आदित्यनाथ की जगह वरुण गांधी?
03-Oct-2014 11:18 AM 1234794

योगी आदित्यनाथ की आक्रामकता ने जिस तरह उत्तर प्र्रदेश में भाजपा का कबाड़ा किया है उसे देखते हुए अब राष्ट्रीय नेतृत्व और स्थानीय स्तर पर भी यह मांग उठी है कि योगी आदित्यनाथ को परदे के पीछे धकेला जाए और किसी नए चेहरे को फे्रम में लगया जाए। वरुण गांधी तो खुलकर आदित्यनाथ का विरोध कर रहे हैं और दूसरे लीडर भी अब आदित्यनाथ को बर्दाश्त करने के मूंड में नहीं हैं। मुख्तार अब्बास नकवी और शाह नवाज हुसैन ने तो कथित रूप से यह तक कह दिया है कि जिस मंच पर योगी बैठेंगे वे उस सभा में नहीं जाएंगे। यह बहिष्कार भाजपा के लिए चिंता का विषय हो सकता है क्योंकि उत्तरप्रदेश में भाजपा एक दौर में सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी लेकिन केंद्रीय नेतृत्व की कुछ गलतियों के चलते मामला उलट हो गया। अब लोकसभा चुनाव में भारी जीत हासिल करने वाली भाजपा उपचुनावी पराजय से सकते में है और एक नई रणनीति पर काम कर रही है इससे यह बात साफ हो गई है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को किसी ऐसे चेहरे को आगे लाना होगा, जो सर्वस्वीकार्य हो तथा जनता के बीच पहुंच व पकड़ रखता हो। हालांकि पार्टी के पास प्रदेश स्तर पर मौजूदा सक्रिय टीम को देखते हुए यह तलाश काफी मुश्किल दिख रही है। जो चर्चित चेहरे हैं, उनमें सबके सब लगभग आजमाए जा चुके हैं। कल्याण सिंह के कालखंड के बाद लगभग डेढ़ दशक से पार्टी के लिए यह तलाश लगातार चुनौती बनी हुई है।
इससे पार पाने के लिए पार्टी नेतृत्व ने कई फैसले व प्रयोग किए लेकिन वे सभी अंतत: फेल साबित हुए। ऐसे में पार्टी आलाकमान वरुण गांधी को फ्रंटफुट पर लाने पर विचार कर सकता है। केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने भी वरुण गांधी को भाजपा की राजनीति की मुख्य धारा में उतारने की बात उठाकर बदलाव की बात को हवा दे दी है। वरुण एक तरफ पार्टी का जाना पहचाना चेहरा तो हैं ही उन्होंने लोकसभा चुनाव में भी जीत दर्ज की है। इसके अलावा भी अन्य कई वजहें हैं, जिससे यूपी में पार्टी का नेतृत्व उन्हें सौंपा जा सकता है।
भाजपा के लिए चेहरे की तलाश इसलिए और जरूरी हो गई है, क्योंकि उपचुनाव के नतीजों ने साफ कर दिया है कि लोकसभा चुनाव में यूपी में भाजपा को 80 में 71 सीटें मिलने के पीछे पार्टी की लोकप्रियता से ज्यादा अहम नरेंद्र मोदी पर लोगों का भरोसा रहा। विधानसभा उपचुनाव में उन्हें भाजपा का कोई चेहरा ऐसा नहीं लगा। लिहाजा उन्होंने फिर दूरी बना ली। इस स्थिति ने भाजपा के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। संदेश साफ है कि 2017 के चुनाव में जनता तभी भरोसा करेगी जब पार्टी किसी भरोसेमंद चेहरे को आगे करे। पार्टी ने अब तक जिन लोगों को आगे रखा है, उनमें कोई पिछड़ा व दलित चेहरा ऐसा नहीं है जो अपने-अपने वर्गों के बीच पकड़ व पहुंच रखने का भरोसा पैदा करता हो। योगी आदित्यनाथ के रूप में उपचुनाव में हिंदुत्ववादी भगवा चेहरे के जरिये लोगों का भरोसा जीतने की कोशिश को झटका देकर जनता ने जता दिया है कि उसे ऐसा चेहरा चाहिए जो मोदी की तरह हिंदुत्व व विकास का संदेश एक साथ देता दिखे। पिछले डेढ़ दशक में पार्टी का नेतृत्व संभालने वालों को ऐसा रोग लगा है कि वे किसी जनाधार वाले और जमीनी राजनीति करने वाले कार्यकर्ता को आगे आने ही नहीं देना चाहते।
जब तक इसमें सुधार नहीं होगा, तब तक पार्टी को चुनौतियों से निजात दिलाना दिवास्वप्न ही बना रहेगा। वर्ष 2002 में कलराज मिश्र ने यह कहते हुए, भाजपा को दूसरे नहीं, अपने ही हराते हैं। पराजय के लिए कार्यकर्ता नहीं बल्कि नेताओं की महत्वाकांक्षा जिम्मेदार है। जब तक हमारी आपस की गुटबाजी व टांग खिंचाई बंद नहीं होगी, तब तक उत्तर प्रदेश में हम लगातार मात खाते रहेंगेÓ अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। तब से अब तक भाजपा ने सूबे में वापसी के लिए कई प्रयोग किए, पर सारे प्रयोग फेल रहे। गुटबाजी व टांग खिंचाई दूर होने के बजाय और बढ़ गई। ऐसे में पार्टी वरुण के साथ नया प्रयोग कर सकती है। कलराज के बाद विनय कटियार पर दांव लगाकर हिंदुत्व को धार व कट्टरवादी चेहरे की मदद से वोट हासिल करने का प्रयोग हुआ था। कटियार ने तेवर दिखाने शुरू किए तो मायावती के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार का हवाला देकर उनके तेवरों पर अंकुश लगाने की कोशिश हुई। मंत्रिमंडल में शामिल होने की महत्वाकांक्षा जगाकर पार्टी में विद्रोह करा दिया गया। इस विद्रोह के पीछे पार्टी के ही एक बड़े नेता का हाथ होने की बात चर्चा में आई। वर्ष 2004 आते-आते कटियार भी अपना प्रभाव गंवा बैठे। लोकसभा चुनाव में फेल हुए और उनकी जगह केशरीनाथ त्रिपाठी को अध्यक्ष बनाया गया। उनके समय में भी इतनी खींचतान हुई कि वे भी फेल हो गए और 2007 के विधानसभा चुनाव के बाद उनकी जगह डॉ. रमापति राम त्रिपाठी के रूप में संगठन की जानकारी रखने वाले ब्राह्मण चेहरे को लाया गया, पर वे भी खींचतान पर काबू नहीं कर पाए। लोकसभा चुनाव 2009 में उनकी भी नीति, रणनीति व फैसले फेल हो गए। त्रिपाठी के बाद सूर्यप्रताप शाही को बागडोर सौंपी गई। उनके हर प्रयोग पर सवाल उठे। बाबूसिंह कुशवाहा को पार्टी में शामिल कराने को लेकर भी उनकी फजीहत हुई। 2012 के विधानसभा चुनाव में शाही का नेतृत्व भी फेल हो गया। उनके बाद डॉ. लक्ष्मीकांत वाजपेयी के रूप में फिर
ब्राह्मण चेहरा लाकर कल्याण सिंह के बाद
पहली बार पश्चिम को संगठन की कमान सौंपी गई। रणनीतिकारों का मानना था कि पूरब से ही अध्यक्ष बनाए जाने से पश्चिम में नाराजगी बढ़
रही है, लेकिन वाजपेयी भी विवादों से बच नहीं पाए। उन पर भी गणेश परिक्रमा करने वालों को तवज्जो और मनमाने तरीके से अपने लोगों को
पद व प्रतिष्ठा देने के आरोप लग रहे हैं।
जबकि वरुण का नाम किसी भी तरह की गुटबाजी में नही आया।
राजनीतिक समीक्षकों का कहना है कि मेनका गांधी वरुण गांधी के भविष्य को लेकर काफी चिंतित हैं। चूंकि इस समय भाजपा पराजित हुई है और मेनका जानती हैं कि यही वह मौका है जब भाजपा नेताओं पर दबाव बनाया जा सकता है। इसलिए उन्होंने वरुण की वापसी की बात उठा दी। मेनका का मकसद है कि पार्टी नेता वरुण को दोबारा एंट्री न भी दें तो भी लोगों के बीच यह बात पहुंचा दी जाए कि पार्टी के भीतर किस तरह एकतरफा फैसले लिए जा रहे हैं। कानपुर सहित कुछ जगह वरुण के समर्थन में होने वाले प्रदर्शन मेनका की मंशा पूरी करते हुए भी दिख रहे हैं। इनमें से कई मानकों पर वरुण गांधी भले ही खरा न उतरते हों लेकिन वह पार्टी की जरूरत को काफी हद तक पूरा करते नजर आते हैं। सोशल मीडिया पर भी उत्तर प्रदेश के कुछ नेताओं के पक्ष में जबरदस्त कैंपेन किया जा रहा है। इनमें वरुण गांधी, राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह, योगी आदित्यनाथ, यूपी बीजेपी अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी का नाम है। कल्याण सिंह के बेटे राजवीर के समर्थक भी अपनी ओर से ताकत झोंक रहे हैं। दो साल बाद विधानसभा चुनाव
होने हैं। लोकसभा चुनाव में यूपी में परचम लहराने के बाद बीजेपी के हौसले बुलंद हैं, लिहाजा विधानसभा चुनाव में सीएम उम्मीदवार के लिए अभी से माहौल बनाने का काम शुरू
हो गया है।
नए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की टीम के ऐलान के बाद भी सोशल मीडिया पर वरुण गांधी के नाम को बल मिला है। समर्थकों का अनुमान है कि वरुण को केंद्रीय टीम में जगह न मिलने की एक वजह यह भी हो सकती है कि पार्टी ने उनके लिए दूसरी जिम्मेदारी चुन रखी हो। वरुण गांधी के औपचारिक वेरिफाइड फेसबुक अकाउंट से भी ऐसी खबरें शेयर की जा रही हैं, जिनमें उन्हें संभावित सीएम उम्मीदवार बताया गया है। गृह मंत्री राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह की उम्मीदवारी मजबूत करने के लिए सीएम फॉर यूपी फैन्स क्लब नाम से फेसबुक अकाउंट बनाया गया है। दिलचस्प बात यह है कि पंकज ने अब तक एक भी चुनाव नहीं लड़ा है। पंकज ने पीटीआई से कहा, मैं सभी उत्साही समर्थकों से कहना चाहूंगा कि एक नेता को प्रोजेक्ट करने के बजाए पार्टी की राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रचार करें। हालांकि एक फेसबुक पेज अमित शाह फॉर सीएम नाम से भी बना है जिसे करीब 2500 लोग लाइक करते हैं।

क्या है विवाद
उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने सांप्रदायिकता की फसल काटनी चाही। उन्हें लगा कि जिस तरह केसरिया बाना पहनकर उमाश्री भारती मध्यप्रदेश की सत्ता पर आसीन हो गईं थीं वैसे ही वे केसरिया वेश धारण कर अपनी धार्मिक छवि के भरोसे उत्तरप्रदेश के मतदाताओं को मूर्ख बनाने में कामयाब हो जाएंगे, लेकिन जनता ने तो एमपी की मूर्ख है न यूपी की। एमपी की जनता ने उमाश्री को इसलिए चुना क्योंकि वह दिग्विजय के कुशासन से त्रस्त हो चुकी थी और उमाश्री ने विकास की राह इस प्रदेश की जनता को दिखाई थी, लेकिन योगी आदित्यनाथ लव जेहाद से लेकर दंगों का राग अलापते रहे। लव जेहाद क्या है क्या कोई किसी से धर्म, जाति या संप्रदाय पूछकर प्रेम करता है। यह दांव उल्टा पड़ गया। भारत की जनता इतनी समझदार हो चुकी है कि उसे अच्छा बुरा दिखाई पड़ता है। बुरा क्या है यह भाजपा भी भांप चुकी है। लिहाजा भाजपा में उत्तरप्रदेश के मंच पर नायक किसे बनाया जाए इस बात को लेकर गहरा मंथन चल रहा है। आने वाले समय में कोई चेहरा सामने आ सकता है वह अवश्य ही योगी आदित्यनाथ का नहीं होगा। जहां तक वरुण गांधी का प्रश्न है उनके मत्थे भी कई आरोप हैं और जहर उगलने के लिए वे भी विख्यात हैं। यदि वरुण को आगे लाना है तो उन्हें सही भाषा भी सिखानी पड़ेगी। उत्तरप्रदेश जैसे प्रदेश का नेतृत्व कोई मृदुभाषी, समझदार, दूरदर्शी और युवा नेता ही कर सकता है। क्योंकि यह प्रदेश उतना भावुक नहीं है जितना समझा जाता है।

 

-Madhu Alok Nigam

FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^