इस पार या उस पार ड्रेगन करेगा व्यापार
03-Oct-2014 11:00 AM 1234803

इस तथ्य के बावजूद कि चीन ने 65 हजार वर्गमील जमीन दबा रखी है और कश्मीर का भी एक हिस्सा चीन के कब्जे में जा चुका है तथा सीमा की जमीन पर उसकी लालची निगाहें लगी ही रहती हैं, प्रधानमंत्री चीन को लगभग 1200 अरब डॉलर निवेश के लिए राजी करने मेें सफल रहे। इसका अर्थ यह हुआ कि सीमा के इस पार या उस पार चीन ही व्यापार करेगा। अभी चीन का सामान और तकनीक हमारे बाजार पर छाई हुुई है। आने वाले समय में शायद चीन हमारे देश में सामान बनाकर हमें ही बेचेगा। इससे फायदा यह होगा कि देश में बेरोजगारी की समस्या कुछ हद तक कम हो सकेगी लेकिन मुनाफा तो चीन की जेब में ही जाएगा। अब यह निर्णय और चीन के साथ हुए 12 से अधिक समझौते कितने उपयोगी हैं यह तो आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन इस निवेश का और इस वातावरण का लाभ तभी मिल सकेगा जब चीन और भारत के बीच सीमा विवाद का कोई सार्थक और सर्वमान्य समाधान तलाशा जाएगा। चीन के राष्ट्रपति का कहना है कि सीमा पर जो हालात अभी हैं वैसे ही बने रहेंगे क्योंकि दोनों देशों के बीच सीमा तय नहीं है। पूर्वाेत्तर से लेकर लद्दाख तक चीन घुसपैठ करता रहा है। अरूणाचल प्रदेश को वह अपने अधिकार क्षेत्र में बताता है और अपने नक्शे में भी दर्शाता है।
वहीं पूर्वोत्तर के लोगों को स्टेपल वीजा जारी करता है और भारतीय सीमाओं पर मनमानी करता है। उसके विपरीत भारत ने भले ही तिब्बत की निर्वासित सरकार को मान्यता दे रखी हो लेकिन सच तो यह है कि भारत तिब्बत जैसे मसले पर भी चीन के समक्ष दबाव बनाने में असफल रहा है और तमाम सीमाई विवादों में भारत का पक्ष कमजोर पड़ा है तथा कश्मीर सहित तमाम मुद्दों पर भी चीन ने भारत का वैसा समर्थन नहीं किया जैसा उससे अपेक्षित था। चीन अपनी विदेशी मुद्रा का बड़ा हिस्सा भारत से कमाता है। एक दौर था जब सोवियत संघ कम्यूनिस्ट राष्ट्र हुआ करता था और वह अपने हथियार भारत सहित तमाम देशों को बेचकर पैसे कमाता था जिसके बल पर उसकी अखंडता अक्षुण्ण थी। किंतु जब विश्व बाजार में सोवियत संघ की मोनोपॉली टूटी और हथियारों के नए विक्रेता पैदा हुए, भारत जैसे देशों ने भी अमेरिका सहित तमाम हथियार विक्रेता तलाश लिए तो सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था डगमगा गई और वह खंड-खंड हो गया। जो रूबल 14 डॉलर के बराबर था वह रुपए से भी नीचे आ गया। दुनिया के इतिहास में किसी देश की मुद्रा के अवमूल्यन और देश के विघटन का यह नायाब उदाहरण था। जिसका बहाना यह बनाया गया कि रूस सुधारवादी उपायों के चलते टूटा है क्योंकि उसने लोकतंत्र की तरफ कदम बढ़ाए हैं। आज चीन के हालात वैसे ही हैं। भारत जैसे देश यदि चीन से आयात बंद कर दें, चीन का सामान भारत में बिकना बंद हो जाए तो चीन की अर्थव्यवस्था बुरी तरह लडख़ड़ा सकती है। वैसे भी एक तरफ जापान और दूसरी तरफ वियतनाम जैसे दुश्मनों तथा एक तरफ भारत जैसे प्रतिस्पर्धियों से घिरा चीन अपनी अर्थव्यवस्था को लंबे समय तक तीव्र विकास दर के रथ पर सवार होकर खींच नहीं सकता है।
चीन को अपना रवैया बदलना ही होगा। इसी कारण यह माना जा रहा था कि मौजूदा दौरे में भारत चीन के मुकाबले अपर हैंड पर है क्योंकि यहां एक स्थायी सरकार है, प्रभावशाली नेतृत्व है, आक्रामक विदेश नीति है। इन सब का फायदा भारत को मिलना चाहिए था पर वह मिला नहीं। फिर भी जिनपिंग का यह दौरा कई मायने में महत्वपूर्ण है। भारत में निवेश को लेकर चीन ने उत्सुकता दिखाई है और यह प्रयास किया है कि भारत चीन के चिर-परिचित दुश्मन जापान के साथ हाथ न मिलाए। भारत और जापान की घनिष्टता को चीन शंका की दृष्टि से देखता आया है। वैसे भी जापान एक छोटा देश होने के बावजूद मजबूत अर्थव्यवस्था वाला देश है इसीलिए भारत तथा जापान की साझेदारी चीन को भारी पड़ सकती है। लेकिन चिंता केवल इतनी ही नहीं है चीन आर्थिक और सामरिक दृष्टि से भारत से अधिक मजबूत देश है इसमें कोई संदेह नहीं है। चीन मालदीप, श्रीलंका, नेपाल, म्यांमार, पाकिस्तान यहां तक कि अफगानिस्तान में भी अपना वर्चस्व बढ़ा रहा है। पाकिस्तान तो बकायदा चीन की गोद मेें बैठ चुका है और भारत के खिलाफ पाकिस्तान को उकसाने में चीन का बहुत बड़ा हाथ है चीन ने ही पाकिस्तान को परमाणु तकनीक दी और कश्मीर मेें मनमानी करने के लिए पाकिस्तान की करतूतों की तरफ से मुंह मोड़ा। अन्य दक्षिण एशियाई देशों में वह अपना निवेश 150 डॉलर तक करना चाहता है इसलिए चीन के साथ जब मोदी ने कुछ अधिक ही घनिष्ठता दिखाई तो मोदी का विरोध भी हुआ। कभी 60 के दशक में चाऊ एन लाई के साथ भी भारत ने इतना ही प्रेम दिखाया था अब तो कुछ ज्यादा ही प्रेम है। उस वक्त चीन ने आक्रमण किया और हिंदी-चीनी भाई-भाईÓÓ का नारा विलुप्त हो गया। चीन ने युद्ध में हमारी जमीन दबा ली। उस वक्त सोवियत संघ ने भारत का साथ नहीं दिया था बल्कि अमेरिका भारत के साथ आया था। आज वैसे हालात नहीं हैं क्योंकि चीन भी जानता है कि सामरिक रूप से शक्तिशाली बन चुके भारत से दो-दो हाथ करना आसान नहीं होगा। पर चीन की रणनीति इस बार थोड़ी बदली है। वह आर्थिक घेराबंदी करना चाहता है जिससे भारत भीतर ही भीतर खोखला हो जाए। लेकिन गनीमत इस बात की है कि भारत के पास प्राकृतिक संसाधन पर्याप्त हैं और वैश्विक मंदी के दौर में अपनी अर्थव्यवस्था को स्थिर रखकर भारत ने चीन सहित तमाम देशों को एक संदेश भी दिया है। इसी कारण भारत के साथ साझेदारी और सहअस्तित्व ही चीन को उपयोगी सिद्ध होगा। यदि चीन ने भारत के प्रति अपने दृष्टिकोण को नहीं बदला तो चीन भारी क्षति उठाएगा। क्योंकि यह दौर अलग है यह लड़ाइयों का दौर नहीं है, यह बाजार का दौर है।
यह डॉलर और मोटी कमाई का दौर है। दुनिया के अधिकांश देश अपनी जनता की समृद्धि चाहते हैं। आक्रमणकारी तथा आतंककारी मनोवृत्ति से ग्रसित अफगानिस्तान, ईराक, सीरिया, पाकिस्तान आदि के कुछ एक इलाकों को छोड़ दिया जाए तो दुनिया की हर कौम यह मानने लगी है कि असली लड़ाई तो भुखमरी और पिछड़ेपन के खिलाफ है। सुकून भरी बात यह है कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी इसी तरह के विचार रखते हैं। इसीलिए उन्होंने मोदी को अपने गृह नगर आने का न्यौता भी दिया। उनके गृह नगर में चीनी यात्री ह्वेनशांग ने अपने जीवन के अंतिम 20 वर्ष बिताए थे। सिक्किम से मानसरोवर का नया रास्ता खोल कर चीन ने व्यावसायिक ब़ुद्धि का परिचय दिया है इससे चीन में पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा और भारत में तिब्बत से भी पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा लेकिन उत्तराखंड में थोड़ी नाराजगी हो सकती है।
नाराजगी तो अरुणाचल में भी होगी। क्योंकि चीनी राष्ट्रपति के साथ आए प्रतिनिधिमंडल के साथ बातचीत में अरुणाचल का कोई व्यक्ति भारतीय डेलीगेशन के साथ नहीं था, यहां तक कि अरुणाचल से आने वाले गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू को भी सरकार ने दूर रखा। अरुणाचल को लेकर चीन और भारत में लंबा विवाद है। अरुणाचल के लोगों को चीन नत्थी वीजा देता है और कई बार अरुणाचल प्रदेश पर चीन अपना दावा कर चुका है।
ऐसे में भारतीय प्रतिनिधियों में यदि अरुणाचल प्रदेश से आने वाले गृह राज्यमंत्री किरेन रिजिजू को शामिल किया जाता तो रणनीतिक रूप से भारत का अपर हैंड होता। क्योंकि यह रिकार्ड पर जाता कि चीनी राष्ट्रपति ने भारतीय प्रतिनिधिमंडल के साथ मुलाकात की जिसमें भारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश से चुने गए भारतीय सांसद और केंद्र सरकार के गृह राज्यमंत्री भी शामिल थे। हालांकि सरकार की तरफ से यह तर्क दिया जा रहा है कि भारतीय मुलाकातियों में किसी राज्यमंत्री को जगह नहीं मिली थी। अलबत्ता खेल राज्यमंत्री सरवानंद सोनवाल जो असम से आते हैं उनके साथ चीनी राष्ट्रपति के डेलिगेशन में आए युवाओं ने मुलाकात की। दोनों देशों के बीच 12 करार हुए। कैलाश मानसरोवर के लिए नया रास्ता खोले जाने पर सहमति बनी। करीब 1200 अरब रुपए का निवेश करने पर चीन राजी हुआ। बुलेट ट्रेन चलाने, रेलवे स्टेशनों को आधुनिक बनाने पर सहयोग की इच्छा जताई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चीन आने का न्यौता भी मिला। लेकिन सीमा विवाद पर बेकरारी रही। यानी दोनों पक्षों के बीच कोई समझौता, सहमति। हालांकि, दो टूक शब्दों में जताए गए मोदी के ऐतराज के बाद चीन की सेना चुमार से लौटने लगी। दिल्ली के हैदराबाद हाउस में हुई शिखर वार्ता में भी कुछ यही हाल रहा। इसीलिए अहमदाबाद में एक दिन पहले भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जिनपिंग के बीच जो गर्मजोशी थी, वह नदारद रही। बातचीत में सीमा विवाद छाया रहा। बॉडी लैंग्वेज में भी इसका साया दिखा और प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी। संयुक्त घोषणा पत्र जारी नहीं हो पाया। मोदी और जिनपिंग साथ बैठे। लेकिन बोले अलग-अलग सुरों में।

बाजार और सीमा पर ड्रेगन की नजर
विडम्बना इस बात की है कि भारत के जिस विशाल बाजार पर ड्रेगन की नजरें हैं उसी भारत की सीमाओं को चीन आक्रांत किए हुए है। चीन के निवेशकों को सुकून तभी मिलेगा जब भारत में स्थिरता रहेगी। एक तरफ पाकिस्तान और दूसरी तरफ चीन भारत को आतंकित करते रहेंगे, तो चीन भारत से व्यापारिक रिश्ते मजबूत कैसे कर पाएगा? यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन को सीमा पर यथास्थिति बनाए रखने का सुझाव देते हुए कहा है कि चीन भारत की सीमाओं में घुसपैठ बंद करे। भारत में घुसपैठ एक ऐतिहासिक सत्य है। भारत भूमि सभी को पनाह देती है, इसलिए घुसपैठियों की लालची नजरें इस पर लगी ही रहती हैं। लेकिन इस बार चीन को द्विपक्षीय रिश्तों का महत्व समझ में आया है और चीन ने अपने रुख में तब्दीली की है। सीमा पर सेनाएं पूर्व स्थिति में जा चुकी हैं। नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा का प्रभाव भी चीन में देखने को मिला क्योंकि मोदी को जिस तरह अमेरिका में तवज्जो दी गई उससे ड्रेगन के कान भी खड़े हुए। किंतु सत्य यह है कि ड्रेगन भारत से मधुर रिश्ते बनाने के संकल्प के बावजूद भारत की घेराबंदी कर रहा है। उधर हांगकांग में उठती लोकतंत्र की मांग ड्रेगन को बेचैन किए हुए है।

 

-Renu Agal

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