सहकारी समितियों और भू-माफिया की साठगांठ
17-Oct-2014 08:34 AM 1234976

बॉबी छाबड़ा तो मात्र एक मोहरा है। सहकारी समितियों के माध्यम से जमीन का घालमेल करने वाले छाबड़ा से भी कहीं ज्यादा ताकतवर और सत्ता में पहुंच रखने वाले रहनुमाओं ने सहकारी समितियों की आड़ में जिस तरह लगभग दो हजार करोड़ रुपए की जमीनों का घोटाला अकेले इंदौर शहर में किया है। उससे साफ लग रहा है कि इन समितियों में अपने प्लाट खोने वाले लोग दर-दर की ठोकरे खाते रहेंगे, लेकिन उन्हें न्याय नहीं मिलेगा।
सहकारी समितियां बनाकर प्लाट हड़पने का गौरखधंधा पुराना है। अकेले इंदौर शहर में 40 ऐसी समितियां चिन्हित की गईं थी जिन्होंने गड़बड़ी करके पहले तो लोगों की जमीनें हड़पी और फिर सदस्यों को बेदखल करके उनके प्लाट बेंच डाले। लेकिन जिन फाइलों में ये गड़बडिय़ां दर्ज हैं उन फाइलों को दबा दिया गया है। इन गड़बडिय़ों को पकडऩे वाले जिम्मेदार अधिकारियों को चलता कर दिया गया और पुलिस के भी कुछ आला अफसरों ने सहकारी समितियों के कर्ताधर्ताओं को धमकाकर सौ-सवा सौ करोड़ रुपए की वसूली कर ली तथा उन्हें अभयदान दे दिया। रेवेन्यू डिपार्टमेंट ने भी खूब चांदी काटी। बाद में इंदौर में कुछ बड़े अफसरों ने भी भू-माफियाओं के साथ मिलकर अपनी जेबें गर्म की और भू-माफियाओं को भरपूर छूट दी। प्रवर्तन निदेशालय इंदौर में बॉबी छाबड़ा सहित तमाम भू-माफियाओं की जांच कर रहा है। सांवेर क्षेत्र में छाबड़ा की दो जमीनें कुर्क की जा चुकी है एक अन्य जमीन भी कुर्क की गई है। ये सारी गड़बडिय़ां सहकारी समितियों की ही आड़ में हुई।
भू-माफिया बॉबी छाबड़ा ने सर्वानंद नगर की जमीन खरीदने के मामले में कई नियमों को ताक पर रख दिया। इतना ही नहीं जब गृह विभाग ने इस सोसायटी के लोगों की शिकायतों पर कार्रवाई के लिए इंदौर के तत्कालीन एसपी को पत्र लिखा तो भी कोई कार्रवाई नहीं हुई सर्वानंद नगर रहवासी संघ के अध्यक्ष मोतीलाल खत्री की शिकायत पर गृह विभाग ने 20005 में इंदौर के तत्कालीन एसपी को निर्देश दिया था कि सर्वानंद गृहनिर्माण सहकारी संस्था की जमीन को इंदौर के भूमाफिया बॉबी छाबड़ा द्वारा हथियाने का प्रयत्न किया जा रहा है। इनके विरुद्ध कार्रवाई कर शिकायतकर्ता को सुरक्षा प्रदान करें। गृह विभाग का यह पत्र हवा हो गया और इंदौर की पुलिस चुप्पी साधकर बैठ गई। दो साल बाद बॉबी छाबड़ा ने पिपल्याराव में सर्वानंद नगर की करोड़ों रुपए की 528 हेक्टेयर जमीन मात्र 23 लाख रुपए में खरीद ली। यह अकेला उदाहरण नहीं है। ऐसे कई और मामले हैं जिनमें छाबड़ा को अगर शिकंजे में लिया जाता तो न सिर्फ प्लाॉटधारकों को राहत मिलती बल्कि कई बड़े खुलासे होते। आरोप है कि सर्वानंद नगर गृहनिर्माण सहकारी संस्था में छाबड़ा ने ही गुरनामसिंह धालीवाल को अध्यक्ष बनवाया था। धालीवाल ने ही संस्था की पिपल्याराव स्थित 528 हेक्टयर जमीन मात्र 23 लाख 09 हजार रुपए में बॉबी छाबड़ा को 2007 में बेच दी। जबकि बाजार दर से इस जमीन की कीमत करोड़ों में है। इसी जमीन पर सदस्यों को प्लॉट मिलने थे। यह तो सैंकड़ों उदाहरणों में से एक उदाहरण है। ऐसे कई मामले हैं जिनमें अधिकारियों की सांठगांठ हुआ करती थी, लेकिन बड़े अधिकारियों को साफ बचा लिया गया और आईडीए के छोटे अधिकारी अशोक जैन तथा सुरेश भंवर को मोहरा बनाया गया। सहकारी समितियों के असली गुनहगार तो अभी भी खुले घूम रहे हैं।
सहकारी समितियां एक दौर में कुकुरमुत्ते की तरह उग आई थी क्योंकि सरकार ने अर्बन सीलिंग एक्ट लागू करके जमीन की सीमा तय कर दी थी। इससे बचने के लिए भू-माफियाओं ने सहकारी समितियों का रास्ता निकाला। हजारों हेक्टेयर जमीन पर ये सहकारी समितियां रातों-रात कब्जा करके बैठ गईं। यह वह दौर था जब जमीनों के दाम आसमान पर नहीं थे और बड़े शहरों में भी आसानी से जमीनें मिल जाया करती थीं, लेकिन जैसे ही जमीनों के दाम बढऩा शुरू हुए सहकारी समितियों के भू-माफियाओं और पदाधिकारियों के रंग बदलने लगे। इस तरह शुरू हुआ सहकारी समितियों की जमीनों को हड़पने का खेल। 1990 से लेकर 2000 तक बदस्तूर यह खेल चलता रहा।  लेकिन जैसे ही वर्ष 2000 में अर्बन सीलिंग एक्ट खत्म हुआ सहकारी समितियों की असलीयत भी सामने आ गई। उस समय तक कई सोसाइटियां मृतप्राय: हो चुकी थीं। इन समितियों के दस्तावेज लेकर जिम्मेदार लोग लापता थे और हितग्राही दर-दर भटक रहे थे। कायदा तो यह था कि उस समय ही सरकार को इस जंजाल से मुक्ति पा लेनी थी, लेकिन जो लोग सहकारी समितियों पर कब्जा करके बैठे थे वे कोई और नहीं रसूखदार नेता से लेकर भू-माफिया तक थे। इसीलिए जब सहकारिता मंत्री सुभाष यादव ने इन प्रकरणों का निपटारा करने के लिए अभियान चलाया तो थोड़े बहुत मामले ही निपट पाए, लेकिन भोपाल, इंदौर जैसे शहरों में जहां जमीन सोना बन चुकी थी अधिकांश मामले नहीं निपटे। अब सहकारिता मंत्री गोपाल भार्गव कहते हैं कि वे भी भोपाल इंदौर में सुभाष यादव की तर्ज पर खुले मंच से सुनवाई करेंगे। भार्गव तीन तरह से शिकायत देख रहे हैं। उन्होंने सारे अधिकारियों से कहा है कि शिकायतों को एकत्र कर निराकरण करें, कोर्ट से संबंधित शिकायतों को छोड़कर बाकी शिकायतों का तत्काल निराकरण किया जाए। 
को-ऑपरेटिव एक्ट इतना लचीला है कि इसमें कोर्ट की शरण लेनी ही पड़ती है। एक तरह से यह वकीलों के रोजगार का साधन बन गया है। सहकारिता न्यायाधीकरण में एक रिटायर्ड अफसर को बिठा दिया जाता है, लेकिन वह ज्यूडिशियल नेचर का नहीं होता इसलिए गौरखधंधा पकड़ में नहीं आ पाता। जहां तक न्यायालय का प्रश्न है न्यायालय को दस्तावेजों के आधार पर गुमराह करने में भू-माफिया कामयाब हो चुके हैं।
सैकड़ों लोग अपनी जमीनें लेने के लिए दर-दर की ठोकरे खा रहे हैं। उन्हें फर्जी नोटिस भेजे गए जो कि उन तक पहुंचे नहीं और बाद में उनकी सदस्यता समाप्त करके उनकी जमीनें हथिया ली गई। सहकारी समिति बनाते समय जो बाइ-लॉज भू-माफियाओं ने तय किए थे उनकी आड़ में जमीन हड़पना बहुत आसान था। ज्यों-ज्यों जमीन की कीमते बढ़ी शिकायतों के अंबार लग गए। 2010 तक कई शिकायतें दर्ज हुईं।  वर्ष 2000 में जब सहकारिता एक्ट में संशोधन किया गया उस वक्त कहा गया था कि सहकारी समितियों में वरिष्ठता की सूची तय होगी और उसी आधार पर आवंटन किया जाएगा, लेकिन इसकी मॉनीटरिंग करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई। लिहाजा जो पीडि़त थे वे पीडि़त ही बने रहे। उनमें से कई भगवान को प्यारे भी हो गए। जहां तक कानूनी प्रक्रिया का सवाल है जमीन के मामलों में कानूनी निर्णय आने में दशकों बीत जाते हैं जब तक व्यक्ति के जीवन का बड़ा हिस्सा ही खत्म हो जाता है। लिहाजा लोग कानूनी पचड़ों में पडऩे से बचते हैं। इसी कारण सहकारी समितियों में घपले करने वालों की चांदी है। एक तरफ तो वे लोगों में जागरुकता की कमी का लाभ
उठाते हैं। दूसरी तरफ न्याय मिलने में हो रही देरी भी उन्हें लाभान्वित करती है। हालांकि आज सहकारी समितियां न के बराबर ही बन रही हैं, क्योंकि सहकारी सोसायटी अधिनियम 1960 की धारा 72 में विशेष प्रावधान कर दिए गए हैं, लेकिन सवाल वही है कि जो लोग पहले से पीडि़त है उनका क्या होगा।
सहकारी समितियों के माध्यम से जमीन हड़पने वाले लोग बहुत ताकतवर हैं। इनमें नेता, भू-माफिया अधिकारियों से लेकर मीडिया घराने तक शामिल हैं। इसलिए चोर-चोर मौसेरे भाई बने हुए हैं। ऐसे हालात में वास्तविक पीडि़तों को उनका हक मिलना असंभव है। क्योंकि प्रक्रिया लंबी है कानून है लेकिन कानून का पालन शीघ्रता से नहीं हो पाता। अपील करने वाले कमजोर हैं और शोषण करने वाले ताकतवर।
ऐसा नहीं है कि सरकार ने प्रयास नहीं किए। लेकिन सरकार की नींद देर से खुली। तब तक जमीनों का घोटाला हो चुका था। वर्ष 2003 मेें हाउसिंग सोसायटी के लिए मध्यप्रदेश सहकारी सोसायटी अधिनियम 1960 में धारा 74-बी का समावेश किया गया। इसके अंतर्गत सोसायटी द्वारा सदस्यों की हर जानकारी उनकी सूची आदि रखना अनिवार्य कर दिया गया था। जिन सदस्यों ने किसी सोसायटी में एक भू-खण्ड, फ्लेट या भवन ले रखा था उनके लिए यह शपथ पत्र प्रस्तुत करना अनिवार्य था कि उनका कोई दूसरा भवन, फ्लेट या भूखण्ड उस नगर पालिक क्षेत्र में नहीं है। यह प्रावधान भी किया गया कि हर गृह निर्माण सोसायटी के अधीन तैयार की गई सूची के आधार पर प्रत्येक सदस्य को समय-समय पर दो माह के नोटिस से सभी तरह के व्यय जमा कराने की सूचना दी जाएगी तथा समाचार पत्र में भी प्रेस नोट प्रकाशित किया जाएगा और इसका रिकार्ड भी सोसायटी के पास होगा।
लेकिन इस बिंदु का सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया गया। जिन सदस्यों को बेदखल किया गया उन्हें फर्जी पतों पर पत्र भेजे गए अथवा नहीं भेजे गए। समाचार पत्र में भी कोई सूचना नहीं प्रकाशित हुई और जब इन सब बातों से अज्ञान सदस्यों ने समयसीमा के भीतर चाही गई राशि जमा नहीं की तो उन्हें बेदखल करते हुए उनकी जमीनें हड़प ली गईं ये खेल चलता रहा। बाद में सरकार ने जब प्राथमिकता सूची तैयार करना अनिवार्य कर दिया तो कुछ हद तक इस घपलेबाजी में रोक लगी लेकिन तब तक कई सदस्यों को अपनी जमीनों से हाथ धोना पड़ गया था। हालांकि सरकार ने यह भी प्रावधान किया था कि रजिस्ट्रार की अनुमति के बिना सोसायटी द्वारा धारित भूमि या उसका कोई भाग नहीं बेचा जाएगा या पट्टे पर नहीं दिया जाएगा या उसका अंतरण नहीं किया जाएगा, लेकिन इस बिंदु को भी नहीं माना गया। सबसे बड़ी बात तो यह है कि सारी जानकारियां सोसायटी की वेबसाइट पर डालने की बात कही गई थी पर ऐसी कोई जानकारी सोसायटी की वेबसाइट पर है ही नहीं। एक तथ्य यह भी है कि यदि किसी सदस्य को किसी कारणवश हटा दिया गया है तो उसे अपनी सुनवाई का अधिकार है पर उसे इस अधिकार से वंचित किया ही जाता है। गृह निर्माण सोसायटी के मामले में सोसायटी की साधारण सभा के समय प्रत्येक सदस्य की उपस्थिति अनिवार्य है। ऐसा न करने वाले सदस्य पर जुर्माना किया जा सकता है, लेकिन उसे हटाया नहीं जा सकता। इस धारा में साफ कहा गया है कि यदि किसी रजिस्ट्रीकृत भूखण्ड, निवास गृह या फ्लेट को किसी अन्य व्यक्ति को दिया जाता है तो यह अपराध माना जाएगा इसी तरह सदस्यता सूची से छेड़छाड़, निर्धारित से अधिक सदस्यों को प्रवेश देना, सोसायटी की विकास योजना के अनुसार भूमि का विकास न करना, अतिक्रमण करना, स्कूल-अस्पताल-पार्क इत्यादि की जमीन को बेचना तथा भूखण्डों का आवंटन प्राथमिकता सूची के आधार पर न करना आदि सब अपराध ही हैं। इसके लिए पांच लाख रुपए के जुर्माने से लेकर कारावास तक की सजा का प्रावधान है, लेकिन इतने घपले होने के बावजूद भी किसी व्यक्ति विशेष पर न तो आज तक जुर्माना ठोका गया और न ही कोई सलाखों के पीछे गया। बल्कि जिन लोगों ने दिन दहाड़े उन लाचार और सीधे-साधे हितग्राहियों की जमीनें हड़प ली हैं वे फल-फूल रहे हैं। इन जमीनों के दाम करोड़ों में पहुंच चुके हैं। जमीनें दो-दो, तीन-तीन बार बेंची जा चुकी हैं। अभी अवश्य समाचार पत्रों में इस दिशा में कुछ रिपोर्टिंग होने के कारण हल्ला मचा है, लेकिन इससे ज्यादा फर्क पडऩे वाला नहीं है क्योंकि ये जमीनें रसूखदार लोगों के चंगुल में हैं। देखना है कि सरकार इस दिशा में कोई नया कानून लाती है अथवा नहीं।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि येन-केन-प्रकारेण हाउसिंग सोसायटियों की जमीनें हथियाकर भू-माफियाओं ने जो बड़ी-बड़ी इमारतें और कालोनियां खड़ी कर दी हैं उनका क्या होगा। उन पर निर्माण हो चुका है और बैंकों ने बाकायदा पैसे भी दिए हैं। कई लोगों ने दीर्घकालीन लोन लेकर वे जमीनें खरीदी हैं। कुल मिलाकर
मामला बहुत पेंचीदा है। एक ही सूरत है कि सरकार सभी सहकारिता पीडि़तों की एक सूची तैयार करे और उन्हें कोई वैकल्पिक व्यवस्था प्रदान की जाए, लेकिन यह सूची तैयार कैसे होगी। क्योंकि ऐसे लोगों का कोई डाटा बेस है ही नहीं। इसलिए यह लगता है कि सहकारिता को लेकर जो हंगामा उठा है वह भी कुछ दिन में शांत हो जाएगा।

 

-R.M.P. Singh

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