कुंभ में भगदड़ से यूपी की राजनीति गरमाई
19-Feb-2013 11:15 AM 1234800

इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर मौनी अवस्या का दिन बहुत से लोगों के लिए मौत का मौन पैगाम लेकर आया। इसी दिन प्रयाग कुंभ में शाही स्नान था और इलाहाबाद में तीन करोड़ की संख्या में शृद्धालु पहुंचे थे। वे सब अपने घरों को वापस लौटने के लिए जल्दबाजी में ट्रेन पकडऩा चाह रहे थे, लेकिन उससे पहले ही रेलवे स्टेशन के एक पुल पर अचानक भगदड़ मच गई जिसमें बच्चे, बूढ़ों और महिलाओं सहित लगभग 25 लोगों की मृत्यु तो तत्काल हो गई। कुछ ने अस्पताल ले जाते समय बीच में ही दम तोड़ दिया क्योंकि सहायता आने में ही चार घंटे का समय लग गया था और बाकी बच खुचे लोगों की मौत अस्पताल में हो गई। कुल मिलाकर 40 जानें इस हादसे में गई। ये हादसा टाला जा सकता था लेकिन टालने के लिए जो इच्छा शक्ति चाहिए वह इच्छा शक्ति सरकार के पास नहीं थी। बड़े आश्चर्य की बात है कि रेलवे स्टेशन जैसी महत्वपूर्ण जगह पर सुरक्षा बलों की पर्याप्त मौजूदगी नहीं थी। न ही वहां कोई अस्थाई अस्पताल बनाया गया था। लोगों को लाइन से भेजने के लिए पुलिस बल भी तैनात नहीं थे। इस घटना ने 1954 के कुंभ की याद दिला दी जब मोनी अवस्या के दिन ही भगदड़ में 800 शृद्धालुओं की मौत हो गई थी। इस घटना के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू ने विशिष्ट व्यक्तियों से कुंभ न जाने की अपील की थी। शायद वही अपील नरेंद्र मोदी और सोनिया गांधी को याद आ गई होगी इसीलिए उन्होंने कुंभ में जाने से इनकार कर दिया सुरक्षा कारणों का हवाला देकर, लेकिन उनके इनकार मात्र से अव्यवस्थाओं का संक्रमण समाप्त नहीं हो जाता।
पुलिस प्रशासन के नाम पर भी उत्तर प्रदेश सरकार ने मजाक ही किया है। जिस मेले में आधिकारिक तौर पर 55 दिनों के भीतर देश का हर चौथा आदमी पहुंचने की कोशिश कर रहा है उस मेले के लिए जो सुरक्षा दस्ता तैयार किया गया था उसमें जो कमांडो दस्ता बनाया गया था उसमें महज 210 कमांडो हैं। इसमें 30 आईटीबीपी के थे, 30 सीआरपीएफ के और 150 यूपी एसटीएफ के। दो महीने के दौरान करोड़ों भक्तों की सचल सुरक्षा के लिए 156 वाहन उपलब्ध करवाये गये हैं। इसमें बाकी तो पुलिस को ढोने के लिए लेकिन आपात स्थितियों में वाहन की जरूरत पडऩे और स्नानार्थियों को मेला परिसर से सुरक्षित बाहर निकालने के लिए यूपी पुलिस ने 2 टाटा 407 की भी व्यवस्था की थी। खुदा न करें अगर इलाहाबाद स्टेशन पर मची अफरा तफरी मेला क्षेत्र में मचती तो क्या होता? केन्द्र सरकार का रुख भी कुंभ मेले को लेकर कम अहमकाना नहीं है। जिस इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर यह हादसा हुआ उस स्टेशन की क्षमता से कई सौ गुना लोग वहां आ जा रहे हैं लेकिन रेलवे ने सुविधाओं में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं की। इतनी बड़ी संख्या में लोगों का आना जाना होता है लेकिन मेला काल को देखते हुए स्टेशन की सुविधाओं में कभी कोई बुनियादी बदलाव नहीं किया जाता। यहां तक कि दशकों से एक नया फुट ओवरब्रिज भी नहीं बना है। स्टेशन के प्लेटफार्म भी दशकों से जस के तस हैं। कुंभ मेला के दौरान कुछ विशेष ट्रेने जरूर चलाई गईं लेकिन उनकी संख्या इक्का दुक्का से ज्यादा नहीं है। रेलवे ज्यादा ट्रेन शायद इसलिए भी नहीं चला सकता क्योंकि उसे मालूम है कि उनके पास कोई व्यवस्था ही नहीं है। ट्रेन भेज भी दें तो खड़ी कहां करेंगे। इसी तरह मेला परिसर बसाने में भी जरूरत से ज्यादा प्रशासनिक औपचारिकता का पालन किया जाता है। इतना जरूर होता है कि कुंभ में दस बारह पीपे के पुल बनते हैं तो महाकुंभ में इनकी संख्या बढ़ाकर सोलह अठारह कर दी जाती है।
कुंभ मेला उत्तर प्रदेश का एक ऐसा आयोजन है जो प्रदेश का ही नहीं देश का नाम दुनिया में रोशन करता है। बुलाने के बाद भी विदेशी मीडिया के लोग जितना देश के गणतंत्र दिवस का कवरेज नहीं करते उससे कई सौ गुना ज्यादा कवरेज वे कुंभ मेला का करते हैं। यानी दुनिया की नजर में राजपथ पर सैनिकों के कदमताल से ज्यादा उन नागाओं की दौड़ ज्यादा महत्व रखती है जिसे भारत सरकार उतना भी महत्व नहीं देती जितना राजपथ के आयोजन पर देती है। यही वह नजरिया है जिसके कारण सरकारी आयोजनों को भारतीय आयोजन कहकर अरबों के वारे न्यारे कर दिये जाते हैं जबकि असल में जो भारतीय आयोजन होते हैं उनके प्रति आला दर्जे की लापरवाही बरती जाती है।
अब कुंभ में भगदड़ के बाद उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव को जितनी चुनौती विपक्षी दलों से मिल रही है उससे कहीं ज्यादा पार्टी के भीतर वरिष्ठ और युवा नेताओं की तनातनी के कारण बढ़ती जा रही है। आजम खान ने इस्तीफा दे दिया है तो मायावती के विधायकों ने विधानसभा में अभूतपूर्व हंगामा किया। अखिलेश यादव युवा नेता हैं उनकी कार्यशैली अलग है। वे चापलूसों से दूरी बनाए रखते हैं। अधिकारियों को अपने नियंत्रण में रखते हैं तथा हर काम की विस्तृत समीक्षा करना उनके स्वभाव में शामिल है, लेकिन मुलायम सिंह यादव बंधी बधाई लीक पर राजनीति करने के लिए विख्यात है। उनका मानना है कि जो ढर्रा चल रहा है उसे चलते रहना चाहिए। मुलायम किसी भी बदलाव को ज्यादा तवज्जो नहीं देते। क्योंकि उनके लिए जाती हित सर्वोपरि है। इसी कारण मुलायम और उनके सुपुत्र के विचारों में मतभेद स्पष्ट देखने में आ रहा है। अखिलेश की खासियत यह है कि उन्होंने सपा के गुंडाराज के कथित दाग को मिटाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। मुलायम सिंह के शासनकाल के मुकाबले उनके शासनकाल में कानून व्यवस्था की स्थिति अपेक्षाकृत दुरुस्त है। अखिलेश केवल यादवी और मुसलमानों की राजनीति नहीं करना चाहते बल्कि वह हर वर्ग पर पकड़ बनाना चाहते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि मुलायम सिंह यादव के हस्तक्षेप के कारण अखिलेश के हाथ बंधे हुए हैं। प्रशासनिक स्तर पर मुलायम सिंह यादव की पसंद की नियुक्तियां सैद्धांतिक तौर पर भले ही अखिलेश को मुख्यमंत्री का ओहदा देती हों लेकिन व्यावहारिक तौर पर वे मुलायम सिंह को ही अपना मुख्यमंत्री मानती हैं। असलियत में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव सरकार और ब्यूरोक्रेट के विरुद्ध खुल कर बयान देकर सरकार और ब्यूरोक्रेट पर दबाव बनाना चाहते हैं। वह यह सन्देश देना चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश के वह सुपर मुख्यमंत्री हैं और नेता-अधिकारी अखिलेश यादव के दरबार में हाजिरी देने से पहले उनके दरबार में हाजिरी दें।
सपा सुप्रीमो का कहना है कि नेताओं ने अपनी पसंद के अधिकारियों को तैनात करा लिया है, जो जनहित में काम नहीं कर रहे हैं। साफ है कि अधिकारियों की तैनाती दबाव में नहीं हो रही है और अधिकारी दबाव में नाजायज काम भी नहीं कर रहे हैं। अखिलेश यादव ने सही कार्य करने की छूट दे रखी है, जिससे मुलायम शासन में आईएएस और आईपीएस से अपने घरों पर हाजिरी दिलाने वाले नेता परेशान हैं। सरकार आने पर तमाम उल्टे-सीधे काम कर तिजोरी भरने वालों की हसरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं, ऐसे ही लोग सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के कंधे पर सवार हो अफसरों पर दबाव बना कर सत्ता की मलाई हजम करने की कोशिश में लगे हुए नजर आ हैं। अखिलेश यादव जिस प्रकार सरकार चला रहे हैं, वो सही रास्ता है। कट्टरपंथी अंदाज में बदले की राजनीति करने वाले अधिक दिनों तक टिके नहीं रह सकते। अखिलेश यादव सर्व समाज के लिए कुछ अच्छा करने की सोच वाले युवा हैं, वह विरोधियों को फंसाने की राजनीति नहीं करना चाहते, तो इसमें गलत क्या है? एक-दूसरे को फंसाने का सिलसिला कहीं तो रुकना चाहिए और जब तक यह सिलसिला नहीं रुकेगा, तब तक आम आदमी की परेशानियों की ओर किसी का ध्यान भी नहीं जाएगा। वर्तमान से सालों पीछे चल रहे उत्तर प्रदेश को अखिलेश यादव की सोच से ही आगे लाया जा सकता है, लेकिन पार्टी के ही कुछ लोगों की समस्या यह है कि अगर, वह विरोधियों को मार नहीं सकते, तो सत्ता मिलने का अर्थ ही क्या है? अखिलेश यादव जातिवाद हावी नहीं होने देना चाहते। वह पिता के विरुद्ध तो नहीं बोल सकते, पर सरकार अपने अनुसार ही चलाना चाहते हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश में आज भी जातिवाद नजऱ आ रहा है, पर मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व काल से तुलना की जाये, तो न के बराबर ही है। अखिलेश यादव पूरी तरह मुक्त होकर सरकार चला रहे होते, तो इतना भी नहीं होता, पर दुर्भाग्य कि उनकी राह में पहले दिन से ही तमाम तरह से रोड़े अटकाए जा रहे हैं, जिसका असर उनकी छवि पर भी पड़ रहा है। उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है, फिर भी सरकार और ब्यूरोक्रेट के विरुद्ध लगातार हो रही बयानबाजी से उनके प्रशसंकों की संख्या घटी है। अगर, वह मुक्त होकर शासन कर रहे होते, तो आज उनकी लोकप्रियता का ग्राफ सातवें आसमान पर पहुँच गया होता।
जनहित की दृष्टि से देखा जाए, अखिलेश यादव सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, इसीलिए मुलायम सिंह यादव के प्रशंसक दुखी हैं। अखिलेश यादव के प्रशंसक जातिवादी नहीं हैं, सिद्धांतवादी भी नजऱ आते हैं। लोहिया के विचारों के अनुरूप। मुलायम सिंह यादव सिर्फ एक जाति के नेता बन कर रह गये, वह समस्त पिछड़े वर्ग के भी नेता नहीं बन पाए और अपने जातिवाद पर समाजवाद का पर्दा डालते रहे। लोहिया के विचार उनके व्यवहार में कभी नहीं झलके। बल्कि वंशवाद चलाकर उन्होंने लोहिया के सपनों को ध्वस्त कर डाला।
मधु आलोक निगम

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