निजी अस्पतालों पर मेहरबानी क्यों?
03-Oct-2014 10:36 AM 1234828

कुछ समय पूर्व एक खबर आई थी कि मध्यप्रदेश में हृदय की गंभीर बीमारियों सहित तमाम बीमारियों में जिन मरीजों को ऑपरेशन की आवश्यकता है, उनकी वैटिंग लिस्ट बढ़ती ही जा रही है। क्योंकि सरकार के डॉक्टरों के पास उन मरीजों के लिए समय नहीं है। निश्चित रूप से उपचार में देरी जानलेवा हो सकती है। इसलिए मरता क्या न करता की तर्ज पर बहुत से मरीजों ने निजी अस्पतालों का रुख किया और मुख्यमंत्री  स्वेच्छानुदान से जो मदद हो सकती थी, वह लेकर बाकी अपनी जेब से लगाते हुए किसी तरह अपनी जान बचाई।
ऐसा नहीं है कि सरकार से गरीबों को मदद नहीं मिलती या सरकार मदद देने के लिए तत्पर नहीं है। सरकार तो खुले हाथों से गरीबों के लिए पैसा लुटा रही है। लेकिन इस पैसे से निजी अस्पतालों की ही चांदी क्यों होती है और उन्हें ही क्यों फायदा पहुंचता है, यह शोध का विषय है। मुख्यमंत्री बाल हृदय योजना में छोटे बच्चों को गंभीर हृदय रोगों से मुक्ति मिलती है।  यह एक अच्छी पहल है। पर इसकी खासियत यह है, कि  अधिसंख्यक बच्चों के ऑपरेशन निजी अस्पतालों में हुए। प्रश्र यह है कि जो पैसा इन बच्चों के इलाज पर सरकार द्वारा खर्च किया गया, जिसका अधिकांश हिस्सा निजी जेबों में चला गया, क्या उतने पैसे से सरकार किसी सरकारी अस्पताल में बाल हृदय चिकित्सा विभाग नहीं बना सकती थी? बहुत से अस्पतालों में देश भर में यह सुविधा है और इसकी लागत सरकार द्वारा अभी तक किए गए खर्च के करीब ही बैठती है।
पाक्षिक अक्स की पड़ताल से पता चला है कि गंभीर रोगों में निजी अस्पताल से ऑपरेशन करवाने की प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। इसके लिए सरकारी अस्पतालों से लेकर सरकारी स्तर पर भी एक ऐसा तंत्र काम कर रहा है, जो जाने-अंजाने निजी अस्पतालों को ही फायदा पहुंचाता है।
मिसाल के तौर पर यदि किसी मरीज को सरकारी अस्पताल में हृदय का ऑपरेशन करवाना है, तो उसका खर्च निजी अस्पतालों के मुकाबले लगभग 20 प्रतिशत ज्यादा बैठता है। सरकार द्वारा जो सहायता मिलती है, उसके अतिरिक्त बाकी खर्च हितग्राही को स्वयं उठाना पड़ता है। जबकि इसके विपरीत निजी अस्पतालों में उतने ही खर्च में ऑपरेशन करके व्यक्ति को स्वस्थ कर घर भेज दिया जाता है। सरकारी अस्पतालों का महंगा होना और निजी अस्पतालों का सस्ता होना एक ऐसा कारण है, जिसके चलते भी निजी चिकित्सालयों में सरकारी खर्चे पर ऑपरेशन हो रहे हैं। लेकिन बात केवल इतनी ही नहीं है। किसी सरकारी अस्पताल में ऑपरेशन करवाना हो तो मुख्यमंत्री स्वेच्छानिधि से पैसा पहुंचने में हफ्तों या महीनों का समय लग सकता है, जबकि निजी चिकित्सालयों में सक्रिय स्टॉफ 3 दिन के भीतर यह पैसा प्राप्त करके मरीज का उपचार भी कर देते हैं। जाहिर सी बात है निजी अस्पताल खुद तो कमा ही रहे हैं, उन लोगों को भी उपकृत कर रहे हैं, जो इस तीव्र गति से काम करने में उनके सहयोगी हैं। निजी अस्पतालों को मरीज रेफर करने वाले डॉक्टरों से लेकर उन अधिकारियों और कर्मचारियों को लाभ पहुंचाया जाता है, जो 24 घंटे के भीतर सरकारी पैसा निजी अस्पतालों के खाते में पहुंचा देते हैं। इसके विपरीत किसी मरीज को सरकारी अस्पताल में ही ऑपरेशन कराना हो तो उसे 50 चक्कर काटने पड़ेंगे, डॉक्टरों के पास जाना पड़ेगा और तमाम खानापूर्ति करनी होगी। लेकिन प्रतीक्षा सूची लंबी होने में अब अडंग़ा यह आ गया है कि सरकारी विशेषज्ञों, सर्जनों से एनओसी लेना अनिवार्य है। सभी बीमारियों का इलाज सभी सरकारी अस्पतालों में नहीं होता। अलग-अलग शहरों में अलग-अलग बीमारियों के उपचार के केंद्र बनाए गए हैं। हृदय रोग का विभाग अलग शहर में है तो कैंसर का दूसरे शहर में। ऐसी स्थिति में यदि भोपाल के किसी मरीज को हृदय रोग का इलाज कराना है तो उसे ग्वालियर जाना होगा या फिर वहां से एनओसी लेनी होगी। वहां का विशेषज्ञ एनओसी तुरंत देगा इसकी गारंटी नहीं है। पहले वह परीक्षण करके यह पुख्ता करेगा कि मामला शल्य चिकित्सक योग्य है अथवा नहीं फिर एनओसी जारी करेगा। इस प्रकिृया में लंबा समय लग सकता है। कुछ चिकित्सक तो एनओसी जारी करने से पहले मरीजों को अपने पसंदीदा अस्पतालों में भेज देते हैं। ग्वालियर में ही एक चिकित्सक के बारे में विख्यात है कि वह अपने निजी अस्पताल में शल्य चिकित्सा करते हैं और सरकारी सहायता राशि सीधे उनके अस्पताल के खाते में जाती है। क्योंकि सरकारी अस्पताल में यह व्यवस्था ही नहीं है। व्यवस्था के अभाव में चिकित्सा प्रणाली दम तोड़ रही है। दिनों-दिन ऐसे कई प्रकरण आते हैं।
ऐसा नहीं है कि सरकार के पास योग्य चिकित्सकों का अभाव है। पर उन्हें वैसी सुविधाएं नहीं हैं कि वे अपनी पूरी क्षमता से काम कर सकें। दूसरा जो चिकित्सक निजी प्रैक्टिस करते हैं या किसी निजी अस्पताल से संबद्ध हैं वे मरीजों को अपनी पसंदीदा जगह भेजा करते हैं। राजधानी भोपाल केे ही कई चिकित्सकों के बारे में यह विख्यात है कि वे देश के आला अस्पतालों से जुड़े हुए हैं और मरीजों को रेफर करने के एवज में वहांं से उन्हें धन-राशि मिलती है। जबकि जितना पैसा सरकार चिकित्सा सहायता के रूप में खर्च करती है उतने पैसे से तो सुपर स्पेशलिटी अस्पताल बनाए जा सकते हैं पर इसकी परवाह किसे है।
इस पूरे रैकेट का एक खतरनाक पहलू यह भी है कि पैसे के लालच में निजी अस्पताल उन मामलों में भी शल्य चिकित्सा कर देते हैं जिनमें शल्य चिकित्सा करने से मरीज की जान को खतरा हो सकता है। आज तक सरकार ने यह शोध करने की कोशिश नहीं की कि जिन लोगों को सरकारी सहायता के उपरांत उपचार मिला उनमें से कितने जीवित बचे, कितनों को फायदा हुआ और कितने ऐसे हैं जो शल्य चिकित्सा के बगैर नहीं जी सकते थे। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जैसी संस्थाओं का स्तर इसलिए बना हुआ है क्योंकि वे हर मामले में शोध करते हैं और अपने परिणामों का विश्लेषण भी करते हैंं। लेकिन प्रदेश में तो सारा ढर्रा चरमरा कर चल रहा है। कोई अपनी जिम्मेदारी नहीं समझना चाहता। एक वरिष्ठ चिकित्सक ने बताया है कि हृदय रोग सहित तमाम बीमारियों में 100 में से 10 प्रकरण ऐसे भी हो सकते हंै जहां शल्य चिकित्सा की आवश्यकता न हो लेकिन पैसे के लालच में निजी अस्पताल मरीजों की जान जोखिम में डालने से नहीं हिचकिचाते।
पिछले 5 वर्षोंे में कई करोड़ रुपए सरकार ने मरीजों के इलाज पर खर्च किए। सरकार के पास वह आंकड़ा तो अवश्य है कि पैसा कितना खर्च किया गया किंतु हितग्राहियों को क्या लाभ हुआ इसका आंकड़ा सरकार के पास शायद ही हो। क्या ऐसे हितग्राहियों का फॉलोअप लेने की कोशिश की गई यह भी एक बड़ा सवाल है। वर्षों से ऐसा ही होता आ रहा है। क्या मध्यप्रदेश में 8-10 बड़े शहरों में या संभागों में ऐसे अस्पताल नहीं बनाए जा सकते जिनमें मरीजों को सरकारी तौर पर सही इलाज मिल सके। एक ही अस्पताल में सभी गंभीर बीमारियों का इलाज या शल्य चिकित्सा हो सके। देखा जाए तो यह असंभव नहीं है। इसके लिए इच्छा शक्ति की आवश्यकता है। सरकार के पास फंड की भी कमी नहीं है। हर वर्ष चिकित्सा विभाग का सारा बजट उपयोग में नहीं आ पाता। क्योंकि सभी योजनाओंं पर एक साथ काम नहीं होता। पिछले कई वर्षों से बहुत सी राशि लैप्स हुई है। यदि चिकित्सा सुविधाओं को सुधारना है तो उसकी शुरूआत अस्पतालों की सेहत से ही की जानी चाहिए। क्या प्रदेश में ऐसा वातावरण तैयार नहीं हो सकता कि सरकारी अस्पताल निजी अस्पतालों से प्रतिस्पर्धा करें और बेहतर परिणाम दे? यदि ऐसा हो सका तो प्रदेश में एक अच्छा माहौल बन सकता है। देश-विदेश के निवेश को आकर्षित करने की राह देख रहे मध्यप्रदेश में सरकारी चिकित्सा सुधरनी चाहिए।

 

-Ajay Dheer

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