16-Jul-2014 07:31 AM
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राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने नरेन्द्र मोदी को चि_ी लिखकर मनरेगा एक्ट में बदलाव की मांग कर डाली है। इससे अब यह आशंका पैदा हो रही है कि मोदी सरकार यूपीए की लोक-लुभावन

योजनाओं में तब्दीली कर सकती है या उनके स्थान पर नयी योजनाऐं ला सकती है। वसुंधरा राजे का कहना है कि वह रोजगार गारंटी के विरूद्ध नहीं हैं किंतु उनका मत है कि मनरेगा स्थानीय जरूरतों के हिसाब से हो। वसुंधरा की इस पहल ने कांग्रेस को नाखुश कर दिया है, कांग्रेस ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण करार देते हुए कहा है कि मनरेगा जैसी योजना को बंद करना राष्ट्रहित में नहीं होगा। उधर गैर-सरकारी संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी राजे की मांग की निंदा की है। यूपीए-1 के कार्यकाल में 2006 में जब मनरेगा एक्ट की शुरूआत की गयी थी उस वक्त भाजपा ने भी इसके पक्ष में वोट दिया था और यूपीए की दोबारा वापिसी में मनरेगा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ग्रामीण गरीबों के जीवन-स्तर में भी सुधार आया। लेकिन बाद में इस जादुई योजना का जादू उतरने लगा।
मनरेगा से ग्रामीण इलाकों में लोगों को काम तो जरूर मिला, लेकिन कुछ राज्यों में इस योजना में कई फर्जीवाड़े भी सामने आए। पिछले साल कैग की रिपोर्ट में मनरेगा में लूट का बड़ा खुलासा भी किया गया था। नैशनल ऑडिटर कैग रिपोर्ट के मुताबिक, करीब सभी राज्यों में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के क्रियान्वयन में भारी अनियमितताएं बरती गईं थीं। मनरेगा के फंड का इस्तेमाल उन कामों के लिए किया गया, जो इसके दायरे में नहीं आते थे। कैग के मुताबिक, मनरेगा में 13,000 करोड़ रुपये की बंदरबांट हुई थी और इसका लाभ भी सही लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा था।
कैग ने 14 राज्यों में ऑडिट के दौरान पाया थाा कि सवा चार लाख जॉब कार्ड्स में फोटो नहीं थे, यानी वे फर्जी थे। 1.26 लाख करोड़ रुपये के 129 लाख प्रॉजेक्ट्स को मंजूरी दी गई, लेकिन इनमें से सिर्फ 30 फीसदी में ही काम हुआ। ऑडिटर ने यह भी पाया था कि 2,252 करोड़ रुपये ऐसे प्रॉजेक्ट्स के लिए आवंटित कर दिए गए, जो नियम के मुताबिक मनरेगा के तहत नहीं आते थे। सीएजी का यह भी कहना था कि मनरेगा से छोटे राज्यों को फायदा हुआ है, लेकिन बड़े राज्य जैसे असम, गुजरात, बिहार, यूपी, कर्नाटक, राजस्थान, बंगाल और महाराष्ट्र को कोई खास फायदा नहीं हुआ था। यूपी, महाराष्ट्र और बिहार में 46 फीसदी लोग गरीब हैं, लेकिन सिर्फ 20 फीसदी फंड का ही लाभ उन लोगों को मिला था। कैग के मुताबिक, मार्च 2011 में इस योजना के तहत करीब 1960.45 करोड़ रुपये निकाला गया, जिसका कोई हिसाब नहीं था। सबसे ज्यादा फर्जी मनरेगा के मजदूर कर्नाटक में पाए गए थे। इस स्कीम के तहत काम करने वाले मजदूरों को पेमंट भी देरी से किया जा रहा था और इसका कोई मुआवजा भी नहीं दिया जा रहा था। कैग की रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई थी कि करीब 54 फीसदी ग्राम पंचायतों में रिकॉर्ड्स सही तरीके से नहीं मैनेज किया जा रहा था। केंद्र सरकार द्वारा इस स्कीम की मॉनिटरिंग से भी कैग संतुष्ट नहीं था।
क्या है वसुंधरा राजे की चि_ी में
* इसे राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीम होना चाहिए या राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून, यह बहस और चर्चा का विषय है। दोनों परिस्थिति में स्कीम के केंद्र बिंदु होने चाहिए- दीर्घकालिक संपत्ति और आजीविका का निर्माण।
* विभागीय कामों के जरिये उत्पन्न हुए रोजगार की गिनती नरेगा में होनी चाहिए, इस आधार पर कि केवल सबसे जरूरतमंद और निर्धन लोग ही कठिन शारीरिक श्रम की तलाश में होते हैं। शहरी व ग्रामीण इलाकों में ऐसे कार्यों की गिनती होनी चाहिए प्रच्छन्न मांग की पूर्ति के लिए मुहैया कराए गए रोजगार के तहत। इससे साल में कार्यान्वित कराए जाने वाले कार्यों की संख्या के संदर्भ में विभागीय क्षमता भी बढ़ेगी।
* कार्य कुशलता और उन्नतीकरण पर किए जानेवाले खर्चे का प्रावधान भी नरेगा में होना चाहिए। इस तरह नरेगा को राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के साथ जोड़ा जा सकता है और दोनों स्कीमें एक-दूसरे से लाभान्वित हो सकती हैं।
* श्रम और सामग्री के 60:40 अनुपात को जिले स्तर पर माना जाना चाहिए। इससे विभिन्न क्षेत्रों में आवश्यकता के अनुरूप अलग-अलग कार्यों को शुरू किया जा सकेगा।
* राज्य रोजगार गारंटी परिषद को पूरी आजादी होनी चाहिए कि वह स्थानीय जरूरतों के अनुसार किसी भी कार्य को इस स्कीम में सम्मिलित कर सके।