19-Feb-2013 11:18 AM
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उत्तराखंड भाजपा में घमासान जारी है। भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने राज्य इकाई के अध्यक्ष के रूप में तीरथ सिंह रावत की नियुक्ति भले ही कर दी हो लेकिन उनकी नियुक्ति से राज्य में गुटबाजी और तेज हो गई है। तीरथ रावत राज्य के पूर्व मुख्यमंत्रियों बीएस खंडूरी और रमेश पोखरियाल के नजदीकी माने जाते हैं, लेकिन पूर्व मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत वाला खेमा इस ताजपोशी से नाखुश है। रावत ने भी पार्टी कार्यालय में अपना नामांकन अध्यक्ष पद के लिए भरा था, लेकिन बाद में केंद्रीय पर्यवेक्षक विजय गोयल, खंडूरी, भगत सिंह कोश्यारी और रमेश पोखरियाल ने तीरथ सिंह का नाम आगे बढ़ा दिया। हालांकि गोयल तथा कोश्यारी दबे रूप से त्रिवेंद्र सिंह रावत को सहयोग भी कर रहे थे, लेकिन खंडूरी और पोखरियाल ने राजनाथ के समक्ष तीरथ रावत का नाम बड़ी प्रमुख से प्रस्तुत किया। इसी कारण वे अध्यक्ष बनाए गए। तीरथ के अध्यक्ष बनने में उनकी संघ की पृष्ठ भूमि भी काम आई, लेकिन गतिरोध अभी भी बना हुआ है और गतिरोध खत्म न होने के कारण आलाकमान असमंजस की स्थिति में है जिससे विभिन्न गुटों में बंधे नेताओं में अपनी-अपनी राजनीति करने की होड़ सी लग गई है। हालांकि यह भी सच है कि पार्टी के निर्णय को सभी नेताओं ने माना है क्योंकि वे

जानते हैं कि पार्टी के अंदर रहकर ही दबाव बनाया जा सकता है। पार्टी से बाहर आते ही उनका वजूद समाप्त हो जाएगा, लेकिन गुटों में बंटे इन नेताओं के कारण पार्टी का वजूद वैसे भी समाप्त होने की कगार पर पहुंच सकता है। कुछ समय पहले एक गुट ने सामुहिक इस्तीफे की धमकी देकर हाईकमान को ब्लैकमेल करने का खुला खेल भी खेला था, लेकिन बाद में जब दिल्ली के नेताओं ने आंखें दिखाईं तो विभिन्न खेमों में बंटे नेताओं ने अपने-अपने समर्थकों को शांत रहने का आदेश दिया और कहा कि जो आलाकमान बोलेंगे वही मान्य होगा। पार्टी भी सर्वसम्मति न हो पाने से परेशान थीं।
दिल्ली के नेताओं को इस बात की चिंता थी कि गुटबाजी ऐसी ही रही तो लोकसभा चुनाव में हालात बिगड़ सकते हैं। बीच में एक-दो बार खेमेबाजी के कारण अध्यक्ष का चनाव आगे भी बढ़ाना पड़ा था। चुनाव प्रक्रिया पर ब्रेक लगाने के लिए कोश्यारी खेमा हर तरह की कोशिश भी कर रहा था। जिस तरह के हालात प्रदेश अध्यक्ष चुनाव के पहले पैदा किए गए वह अभूतपूर्व थे। इससे सिद्ध हो रहा है कि पार्टी गुटों में बटे नेताओं के सामने ब्लैकमेल होने को विवश है। इन चुनाव में जो खेल खेला गया उससे भाजपा की प्रदेश में साख पर भी धब्बा लगा है। आम जनता में भाजपा का जनाधार पहले से ही घट चुका है और अब गुटबाजी भी भाजपा की छवि खराब कर रही है। पार्टी के नेता जिस तरह लगातार लोकतांत्रिक परंपराओं की धज्जियां उड़ा रहे हैं, उससे जनता में गलत संदेश जा रहा है। उत्तराखंड भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की छवि सत्तालोलुप बन कर उभरती रही है, राज्य गठन के उपरांत से वर्तमान समय तक भाजपा के नेताओं के कार्यो पर नजर डाले तो साफ नजर आ जाएगा कि उत्तराखण्ड भाजपा के नेताओं ने पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचाने का ही काम किया। राज्य के अस्तित्व में आने के बाद के बारह सालों के इतिहास देखें तो साफ दिखता है कि भाजपा के नेता समय आने पर अनुशासन से बाहर जाने में भी नहीं हिचकते हैं, इससे भाजपा की छवि पर गलत असर पडता है और जनता पार्टी को सत्ता में आने लायक जनादेश देने से बचने लगती है। उत्तराखंड भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव में जिस तरह गुटबाजी खुलकर सतह पर आई, उसने भाजपा की अनुशासित पार्टी की छवि को धूमिल कर दिया। यह उत्तराखण्ड भाजपा की फजीहत ही थी कि केंद्रीय पर्यवेक्षक की मौजूदगी में आलाकमान के हस्तक्षेप के बाद भी सर्वानुमति न बन पाने के कारण घोषित चुनाव प्रक्रिया को दो दिन आगे बढ़ाना पड़ा। एक तरह से आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई देने वाली पार्टी के लिए यह एक और झटका साबित हुआ। पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के हाथों सत्ता गंवाने के बाद भी भाजपा ने कोई सबक नहीं सीखा, यह सांगठनिक चुनाव को लेकर देहरादून में हुए घटनाक्रम ने साबित कर दिया। गत विधानसभा चुनाव में भी पार्टी के भीतर भारी गुटबाजी नजर आई और टिकट बंटवारे तक पर अंगुलियां उठी। एक-तिहाई सिटिंग विधायकों के टिकट कटने पर यहां तक कहा गया कि अगर टिकट सही तरीके से बांटे गए होते तो पार्टी की यह गत नहीं बनती। भाजपा ने मंडल व जिला स्तर पर सांगठनिक चुनाव निबटने के बाद तीन बार प्रदेश अध्यक्ष चुनाव का कार्यक्रम घोषित किया लेकिन फिर इसे टाल दिया। यानी शुरू से ही सर्वानुमति की कोशिशें परवान नहीं चढ़ीं। दिलचस्प बात यह है कि इसके लिए जो कारण बताया गया, कि केंद्रीय पर्यवेक्षक का स्वास्थ्य अचानक खराब हो गया, किसी को समझ नहीं आया। चर्चा तो यह भी है कि नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट की कुर्सी पर भी खतरा मंडरा रहा है, कुछ नेताओं को अजय भट्ट हजम नहीं हो रहे हैं, ऐसे में सियासी विश्लेषकों का कहना है कि राष्ट्रीय स्तर पर बदलाव का असर नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी पर भी पड़ सकता है। पार्टी के कई नेता इस कुर्सी पर नजरें गड़ाए बैठे हैं। उत्तराखण्ड भाजपा के नेता एक दूसरे को पटखनी देकर खुद नए समीकरण बिठाने की कोशिश में लगे हैं।
संजय शुक्ला