03-Oct-2014 11:27 AM
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तुम भी टूटो हम भी टूटें,
टूटन हो अलग-अलग।
राहें हों अलग-अलग,
मंजिल हो अलग-अलग।। गठबंधनों की गाठें खुलने लगीं। लोकसभा चुनाव से पहले यूपीए बिखरा और लोकसभा चुनाव से लेकर अब तक एनडीए के टुकड़े-टुकड़े हो गए। केंद्र सहित कई राज्यों की सत्ता पर काबिज एनडीए और यूपीए अब अपना विस्तार समेटने लगे हैं। कांग्रेस के तो कई मौकापरस्त साथी समय-समय पर टूटते ही रहे हैं। पहले थ्री-जी प्रकरण में द्रमुक सहित कुछ साथियों ने साथ छोड़ा फिर 2014 के लोकसभा चुनाव में रामविलास पासवान जैसे मित्रों ने किनारा कर लिया। उससे पहले परमाणु करार पर यूपीए-वन के समय कम्यूनिस्टों ने गठबंधन को अलविदा कह दिया था।
लेकिन इस बार महाराष्ट्र में जो हुआ और मौके की नजाकत को देखने के बावजूद 4 प्रमुख पार्टियों ने 4 अलग दिशाओं में अपने-अपने चुनावी रथ को दौड़ा दिया, उससे स्पष्ट हो चुका है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों फिलहाल गठबंधन की राजनीति से मुंह मोडऩे लगी हैं। भाजपा गठबंधन की गाठें इसलिए खोल रही है, क्योंकि उसे अपनी अलग ताकत बनाने का आत्मविश्वास आ चुका है और कांग्रेस गठबंधनों को इसलिए नकार रही है, क्योंकि गठबंधन उसके अस्तित्व को ही नकारने लगे हैं। कांग्रेस के लिए निश्चित रूप से गठबंधन में रहना या न रहना उसके अस्तित्व से जुड़ा है। देखा जाए तो किसी भी बड़े राज्य में कांगे्रस की मौजूदगी नहीं है। बिहार, उत्तरप्रदेश में वह शून्य है। गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान में दो-ध्रुवीय राजनीति में वह पिछड़ी हुई है। पंजाब, उत्तराखंड जैसे छोटे-छोटे राज्यों में और पूर्वोत्तर के कुछ एक राज्यों में तथा दक्षिण में केरल में उसकी मौजूदगी अवश्य है। यह भी सत्य है कि उसे देश के हर भाग से वोट मिलते हैं। हर जिले, हर शहर, हर गांव में उसके वोटर हैं लेकिन फिर भी कांगे्रस वेंटिलेटर पर है। इसलिए कांग्रेस के समक्ष अपने अस्तित्व को अलग पार्टी के रूप में बनाए रखने की चुनौती है, जिसे कांगे्रस के रणनीतिकारों ने नो-कंप्रोमाइज के तहत आगे बढ़ाया है। 1984 के लोकसभा चुनाव में 49.1 प्रतिशत वोट पाने वाली कांग्रेस, अब देश भर में महज 19.3 प्रतिशत वोट पर सिमट गई है और 31 प्रतिशत वोट पाने वाली भाजपा, 282 सीटें जीतकर सत्ता में है। देखा जाए तो दोनों को मिलाकर 50.30 प्रतिशत वोट मिला है। इसका अर्थ यह है कि देश की राजनीति में क्षेत्रीय दलों की ताकत इन दोनों की संयुक्त ताकत के बराबर ही है और यदि क्षेत्रीय दल संगठित होते हैं, तो वे कांग्रेस और भाजपा को आईना दिखा सकते हैं।
लेकिन रसायन-शास्त्र में कुछ मिलावटें ऐसी होती हैं जिनका मिश्रण नहीं बन पाता। क्या वाम दल, शिवसेना के साथ जा सकते हैं? नहीं। क्या जयललिता और द्रमुक एक साथ आ सकते हैं? नहीं। क्या मायावती और मुलायम गिले-शिकवे भुला सकते हैं? नहीं। राजनीति में कुछ ऐसे तालमेल हैं, जो सामान्य परिस्थियों में असंभव ही कहलाएंगे। हालांकि यह भी तथ्य है कि राजनीति में किसी का भी तालमेल किसी से भी हो सकता है। लेकिन फिलहाल तो विभिन्न दलों की यह टूटन भाजपा और कांग्रेस का संबल है। इसी वजह से भाजपा और कांगे्रस दो-ध्रुवीय राजनीति को देश ही नहीं बल्कि प्रदेशों में भी आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं। प्रकट में दोनों दल भले ही कहें कि वे सहयोगियों को साथ लेना चाहते हैं, लेकिन असल तो यह है कि सहयोगियों को साथ लेना, अब न तो भाजपा को रास आ रहा है न कांग्रेस को।
दिलचस्प यह है कि कांग्रेस बुरी तरह असंगठित और निराशाजनक माहौल में है। लेकिन कांग्रेस के रणनीतिकारों को अब यह विश्वास हो चला है कि उनकी इस दुर्दशा का कारण गठबंधन ही है। जिस तरह छोटे-छोटे दलों के आगे कांग्रेस और भाजपा ने अपनी झोली फैलाई। उनकी उचित-अनुचित मांगें मानीं। उनकी जिद और हठधर्मिता को पोषित किया। उसके चलते देश में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया और कुशासन ने जनता को त्रस्त कर दिया। कद्चित जनता भी इस परेशानी को भांप चुकी थी, इसलिए उसने भाजपा को 282 सीटें देकर मजबूती प्रदान की और यह संदेश दिया कि क्षेत्रीय दलों के समक्ष शीश नवाने की आवश्यकता नहीं है। महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना के गठबंधन का टूटना भाजपा के इसी आत्मविश्वास का प्रकटन कहा जा सकता है। लेकिन इसके नेपथ्य में कुछ उल्लेखनीय तथ्य भी हैं। जिस तरह शिवसेना पिछले 25 वर्षों से लगातार ज्यादा से ज्यादा सीटें लेते हुए भाजपा को अपनी सब-ऑर्डिनेट बनाकर प्रदेश की सत्ता में काबिज होना चाह रही थी, उसे देखते हुए भाजपा के तमाम कार्यकर्ता और छोटे नेता घुटन महसूस कर रहे थे। कई इलाकों में भाजपा का काडर शिवसेना की अपेक्षा मजबूत हुआ करता था, लेकिन वहां के नेता टिकिट से सिर्फ इसलिए वंचित हो जाते थे क्योंकि उन्हें शिवसेना का रास्ता साफ करने के लिए बैठना पड़ता था। लोकसभा चुनाव के समय यह घुटन स्पष्ट देखी गई। उस समय भी नितिन गडकरी, उद्यव ठाकरे की बजाय राज ठाकरे के साथ गठबंधन बनाने के फार्मूले को आगे बढ़ा रहे थे, लेकिन संघ और केंद्रीय नेतृत्व के दबाव में गडकरी का यह अभियान सफल नहीं हो पाया। स्थिति बिगडऩे पर राजनाथ सिंह ने राजीव प्रताप रूढ़ी को भेजकर सुलह करवाई, लेकिन यह चिंगारी तो उस वक्त सुलग ही चुकी थी। इसे एक आग में तब्दील होना था, जो अब हो चुकी है। भाजपा के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि जिस वक्त भाजपा ने शिवसेना को 151 और स्वयं 130 सीटों पर समझौता करना स्वीकार कर लिया, उस वक्त प्रदेश में भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच भारी असंतोष देखा गया। बल्कि कुछ मायूस कार्यकर्ता तो राकांपा और कांग्रेस का रुख करने लगे। केंद्रीय नेतृत्व को इस पलायन में भारी घाटा दिखाई दिया। महाराष्ट्र में 27 प्रतिशत से अधिक वोट पाने के बावजूद भाजपा को उस शिवसेना के समक्ष झुकना पड़ रहा था, जिसे महज 20 प्रतिशत वोट मिले थे। यही कारण है कि लोकसभा चुनाव में सर्वाधिक सीट जीतने वाली भाजपा ने ज्यादा समझौता करना उचित नहीं समझा। भुसावल सीट को लेकर दोनों दलों की तकरार अंतत: गठबंधन के प्रारूप में अंतिम कील साबित हुई और दोनों ने अलग-अलग रास्ते तलाश लिए।
कभी भारतीय राजनीति में कांग्रेस के खिलाफ समूचा विपक्ष एक जुट हो जाया करता था, लेकिन तब भी इसे गठबंधन नहीं कहा गया क्योंकि उस समय सभी राजनीतिक दल बिखरे-बिखरे से रहते थे। बाद में 1962 के चुनाव में गठबंधन का सबसे पहला प्रयोग पूर्वोत्तर मेंं किया गया, जब ऑल पार्टी हिल लीडर्स कान्फ्रेंस के बैनर तले वहां के दल एकत्र हुए। लेकिन यह फार्मूला बुरी तरह फ्लॉप रहा। उन्हें केवल 1 सीट मिली और आधा प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले, लेकिन तब तक एक विचार तो अस्तित्व में आ ही चुका था कि कांग्रेस के खिलाफ मिलकर लड़ा जाए। 1967 के लोकसभा चुनाव में जब भारतीय जनसंघ को पहली बार 35 सीटें मिलीं तो विपक्षी एकता की बात कही जाने लगी। उस समय कांगे्रस का आंकड़ा पहली बार 300 से नीचे आया था और विपक्ष की मजबूती दिखाई दे रही थी। कुछ राज्यों में गठबंधन के प्रयोग भी सफल रहे। वर्ष 1971 में अंतत: गठबंधन अस्तित्व में आ ही गया। तब पहली बार कांग्रेस से अलग हुए एक धड़े, भारतीय जनसंघ स्वतंत्रता पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने मिलकर नेशनल डेमोक्रेटिक फं्रट बनाया था। जिसे 51 सीटें मिलीं। कम्यूनिस्टों ने भी मिलकर चुनाव लड़ा और 48 सीटें जीत लीं। इस चुनाव की खासियत यह थी कि गठबंधन को 24.34 प्रतिशत वोट मिले, जो लोकसभा चुनाव की दृष्टि से अभूतपूर्व था। राज्यों में भी यह प्रयोग किया गया। बंगाल और केरल में कम्यूनिस्टों को जीत मिली। तमिलनाडु सहित दक्षिण के कई राज्यों में क्षेत्रीय दल कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होकर चुनाव लड़े और कामयाब भी रहे। वर्ष 1977 में भारतीय राजनीति में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिला, जब इमरजेंसी के बाद एकजुट होकर लड़े विपक्ष को अभूतपूर्व सफलता मिली। जनता पार्टी के बैनर तले कई दल इक_े हुए, जिससे पहली बार केंद्र में कोई गैर-कांगेसी सरकार सत्तासीन हुई। 1989 में दूसरी बार भारत में विपक्ष एकजुट होकर कांगे्रस के कुशासन को चुनौती देने पहुंचा। बीपी सिंह के नेतृत्व में बोफोर्स कांड को मुद्दा बनाते हुए कांग्रेस के एक धड़े ने कांग्रेस से किनारा कर लिया और जनता दल अस्तित्व में आया। जिसमें मुख्यत: लोहियावादी और जय प्रकाश नारायण के आंदोलन से जुड़े नेता थे। इनमें से बहुत से अलग-अलग पृष्ठभूमि से आए हुए थे, लेकिन क्षेत्रीय राजनीति में वे सब दिग्गज थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह, राजीव गांधी सरकार में वित्त मंत्री और रक्षा मंत्री जैसे पदों पर रहे, बोफोर्स दलाली प्रकरण के बाद वीपी सिंह को मंत्रीमंडल से हटा दिया गया। बताया जाता है कि सिंह के पास कुछ ऐसी जानकारी थी, जो राजीव गांधी सरकार के लिए घातक सिद्ध हो सकती थी। बाद में वीपी सिंह ने बगावत कर दी और अरुण नेहरू, आरिफ मोहम्मद खान जैसे नेताओं के साथ मिलकर जन मोर्चा बनाया। वे इलाहाबाद से जीतकर भी आए। जनता दल कुछ दलों को मिलाकर बनाया गया था, जिसे भाजपा, सीपीआईएम जैसे कई छोटे-बड़े दलों का बाहरी समर्थन था। भाजपा पहली बार 85 लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब रही और कांग्रेस के विरुद्ध गठबंधन की राजनीति का एक नया दौर शुरू हुआ। गठबंधन बनते रहे और टूटते रहे, कई प्रधानमंत्री देखने को मिले, जिनमें से ज्यादातर कठपुतली ही रहे। कांग्रेस ने चंद्रशेखर जैसों को प्रधानमंत्री बनाया। इंद्रकुमार गुजराल कुछ समय के लिए प्रधानमंत्री रहे लेकिन 2 साल के भीतर ही गठबंधन की राजनीति विफल हो गई। 1991 के चुनाव में कांग्रेस को जब 244 सीटें मिलीं उस वक्त कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते, पीवी नरसिम्हाराव के नेतृत्व में झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसे तमाम छोटे-बड़े दलोंं के प्रत्यक्ष सहयोग से और भाजपा के दिग्गज नेता अटल बिहारी वाजपयी की परोक्ष नरमी से 5 साल सरकार खींचने में कामयाब रहे। लेकिन देश को स्थायित्व नहीं मिला। अस्थिरता बनी रही, किसी भी एक दल को बहुमत नहीं मिला।
1996 के चुनाव में 13 दिन के लिए अटल बिहारी प्रधानमंत्री बने, भाजपा पहली बार सबसे बड़े दल के रूप में उभरी, लेकिन सरकार गिर गई। देवगौड़ा को कांगे्रस के समर्थन से प्रधानमंत्री बनाया गया। फिर से गठबंधनों का दौर शुरू हुआ, छोटे-छोटे दल एक बैनर के तले आए। यूनाइटेड फ्रंट में उस समय वाम दलों और डीएमके सहित छोटे-बड़े 20 दल शामिल थे, सरकार धक्के खाकर चल रही थी इसलिए गिर गई। 1998 में भाजपा ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का गठन पहली बार किया। कांग्रेस ने भी अपना एक गठबंधन बना लिया था, लेकिन उसे कोई नाम नहीं दिया। उधर यूनाइटेड फं्रट तीसरे गठबंधन के रूप में तथा जन मोर्चा चौथे गठबंधन के रूप में मैदान में था। पहली बार चार गठबंधन चुनाव लड़ रहे थे। एनडीए को 254 सीटें मिलीं और उसने जयललिता के सहयोग से सरकार बना ली। भाजपा को अकेले 25.59 प्रतिशत वोट के साथ 182 सीटें मिली थीं, जो उसका श्रेष्ठतम प्रदर्शन था। यह प्रदर्शन जारी रहा, लेकिन सरकार 13 माह ही टिक सकी।
जयललिता ने बेविफाई कर दी, पर गठबंधनों का प्रयोग सफल रहा। 90 के दशक में बीजू पटनायक और एसआर बोम्बई जैसे नेता पार्टियों को जोड़ा करते थे, तो उसके बाद जॉर्ज फर्नांडिस गठबंधनों के शिल्पकार बनकर उभरे। जॉर्ज फर्नांडिस ने निश्चित रूप से एनडीए को विपरीत हालातों में भी बचाकर रखा और उसकी लोकप्रियता भी बढ़ती गई। 1999 में जब अटल बिहारी वाजपयी के नेतृत्व में जब तेरहवीं लोकसभा के लिए चुनाव हुए तो एनडीए को भले ही 37.6 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन वह 270 सीटें जीतने में कामयाब रहा। उस समय अटल बिहारी वाजपयी ने 29 दलों के गठबंधन को बड़ी कुशलता से 5 साल चलाया। भारतीय लोकतंत्र का यह अनुपम उदाहरण है। अटल बिहारी वाजपयी साफ और सेक्यूलर छवि के नेता थे, उनकी स्वीकार्यता सारे देश में थी। गठबंधन चलाने में उन्हें महारथ थी। वे सभी दलों को साथ लेकर चले और 5 वर्ष तक देश में एक स्थिर सरकार रही। गठबंधन की राजनीति का फायदा भी देश को मिला। उस समय तक कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि किसी एक राजनीतिक दल को बहुमत मिलेगा, इसलिए यह समझा जाने लगा था कि भारतीय राजनीति में गठबंधन ही अंतिम सत्य है। लेकिन गठबंधन ने किसी एक पार्टी को पनपने का मौका नहीं दिया। साथी दलों के पाप भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियों को भुगतने पड़े। 2004 में जब फीलगुड फैक्टर की शिकार भाजपा 138 सीटें ही जीत पाई, तो एनडीए बिखर गया और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में महज 145 सीटें जीतने वाली कांगे्रस ने यूपीए-वन में 5 साल तक कुशलता से शासन चलाया। ध्यान देने योग्य बात यह है कि कांग्रेस ने ये चुनाव छोटे दलों के साथ मिलकर लड़ा था। यूपीए का गठन तो चुनाव के बाद हुआ, जिसमें कुछ दल शामिल रहे और कुछ ने बाहरी समर्थन दिया। यूपीए ने मिलकर चुनाव लड़ा 2009 में। कांग्रेस को 28.55 प्रतिशत वोट मिले और 255 सीटें मिलीं। गठबंधन ने भी 262 सीटें जीतीं। एनडीए की ताकत और घट गई, थर्ड फं्रट भी सिमट गया, चौथे मोर्चे की सीटें भी पिछड़ गईं। लेकिन चौथे मोर्चे ने कांग्रेस को बाहरी समर्थन देकर मजबूत परिस्थिति में पहुंचा दिया। लगातार 15 वर्ष तक गठबंधन की सफलता के बाद 2014 का लोकसभा चुनाव भी मुख्यत: यूपीए और एनडीए के बीच लड़ा गया। बीच में यह बात उभरकर आई थी कि 11 दल मिलकर थर्ड फ्रंट जैसा कोई गठबंधन बनाना चाह रहे हैं, लेकिन सफलता नहीं मिली। चुनाव यूपीए और एनडीए के इर्द-गिर्द केंद्रित रहा। इसमें पहली बार किसी गैर कांगे्रसी पार्टी को भारतीय इतिहास में पूर्ण बहुमत मिला। भाजपा 427 सीटों पर लड़ी और 282 सीटें जीतने में कामयाब रही।
छुटकारा चाहती है भाजपा
कभी नीतिश कुमार ने बिहार में नरेंद्र मोदी को घुसने नहीं दिया था। मोदी के नेतृत्व में अंदरूनी टसन के बावजूद भाजपा ने नीतिश को बाहर का रास्ता दिखा दिया। शिवसेना भी अलग हो चुकी है लेकिन शिवसेना का अलग होना इसलिए भी आश्चर्यचकित कर रहा हैै कि शिवसेना राजनीति के उसी ध्रुव पर खड़ी हुई है जहां भाजपा है। दोनों के सिद्धांतों में विशेष अंतर नहीं है। दोनों हिंदू-राष्ट्रवादी पार्टियां हैं और शिवसेना की छवि आक्रामक राष्ट्रवाद की है जिसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भी समर्थन रहा है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हिंदुत्ववादी ताकतों को एक बैनर के तले लाने के लिए प्रयासरत है। किंतु जिस तरह शिवसेना भाजपा से प्रथक हो गई है, उसके चलते संघ के इस अभियान को धक्का पहुंच सकता है। भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व अब इतना चिंतित नहीं है। भाजपा के स्थायित्व को शिवसेना की 18 लोकसभा सीटों से कोई विशेष नुकसान पहुंचने वाला नहीं है। भाजपा अच्छी तरह जानती है कि बहुमत से भी उसकी सीटें कहीं ज्यादा हैं और चंद्रबाबू जैसे विश्वसनीय सहयोगी सरकार को अस्थिर करने की कोशिश कभी नहीं करेंगे। वैसे भी मात्र 44 सीटें लेकर विपक्ष की कुर्सी पर विराजी कांग्रेस में अब उतना दमखम नहीं है कि वह सरकार को अस्थिर कर सके। जयललिता को केंद्र की आवश्यकता है और मायावती शून्य हो चुकी हैं। इसीलिए भाजपा ने महाराष्ट्र में अब अपने दम पर चुनाव लडऩे की योजना बनाई है। 48 में से 24 लोकसभा सीटें उसके पास हैं। 27 प्रतिशत वोटर उसे वोट देता है। अल्पमत में आने के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने इस्तीफा दे दिया है। प्रदेश में राष्ट्रपति का शासन रहेगा, यानी मशीनरी भी केंद्र के इशारे पर नाचेगी। नरेंद्र मोदी खुलकर प्रचार कर सकेंगे। शिवसेना से टूटने के कारण भाजपा की छवि भी थोड़ी सुधरी है। इसका फयदा मुस्लिमों के वोट के रूप में हो सकता है। जहां तक एनसीपी का प्रश्र है वह कांग्रेस से अलग होने का मौका मई में लोकसभा के चुनावी परिणाम आने के बाद से ही तलाश रही थी। उसे यह मौका कांग्रेस की केंद्रीय चुनाव समिति ने उस वक्त दिया, जब 144 सीटों की एनसीपी की मांग ठुकरा दी गई। लोकसभा चुनावों का विश£ेषण करें तो राज्य में एनसीपी तीसरे नंबर की पार्टी है। पहले नंबर पर भाजपा और दूसरे नंबर पर शिवसेना है। विश£ेषकों का मानना है कि शिवसेना की ताकत मराठा, मराठी वोट बैंक के राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के पक्ष में शिफ्ट हो जाने के कारण घट सकती है। एमएनएस भी शिवसेना को पर्याप्त नुकसान पहुंचा सकती है। उधर कांग्र्रेस का वोट भाजपा के पक्ष में शिफ्ट होता है तो चुनाव बाद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में भाजपा का उभरना तय है। भाजपा कार्यकर्ताओं में ज्यादा जोश है, क्योंकि भाजपा इस बार ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इसका फायदा प्रदेश में मिल सकता है। शहरी क्षेत्रों में भाजपा की पकड़ मजबूत है और नितिन गडकरी को वहां किसी भी अन्य नेता के मुकाबले ज्यादा लोकप्रिय तथा काबिल नेता समझा जाता है। मराठा सरदार शरद पवार भी मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल हैं। पवार की दावेदारी से अवश्य फर्क पड़ेगा। कुल मिलाकर गठबंधन टूटने से फायदा भाजपा और राकांपा को होता दिख रहा है।
क्या यह भाजपा और कांगे्रस का नया अवतार है?
भारत की राजनीति को 80 के दशक से ही अमेरिका की तर्ज पर चलाने की कोशिशें होती रही हैं। उस समय भाजपा का जब गठन हुआ तो भाजपा भी कांग्रेस का विकल्प बनने का संकल्प कर चुकी थी, जो 34 साल के भीतर पूरा हो सका। भारत में चुनाव भी अमेरिका की तर्ज पर हो रहे हैं।
-Ritendra Mathur