और वसुंधरा के निरंकुश स्वभाव पर अंकुश लगाया जा सके। वैसे भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ वसुंधरा को ज्यादा पसंद नहीं करता है। लेकिन राजस्थान की राजनीति की तासीर थोड़ी अलग है। मध्यप्रदेश, गुजरात जैसे राज्यों के उलट राजस्थान में दक्षिण पंथ अपनी जड़ें नहीं जमा पाया है। यहां भाजपा को वोट मिलते हैं, तो केवल विकास की राजनीति के चलते। इसमें भी सबसे बड़ा पेंच यह है कि भाजपा और कांग्रेस के बीच 5-5 साल में सत्ता हस्तांतरित होती रहती है। पिछले दो दशक से यह लुका-छिपी बदस्तूर चल रही है। भाजपा के लिए सुकून की बात यह है कि उसका वोट प्रतिशत पिछले दो दशक में अभूतपूर्व रूप से बढ़ा है, जबकि कांग्रेस का मत प्रतिशत लगभग स्थिर ही है। जाहिर है भाजपा की लोकप्रियता में वृद्धि का श्रेय वसुंधरा को भी जाता है, जो राज्य में भाजपा की सबसे बड़ी नेता हैं। नवंबर 2013 से पहले विपक्ष में रहते हुए वसुंधरा राजे ने कई मौकों पर केंंद्रीय नेतृत्व को यह अहसास कराया है, कि राजस्थान में उनके बगैर भाजपा का वजूद लगभग शून्य ही है। वसुंधरा की यही ताकत अब केंद्र में अमित शाह जैसे नए नेताओं को खटक रही है, जो भाजपा को एकदम नए तरीके से चलाने के ख्वाब देखा करते हैं और राजसी ठाट-बाट से लेकर राजसी शानो-शौकत के सर्वथा विरुद्ध हैं। लेकिन राजस्थान की राजनीति का मौलिकपन तो यही है, कि यहां आज भी राजे-रजवाड़ों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है और चुनावी राजनीति में भी उनका अच्छा-खासा दखल है। इसलिए राजस्थान में वसुंधरा को डिगाने से भूचाल आ सकता है, यह बात केंद्रीय नेतृत्व को भलि-भांति पता है। पर सत्ता की अपनी मजबूरी होती है और सियासी गणित भी बिठाना पड़ता है। केंद्रीय नेतृत्व वसुंधरा के समानांतर किसी राजघराने से ही उनका प्रतिद्वंद्वी तैयार करना चाहता है। सूची में कई नाम हैं, लेकिन कोई सर्वमान्य चेहरा नहीं है। वसुंधरा के बाद घनश्याम तिवाड़ी और रामदास अग्रवाल जैसे नेता ही बचते हैं, जिन्हें केंद्रीय नेतृत्व ने महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव में प्रचार के लिए बुलाया है और वसुंधरा के मुकाबले ज्यादा तवज्जो दी है। लेकिन इससे कोई विशेष फर्क नहीं पडऩे वाला, क्योंकि ये नेता उतना बड़ा कद नहीं रखते। कभी सुराज संकल्प यात्रा के समय राजस्थान में मोदी को वसुंधरा ने पर्याप्त तवज्जो नहीं दी थी, आज वसुंधरा को भी आईना दिखा दिया गया है। देखना है इस तल्खी का परिणाम क्या होता है? क्या आने वाले दिनों में कुछ मंत्रियों के विभाग बदले जाएंगे या मंत्रिमंडल में फेरबदल होगा? वसुंधरा शांत बैठने वाली नहीं हैं। वे कुछ न कुछ संदेश अवश्य आलाकमान तक पहुंचाएंगी। संभवत: हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावी नतीजे वसुंधरा को और मुखर होने का अवसर देंगे।
-R.K. Binnani