03-Oct-2014 10:16 AM
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मध्यप्रदेश की शहरी पुलिस रंग-भेद, वर्ण-भेद और पद-भेद की शिकार है। नई सीएसपी प्रणाली ने पुलिस को नपुंसक बना दिया है और पुलिसवालों को आला अफसरों तथा उच्चाधिकारियों की धुन पर

नाचने वाले नट। पिछले दिनों भोपाल सहित तमाम महानगरों में अपराध की भयानक घटनाएं घटीं। कुछ में जाबांज नागरिकों ने अपराधियों का मुकाबला करके उनके हौसले पस्त किए और कुछ मेें कई निरपराध नागरिकों की जान चली गई, उनका खून अपराधी द्वारा बहाया गया।
मीडिया जो कि स्वाभाविक रूप से पुलिस की नाकामियों को उजागर करने के लिए तैयार बैठा रहता है, उसने जमकर पुलिस के खिलाफ अपनी भड़ास निकाली। छोटे सिपाही से लेकर बड़े अधिकारी तक को लानत-मलानत भेजी गई। उधर कुछ जाबांज नागरिकों को पुरस्कृत करके पुलिस ने अपनी शर्म को हलका करने का प्रयास किया। लेकिन किसी ने भी यह जानने की कोशिश नहीं की, कि आखिर पुलिस की इन नाकामियों की कैफियत क्या है? आखिर क्यों अपराध वर्ष दर वर्ष बढ़ रहे हैं और पुलिस पंगु होकर बैठी हुई है। आमतौर पर ऐसी घटनाओं के बाद मीडिया पुलिस की ही आलोचना करता है, लेकिन यह जानने की कोशिश नहीं करता कि आखिर पुलिस ऐसी क्यों है? उसे अकर्मण्य, नाकारा, लालची, भ्रष्ट घोषित करने वालों ने उसकी भीतर की सच्चाई जानने की कोशिश क्यों नहीं की, यह एक बड़ा प्रश्र-चिन्ह है।
जो ऊपर दिखता है वह सच नहीं होता। सच उस आइसबर्ग के समान है, जो दो-तिहाई पानी में डूबा रहता है और उसका एक हिस्सा ही बाहर दिखाई देता है। मध्यप्रदेश की शहरी पुलिस की जो पड़ताल पाक्षिक अक्स ने की है, उससे तो यह साफ उभरकर सामने आता है कि पुलिस की इस दुर्दशा के लिए राजनीतिज्ञ और आला अफसर ही जिम्मेदार हैं। जिनकी संवेदनाएं खत्म हो चुकी हैं, सोचने-विचारने की व्यावहारिक बुद्धि घास चरने गई है और जिनके नजरिए को घुन लग चुकी है। दरअसल यह पुलिस उतनी अकर्मण्य नहीं है, जितना कि उसे बना दिया गया है। एक जमाना था जब भोपाल जैसे शहरों में एक ही एसपी हुआ करता था और वह सारे जिले की पुलिस को बेहतरी से नियंत्रित भी कर लेता था। लेकिन समय के साथ पुलिस के ढांचे में कुछ बदलाव किया गया तथा एसएसपी प्रणाली लागू कर दी गई। यह प्रणाली ही सारी समस्याओं की जड़ बन गई है। पुलिस के अंदर दो वर्ग हैं। वे जो सीधे आईपीएस बनते हैं, बाकी पुलिस वालों को इंसान ही नहीं समझते। उन्हें कूड़ा-करकट समझकर उसी तरह का व्यावहार उन लाचार पुलिसवालों के साथ करते हैं, जो पुलिस में अग्रिम पंक्ति पर तैनात हैं और सही मायनों में जिनके हाथ सुरक्षा व्यवस्था है। एसएसपी के पद पर विराजमान ज्यादातर अफसर न तो दबंग हैं और न ही कार्यकुशल। परिणाम यह है कि राजनीतिज्ञों की जी हुजूरी करने वाले यह अफसर अपने ही पुलिस वालों पर रौब जमाकर इतिश्री कर लेते हंै। इनके बीच का आपसी संवाद खत्म हो चुका है।
सीएसपी और टीआई के बीच कभी-कभार वायरलेस या फोन पर बात हो गई तो ठीक है अन्यथा सारा काम कम्प्यूटरों के भरोसे है और कम्प्यूटर विशेषज्ञों की पुलिस के पास भारी कमी है। आलम यह है कि सारे काम पुलिसकर्मी ही करते हैं, कोई अलग से करने नहीं आता और न ही इसके लिए प्रशिक्षितों की भर्ती की आवश्यकता समझी गई है। गाड़ी चलाना है तो ड्राइवर सिपाही या कोई हवलदार ही बनेगा, क्योंकि जिस ड्राइवर को थाने में होना चाहिए, वह तो किसी पुलिस के आला अफसर की मेमसाब को सरकारी गाड़ी से बाजार घुमाने ले जाता है अथवा बच्चों को स्कूल छोडऩे जाता है। कायदे से हर थाने में एक गाड़ी पर दो प्रशिक्षित ड्राइवर होने चाहिए लेकिन जिन अफसरों के यहां 4-4, 6-6 गाडिय़ां लगी हैं, उन अफसरों के यहां हर गाड़ी पर 2 ड्राइवर हैं, जो दिन भर बंगले पर मक्खी मारते रहते हैं लेकिन इस प्रदेश की जनता को सुरक्षा प्रदान कर रहे थानों में ड्राइवर ही नहीं हैं। कमी केवल यही नहीं है। देखा जाए तो 50 हजार की आबादी पर 1 थाना होना चाहिए। इस लिहाज से भोपाल में 40 थाने हैं और आबादी के हिसाब से थानों की संख्या लगभग पर्याप्त ही है। लेकिन यह थाने अपनी पूरी कैपेसिटी से काम ही नहीं कर पाते। नियमत: थाने में 1 टीआई, 5 थानेदार, 5 एएसआई, 20 हवलदार और 30 सिपाही होने चाहिए। इस प्रकार 1 थाने में लगभग 61 लोगों का स्टाफ होता है। किंतु इनमें से 10 लोगों का स्टाफ तो ऑफिस इत्यादि की ड्यूटी मेेंं ही तैनात रहता है। टीआई को छोड़कर बाकी 40 कर्मचारियों को 20-20 की शिफ्ट में तैनात किया जाता है, जिनमें से 10 पुलिसकर्मी लॉ एण्ड आर्डर में लगे रहते हैं। बाकी 2-2 पुलिसकर्मियों के 5 समूह पैट्रोलिंग करते हैं। हर थाने में 4-5 बीट होती हैं, उस हिसाब से यह बल विभक्त हो जाता है। देखा जाए तो 50 हजार आबादी पर 1 थाने में तकनीकी रूप से साढ़े 12 हजार आबादी पर एक सक्रिय पुलिसवाला है, जबकि नियम यह है कि प्रति हजार जनसंख्या पर एक पुलिसवाला तैनात होना चाहिए। किंतु स्टाफ की इस कमी से वे कर्तव्य परायण पुलिसवाले निपटने में सक्षम हैं, लेकिन उनके पास संसाधनों का व्यापक अभाव है। महिंद्रा की जीर्ण-शीर्ण जर्जर गाडिय़ां उन्हें पैट्रोलिंग के लिए मिलती हैं, जो हर थाने में एक ही है। इसी गाड़ी को 180 लीटर ईंधन में वे पूरे माह चलाते हैं। ये गाड़ी भी टीआई को उपलब्ध है जबकि हर आईपीएस की सेवा में औसतन 4 वाहन लगे हुए हैं। ड्राइवर एक भी नहीं है क्योंकि वे सब बंगलों पर तैनात हैं। लेकिन ड्राइवरों की तैनाती का ही सवाल नहीं है सीएसपी, एसडीओपी से लेकर तमाम बड़े अफसरों के कार्यालय में बल स्वीकृत नहीं है इसलिए इनकी ड्यूटी बजाने के लिए भी थाने से ही बल लिया जाता है। जिन पुलिसकर्मियों को जनता की हिफाजत करनी चाहिए वे अफसरों की चिरौरी करते नजर आते हैं। अपराधी तो एसयूवी जैसे वाहनों में चलते हैं और पुलिस काम चलाऊ ड्राइवरों के भरोसे महिंद्रा की जीप में। मध्यप्रदेश पुलिस का आधुनिकीकरण तो किया जा रहा है। कम्प्यूटराइजेशन भी किया गया है लेकिन स्टाफ कहां है?
जिन एसएसपी को महत्वपूर्ण जिम्मदारी दी गई है, वे तो इतने डरपोक हैं कि लिखित में निर्देश देने में भी उनके पसीने छूटते हैं। राजनीतिक दबाव के चलते अपराधों का सुपरविजन करने से डरते हैं। उन्हें अपनी सीआर और प्रमोशन की चिंता इतनी है कि वे अपने ही अधीनस्थों का हित नहीं कर पाते। छुट्टी देने तक के अधिकार उनके पास नहीं हैं। एसएसपी प्रणाली ने पूरा कबाड़ा कर दिया है। अंग्रेजों के जमाने में रंग-भेद था और वे अपने को सुपीरियर समझते थे। नए जमाने के अंग्र्रेज ये अफसर हैं। चूंकि एसएसपी सीनियर आईपीएस होता है इसलिए उसे अपने भविष्य की ज्यादा फिर्क रहती है। उधर आरआर जो सीधे आईपीएस के थ्रू आते हैं, अपने आप को महामानव समझते हैं। वे पुलिस के छोटे सिपाही से लेकर डीएसपी तक को तुच्छ अधिकारी मानकर उन्हें डांटना-डपटना और उनका अपमान करना अपना अधिकार समझते हैं। जिन पुलिसकर्मियों को उनके अधिकारी ही बेइज्जत करें, अपने कार्यालयों में बैठे मीडियाकर्मियों के समक्ष उनका मान-मर्दन करें, उन्हें डांटकर पत्रकारों के समक्ष अपनी जागरूकता का परिचय दें- उन पुलिसकर्मियों का मनोबल क्या होगा यह समझा जा सकता है। उनके दर्द को महसूस किया जा सकता है। लेकिन वे छोटे पुलिसकर्मी चुपचाप सहते हैं, क्योंकि उनकी आईपीएस एसोसिएशन जैसी कोई एसोसिएशन नहीं है। वे अपनी मांग डर के मारे रख ही नहीं पाते, विरोध ही नहीं जता पाते। क्योंकि उन्हें ज्ञात है कि नक्कारखाने में तूती की आवाज नहीं गूंजेगी और यदि किसी ने साहस किया भी, तो यह अधिकारी उसे ऐसा उलझाएंगे कि वह पानी मांगता नजर आएगा।
कभी भोपाल पुलिस के अंतिम एसपी जयदीप प्रसाद ने अपनी कार्यकुशलता का परिचय देते हुए शहर में अपराधों पर व्यापक नियंत्रण किया था। लेकिन एसएसपी प्रणाली के बाद अपराध बढऩे लगेे और उधर पुलिस वालों पर उनके अधिकारियों के अत्याचार भी बढ़ गए। सरकार पुलिस के कल्याण की बात करती है लेकिन सरकार को यह शायद पता हो कि सीएम स्वास्थ्य योजना के तहत पुलिसवालों के लिए जो 8 लाख रुपए की सहायता की घोषणा की थी उसका नतीजा शून्य निकला है। एक भी हितग्राही पूरे प्रदेश में नहीं मिला। क्या प्रदेश की पुलिस बीमार नहीं पड़ती? दरअसल सरकारी अडंग़ों के चलते पुलिसवालों की ऐसी सहायताओं में श्रद्धा ही नहीं रह गई है। पर्दे के पीछे का यह भयानक सत्य है।
डीजीपी नंदन दुबे ने पुलिसकर्मियों को प्रमोशन देकर अच्छी पहल की थी, लेकिन इसका परिणाम यह निकला कि संख्या तो बढ़ गई किंतु गुणवत्ता घट गई। प्राय: हर थाने में ऐसे एएसआई और टीआई मिल जाएंगे जिन्हें एफआईआर तक लिखना नहीं आता। थाना स्तर की पुलिस समस्याग्रस्त हो गई है। कभी योगेश चौधरी, आदेश कटियार जैसे अधिकारियों ने पुलिस का मनोबल बढ़ाया था, वे मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत थे। उन्होंने फोर्स को तनावमुक्त भी किया, लेकिन अब जो अधिकारी हैं वे पूरी तरह नाकारा और पुलिस के मनोबल को तोडऩे वाले हैं। चुनाव के समय तो आलम यह हो गया था कि आईजी स्वयं फील्ड में आए और उन्होंने व्यवस्था संभाली। क्या यह नई प्रणाली की विफलता नहीं है?
-Sunil Singh