17-Oct-2014 08:38 AM
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हाउसिंग बोर्ड के बड़े अधिकारी कहते हैं कि उनके किसी भी प्रोजेक्ट में किसी भी तरह की कोई अनुमति लंबित नहीं है, सारी बाधाएं दूर हो चुकी हैं। लेेकिन फिर भी असहनीय देरी हो रही है। इस विषय

में उनसे प्रश्र किया जाता है तो उनका उत्तर होता है कि महादेव, कीलनदेव, तुलसी अपार्टमेंट में देरी की वजह पर्यावरण की मंजूरी थी। तो फिर कोई भी अधिकारी यह कैसे कह सकता है कि किसी भी प्रकार की अनुमति लंबित नहीं है। बहरहाल उन्होंने आग्रह किया है कि उनका नाम न छापा जाए। इसलिए उनके आग्रह को मानते हुए भी बड़े दुख के साथ यह कहना पड़ रहा है कि हाउसिंग बोर्ड के जिम्मेदार अधिकारी भी विभिन्न प्रोजेक्ट में हो रही देरी पर गोलमाल ही जवाब देते हंै। अब महादेव, कीलनदेव और तुलसी अपार्टमेंट में नई तिथि दी गई है और कहा जा रहा है कि अगले वर्ष 2015 में दिसंबर तक कम्पलीट हो पाएगा। परंतु हितग्राहियों का कहना है कि दिसंबर तक पूरे होने की संभावना कम ही है। क्योंकि उन्हें हाउसिंग बोर्ड के ही अधिकारियों ने कथित रूप से सच्चाई से अवगत करा दिया है। रिवेयरा टाउनशिप में तो हाईकोर्ट से मंडल को मुंह की खानी पड़ी। अब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी लगाई है।
प्रोजेक्ट में देरी होती है तो हाउसिंग बोर्ड 8 प्रतिशत की सालाना दर पर हितग्राही को ब्याज की रकम अदा करता है और यदि हितग्राही ने किस्त देने में देरी कर दी तो 14 प्रतिशत सालाना की दर से उस पर ब्याज थोप दिया जाता है। कुल मिलाकर हितग्राही की जेब पर ही धावा बोला जाता है। पहले कहा जाता था कि हाउसिंग बोर्ड लाभ कमाने का उपक्रम नहीं है इसका मकसद जनता को नियंत्रित दरों पर आवास उपलब्ध कराना है। लेकिन अब हाउसिंग बोर्ड के अधिकारियों से पूछो तो वे साफ कहते हैं कि सरकार की तरफ से हाउसिंग बोर्ड को कोई भी पैसा नहीं मिलता है लिहाजा उसे अपने खर्चे खुद निकालने पड़ते हैं और ये खर्चे बगैर मुनाफा कमाए निकालना संभव नहीं है। किंतु मुनाफा भी किस सीमा तक? एक प्रोजेक्ट की जमीन की कीमत वर्ष 2006-2007 में 15 हजार रुपए प्रति वर्ग मीटर तय की जाती है और वह 2013-12 में 60 हजार रुपए प्रतिवर्ग मीटर हो जाती है। यानी चौगुना इजाफा। इतना तो बिल्डर भी नहीं करते। पर हाउसिंग बोर्ड के अधिकारी कहते हैं कि बोर्ड जमीनें आरक्षित करता है किंतु किसान को पैसा तो उस समय के बाजार भाव से ही दिया जाता है जब प्रोजेक्ट शुरू होता है। लेकिन हाउसिंग बोर्ड को बहुत सी जमीनें सरकार ने भी बहुत कम दामों पर दी हैं वहां भी यही माहौल है। दाम बेतहाशा बढ़ रहे हैं और प्रोजेक्ट में देरी हो रही है। पहले हाउसिंग बोर्ड के अधिकारी कहा करते थे कि टॉउन एण्ड कंट्री प्लानिंग सहित तमाम विभागों से अनुमति में ढेड़-दो साल लग जाते हैं लेकिन 2011 में ही एक सर्कुलर लाया गया था जिसमें स्पष्ट उल्लेख था कि समस्त मंजूरियों के बाद ही प्रोजेक्ट की घोषणा की जाए और प्रोजेक्ट प्रारंभ किया जाए। अब हितग्राही से पहली दो किस्तें तुरंत ले ली जाती हैं और जमीनों के दाम फ्रीज कर दिए जाते हैं। फिर भी देरी क्यों होती है? अधिकारियों का कहना है कि कई बार जिसे ठेका दिया जाता है वह ठेकेदार हाथ खड़े कर देता है, कई बार दूसरे अडंग़े आ जाते हैं। कई बार ठेकेदार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं होती कि वह प्रोजेक्ट शुरू कर सके। ऐसे हालात में प्राजेक्ट कैसे समय पर प्रारंभ हो सकता है।
सवाल यह है कि इन सब बाधाओं का खामियाजा ग्राहक क्यों भुगते? यदि ठेकेदार की आरक्षित राशि डूबती है तो वह हाउसिंग बोर्ड के खाते में जाती है, ग्राहकों को नहीं दी जाती बल्कि प्रोजेक्ट की लागत तेजी से बढ़ा दी जाती है। बनाने वाले बिल्डर्स और हाउसिंग बोर्ड के बीच क्या चल रहा है इससे जनता को क्या मतलब यदि देरी हुई है तो उसके लिए जिम्मेदार कौन है? सारे प्रदेश में हाउसिंग बोर्ड के एक भी प्रोजेक्ट समय सीमा में तैयार नहीं हो पाते। इसकी दोहरी मार ग्राहकों पर पड़ रही है उनका ब्याज डूब रहा है और उन्हें किराया देना पड़ रहा है। जबकि हाउसिंग बोर्ड निजी बिल्डरों को लाभाविंत करने के लिए प्रोजेक्टों के दाम-पर-दाम बढ़ाए जा रहा है। पिछले 6 साल में 20 से लेेकर 166 प्रतिशत तक दाम बढ़े हैं। सरकार कहती है कि वह गरीबों को 5 लाख मकान बनाकर देगी। इसके लिए अटल आश्रय योजना भी प्रारंभ की गई है। इस तरह की योजनाओंं में सही हितग्राही को लाभ मिलने की गारंटी नहीं होती। इसका सीधा-सीधा समाधान यह है कि हाउसिंग बोर्ड निजी बिल्डरों की अपेक्षा अपने दाम बहुत कम रखे। लेकिन हाउसिंग बोर्ड अब अर्फोडेबल आवास नहीं बना रहा है बल्कि नेताओं, नौकरशाहों से जुड़े भू-माफियाओंं के हित साध रहा है। कभी मध्यप्रदेश राज्य परिवहन निगम आत्मघाती अधोगति को प्राप्त हुआ था अब यही हाल हाउसिंग बोर्ड का भी है।
-Brijesh Sahu