मुलायम के भाजपा प्रेम का सबब क्या है?
02-Mar-2013 09:31 AM 1234794

बीते दिनों समाजवादी पार्टी के सुप्रीम नेता मुलायम सिंह यादव ने अचानक भारतीय जनता पार्टी की ओर दोस्ताना हाथ बढ़ाकर धर्म निरपेक्ष तबके में खलबली मचा दी है। मुलायम ने दोस्ती की पहल उस वक्त की है जब हिंदू हृदय सम्राट नरेंद्र मोदी को भाजपा में प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने को लेकर कश्मकश चल रही है। स्वयं मुलायम भी इसी दौड़ में हैं। इसी कारण अब राजनीति के विश्लेषक मुलायम की भाजपा के प्रति नरमी का अर्थ निकालने में लगे हुए हैं। क्या मुलायम भावी संभावनाओं को टटोल रहे हैं या वे भी विश्वनाथ प्र्रताप सिंह की तरह भाजपा के समर्थन से कुछ दिन के लिए ही सही केंद्र में सरकार बनाकर इतिहास में दर्ज हो जाना चाहते हैं। कारण चाहे जो हो लेकिन मुलायम ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर लोकसभा में चर्चा के दौरान राजनाथ सिंह को समाजवादी विचारधारा का उल्लेख करने के लिए बधाई देकर एक नई चर्चा तो छेड़ ही दी है। हालांकि मुलायम ने साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया कि यदि भाजपा अपनी मूल विचारधारा राम मंदिर इत्यादि से हटती है तो उन्हें भाजपा से गुरेज नहीं है। मुलायम ने इस बात के लिए भी पछतावा महसूस किया कि उन्होंने अयोध्या में देश को एक जुट रखने की खातिर गोली चलाने का आदेश दिया था।
अयोध्या में गोली चालन और उसमें हिंदुओं की मृत्यु एक ऐसा प्रकरण था जिसने मुलायम को उत्तरप्रदेश के मुस्लिम समुदाय के बीच एक निर्विवाद नेता के रूप में स्थापित कर दिया। यादवों के बीच वह पहले से ही लोकप्रिय थे और आज तक यादव मुस्लिम समीकरण की राजनीति के बल पर राजनीतिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण खिलाड़ी बने हुए हैं। देश के सबसे बड़े, सर्वाधिक जनसंख्या वाले राज्य में मुलायम की पार्टी बहुत मजबूती से पैर जमा चुकी है। लेकिन मात्र उत्तरप्रदेश में पैर जमाकर दिल्ली की कुर्सी तक नहीं पहुंचा जा सकता। यह बात मुलायम को अच्छी तरह पता है। दूसरा कांग्रेस के साथ गठबंधन का क्या नतीजा हो सकता है यह मुलायम को भलीभांति पता है। इसी कारण तीसरे मोर्चे की संभावनाओं को मृत मानते हुए मुलायम ने अब नए साथियों की तलाश शुरू की है। उनकी इस नई तलाश का लुब्बे लुआब यह है कि भाजपा पहले की तरह अछूत नहीं रही। दरअसल भाजपा के प्रति बहुत से दलों का नजरिया बदलने लगा है। इसका कारण यह है कि पिछले लंबे समय से भाजपा ने किसी भी विवादास्पद मुद्दे पर कोई आंदोलन खड़ा नहीं किया है बल्कि पार्टी हर बार विवादास्पद मुद्दों से दूर ही नजर आई है। उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव के समय भाजपा विवादास्पद मुद्दों से किनारा करते नजर आई थी। देखा जाए तो उत्तरप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच कई तरह की समानताएं हैं। स्वयं मुलायम कहते हैं कि देशभक्ति, सीमा सुरक्षा और भाषा के मामले भाजपा तथा सपा की नीति एक ही है। लेकिन मुलायम को यह भी याद होगा कि उन्हीं के नक्शे कदम पर चलते हुए भारतीय जनता पार्टी के उत्तरप्रदेश के नेताओं ने अपनी अगली पीढ़ी को जोर-शोर से राजनीति में लांच कर दिया है। केडर आधारित पार्टी होने के बावजूद दल और परिवार की तमाम बुराइयों को उत्तरप्रदेश भाजपा ने अच्छी तरह अपना लिया है। हालांकि समाजवादी पार्टी को तो इसका लाभ मिल गया है, लेकिन भाजपा को इसका नुकसान होना अवश्यंभावी है। क्योंकि भाजपा का जनाधार जिस वर्ग के बीच में है वह वर्ग वंशवाद को  पसंद नहीं करता। यह वे लोग हैं जो नेहरू         गांधी परिवार की विचारधारा से असहमत          होकर भाजपा की तरफ मुड़े हैं, लेकिन भाजपा  के कतिपय नेताओं को इसकी जरा भी समझ  नहीं है।
नई प्रदेश कमेटी में राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह, लालजी टंडन और प्रेमलता कटियार के बेटे-बेटियों का होना सुबूत है कि भले देर से ही हो, पर भाजपा ने भी राजनीति में अपने बेटे-बेटियों को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति अपना ली है। भाजपा को इसका नुकसान यह होगा कि अब वह दूसरी राजनीतिक पार्टियों के परिवारवाद पर आवाज नहीं उठा सकेगी। किंतु उसे अगर इसकी चिंता ही होती, तो वह ऐसा कदम उठाती ही क्यों! प्रांतीय स्तर पर उठाए गए कदम के बावजूद इसके निहितार्थ न सिर्फ बेहद गंभीर हैं, बल्कि इससे पता चलता है कि समकालीन राजनीतिक नैतिक आग्रहों से उतनी चालित नहीं होती, जितनी कि बुराइयों से दुष्प्रभावित होती है।
कांग्रेस का ही उदाहरण लें, तो कहा यह जाता है कि देश की यह सबसे पुरानी पार्टी नेहरू-गांधी परिवार के बिना जिंदा ही नहीं रह सकती, पर उसके यूथ ब्रिगेड में दूसरी पीढ़ी के लोगों का जैसा वर्चस्व है, वह भी उतना ही स्तब्ध करने वाला है। तथ्य यह है कि कांग्रेस के युवा नेताओं में से ज्यादातर को राजनीति विरासत में मिली है।
क्षेत्रीय पार्टियां चूंकि नैतिक आदर्शों का वैसा दावा भी नहीं करतीं, इसलिए उत्तर से दक्षिण भारत तक उनके यहां परिवारवाद का खुला खेल है। यही कारण है कि द्रविड़ राजनीति के पुरोधा को उत्तराधिकारी के रूप में अपनी ही संतानें दिखाई देती हैं, तो उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी सपा में परिवारवाद पुत्र तक सीमित न रहकर उससे आगे विस्तार पा चुका है। कैडर आधारित वाम पार्टियों में यह दुष्प्रवृत्ति बेशक नहीं है, पर जो खुद अस्तित्व के लिए जूझ रही हों, वे राजनीति को भला क्या दिशा दे पाएंगी! भारत जैसे लोकतंत्र में राजनीति के परिवार तक सीमित हो जाने से न सिर्फ देशसेवा की महत्वाकांक्षा पाले आदमी का संसद और विधानसभाओं में प्रवेश मुश्किल हो जाएगा, बल्कि वैसी स्थिति में हम भविष्य में किन्हीं राममनोहर लोहिया, चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर या अटल बिहारी वाजपेयी के होने की संभावना को भी खत्म कर रहे होंगे।
मायावती की महत्वाकांक्षा
उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती भी मुलायम और नीतिश की तरह मुख्यमंत्री बनने के ख्वाब देख रही हैं। मायावती ने हाल ही में नागपुर में अपनी महत्वाकांक्षा जाहिर करते हुए कहा कि लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के रूप में भाषण देना चाहती हैं। लेकिन कहीं उनका यह सपना सपना न रह जाए। इसलिए उन्होंने कार्यकर्ताओं को चेतावनी भी दी है, सवाल यह है कि मात्र कार्यकर्ताओं की चेतावनी से क्या होगा। कांग्रेस कभी भी मायावती को प्रधानमंत्री बनते नहीं देखेगी और भाजपा के बगैर माया अपनी महत्वाकांक्षा को परवान नहीं चढ़ा सकतीं। इसलिए माया हो चाहे मुलायम दोनों के लिए भाजपा अनिवार्य हो चुकी है। बशर्तें भाजपा चुनाव के बाद बाहर रहते हुए अपनी पसंदीदा सरकार बनवाने का जोखिम उठाए। फिलहाल जिस तरह से महत्वाकांक्षाओं का महासागर हिलोरे मार रहा है उसे देखते हुए आने वाले समय में कुछ अजीब समीकरणों से इनकार नहीं किया जा सकता। वैसे भी वर्तमान जो समीकरण हैं वे कम अजीब नहीं हैं। मायावती बार-बार मुख्यमंत्री बनी हैं और अब एक बार सर्वोच्च राजनीतिक पद पर भी पहुंचना चाहेंगी।
प्रदेश के इतिहास में चार बार मुख्यमंत्री के पद पर पहुंचने वाली वह पहली नेता हैं। मायावती पहली बार जून 1995 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन तोड़ कर भाजपा एवं अन्य दलों के बाहरी समर्थन से मुख्यमंत्री बनीं थीं और तब उनका कार्यकाल महज चार महीने का था। वह दूसरी बार 1997 और तीसरी बार 2002 में मुख्यमंत्री बनीं और तब उनकी पार्टी बसपा का भाजपा के साथ गठबंधन था। मायावती के बाद सबसे ज्यादा तीन-तीन बार राज्य का मुख्यमंत्री बनने का अवसर चन्द्रभान गुप्त 1962 1967 और 1969 नारायणदत्त तिवारी 1976 1984 और 1988 और मुलायम सिंह यादव 1989 1993 और 2003 को मिला मगर इनमें से कोई भी किसी भी विधानसभा के पूरे कार्यकाल तक मुख्यमंत्री नहीं रहा। प्रदेश के इतिहास में पहली बार कोई गैर कांग्रेसी सरकार वर्ष 1967 में बनी थी जब चौधरी चरण सिंह ने अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस से अलग होकर भारतीय क्रांति दल का गठन करके तत्कालीन जनसंघ अब भाजपा के साथ संयुक्त विधायक दल संविदद्ध सरकार का गठन किया था। संविद सरकार लगभग एक साल तक वजूद में रही। वर्ष 1970 में चरण सिंह ने दूसरी गैर कांग्रेसी सरकार का नेतृत्व किया मगर वह महज नौ महीने तक ही सत्ता में रही और उसके बाद प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। प्रदेश में वर्ष 1977 से 80 तक जनता पार्टी की सरकार रही और पहले रामनरेश यादव और फिर बाबू बनारसी दास उस सरकार में मुख्यमंत्री रहे। सूबे में वर्ष 1989 में कांग्रेस एक बार फिर सत्ता से बाहर हुई और मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी जो 1991 तक अस्तित्व में रही। मुलायम सिंह के बाद कल्याण सिंह ने 1991 से छ: दिसम्बर 1992 तक भाजपा और फिर सितम्बर 1997 में भाजपा-बसपा गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया मगर बसपा के समर्थन वापस ले लेने के बाद उन्हें अपनी सरकार बचाये रखने के लिये बसपा और कांग्रेस से टूट कर वजूद में आये जन बसपा और लोकतांत्रिक कांग्रेस से गठबंधन करना पड़ा। उनके बाद उस सरकार का नेतृत्व रामप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह ने किया।
बहरहाल उसके बाद वर्ष 2002 में मायावती के नेतृत्व में बसपा-भाजपा और 2003 में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी एवं सहयोगी दलों की सरकार बनी। वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा 403 विधानसभा सीटों में से 206 सीटें जीत कर पूर्ण बहुमत से सत्ता में आयी और पार्टी प्रमुख मायावती चौथी बार मुख्यमंत्री बनीं तथा विधानसभा के पूरे कार्यकाल तक मुख्यमंत्री बनी रहीं। प्रदेश के इतिहास में वर्ष 1952 से लेकर 2007 तक 15 विधानसभाओं का गठन हुआ और प्रदेश में कुल 33 मुख्यमंत्री बने। मायावती को इस बात का संतोष है कि वे कई बार मुख्यमंत्री रहीं पर अब उन्हें ज्यादा बड़ी कुर्सी दिख रही है।

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