18-Sep-2014 06:04 AM
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क्या भारत के गांवों में दलित-सवर्ण एक पंगत में बैठकर खा सकते हैं? उनके बीच रोटी-बेटी का व्यवहार हो सकता है? क्या दलितों का सवर्णों के दालान से आगे बैठक और आवश्यकता पडऩे पर चौके में
प्रवेश संभव है? क्या वे बेधड़क मंदिर जा सकते हैं? क्या उनमें से कोई वेद ज्ञानी, पंडित, पुरोहित बनने की योग्यता प्राप्त कर सकता है? और यदि ये योग्यता हासिल हो भी गई तो क्या वह उसी सहजता से वे सारे कर्मकांड करा सकता है? क्या उसे अछूत कहने वाला सवर्ण समुदाय बेहिचक दलितों की बहन-बेटियों से बलात्कार करके उनकी हत्या न कर डालता है?
इनमें से अधिसंख्यक प्रश्नों के उत्तर न में मिलेंगे। दक्षिण भारत या महाराष्ट्र, गुजरात के कुछ एक गांवों में हालात बेहतर हो सकते हैं। लेकिन बाकी देश में तो शहर हो या गांव दलित आज भी घृणा के पात्र हैं। उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है और उनके प्रति होने वाले अपराधों का अनुपात कहीं ज्यादा है। वे जमीन से बेदखल किए जाने से लेकर सार्वजनिक मानमर्दन और हत्या, हिंसात्मक हमले जैसे खतरों का सामना आए दिन करते हैं। उनकी बहन-बेटियां सुरक्षित नहीं हैं। दबंग-सवर्णों के आमंत्रण ठुकरा देने पर कभी भी उन्हें किसी पेड़ से लटकाया जा सकता है, रेल्वे ट्रैक पर उनकी नग्र लाश पड़ी मिल सकती है। जो समुदाय इतनी उपेक्षा, अपमान और पीड़ा आज से नहीं हजारों वर्षों से झेल रहा हो वह यदि धर्मांतरण करता है तो इसमें इतना आश्चर्य और हंगामा क्यों है? जिन्हें हम सदियों से गले नहीं लगा पाए, पे्रम नहीं कर पाए, निरंतर नफरत से हमने उन्हें सदैव देखा आज उनमें से कुछ हताशा और क्षोभ से अपना धर्म त्याग रहें हैं तो इसमें कसूर सिर्फ उनका है इस समाज का नहीं है जिसने सदैव ही उनके समक्ष घृणा और नफरत परोसी है। मप्र के शिवपुरी जिले के खनियांधाना गांव के जिन दो युवकों तुलाराम और मनीराम जाटव परिवारों के बीस सदस्यों ने धर्मांतरण कर मुसलमान बनने की घोषणा की थी उनका दर्द समझने की कोशिश कभी हमने की? जिन्हेंं मंदिरों में नहीं जाने दिया जाएगा वे कहीं और तो जाएंगे ही। जिनके साथ भेदभाव किया जाएगा उनकी आस्था तो डगमगाएगी ही। शुक्रगुजार होना चाहिए हमें दलितों का जिन्होंने सैकड़ों वर्ष अपमान का घूंट पिया फिर भी अडिग रहे, अपना मतांतरण नहीं किया।
वे हर युद्ध में आगे रहे अपने प्राणों की आहुति देकर इस मातृ भूमि और हिंदु धर्म को बचाते रहे। उन्होंने ही सर्वप्रथम यवनों का मुकाबला किया और आज इस धरती के पुत्रों ने उन्हें उपेक्षा, तिरस्कार के अंधकार में धकेल दिया।
संघ प्रमुख मोहन भागवत का यह आग्रह कि हिंदुओं का एकीकरण होना चाहिए और उनके बीच जाति वादी बंधन टूटने चाहिए, आज के समय की महती आवश्यकता है। हिंदुओं में किसी भी व्यक्ति को दलित मानने की प्रक्रिया आक्रांताओं के आगमन के साथ ही शुरू हुई। जब आक्रांताओं ने अपना धर्म उन पर थोपना चाहा तो उन वीरों ने निकृष्ट कार्य करना स्वीकार किया लेकिन अपना धर्म नहीं बदला। आज उन्हीं वीरों की संतानों को स्वतंत्रता के इतने वर्ष बाद भी उपेक्षा और अपमान झेलना पड़ रहा है तो यह दुखद ही है। भारतीय वांग्मय में कर्म करने को श्रेष्ठ गुण बताया गया है और जो कर्मठ है वही देवतुल्य तथा संपूर्ण पुरुषार्थी है ऐसा हमारे धर्म ग्रन्थ भी कहते हैं। ऐसे में कोई भी कर्म हीन कैसे हो सकता है? सभी कर्म श्रेष्ठ हैं क्योंकि वे समाज के हित में किए जा रहे हैं। दुर्भाग्य यह है कि हमने किसी व्यक्ति के कर्म को ही उसका प्रारब्ध मानते हुए उस पर अपनी नफरत आरोपित कर दी। जाति प्रथा ने हिंदु समाज को घुन की तरह खोखला कर दिया है। आज हिंदू तलाशने पर नहीं मिलते। तलाशो तो वामन, बनिया, ठाकुर, चर्मकार, तेली न जाने कितनी जातियां और उनकी उपजातियां मिल जाएंगी। यह समाज इन्हीं जातियों में बंटा है। हर जाति दूसरी जाति से नफरत करती है और अपने को श्रेष्ठ समझ लेती है। किसी विचारक ने कहा था कि भारत में हर जाति अपने से नीची जाति को तलाश लेती है। हम इंसान को इंसान नहीं समझते उसे वामन, बनिया, शुद्र, दलित ही समझते हैं। यही हमारी पहचान है और यही हमारी कमजोरी। इसी कमजोरी ने आक्रांताओं को निमंत्रण दिया और हम बार-बार गुलाम बनने को विवश हुए।
आज देश को एक सशक्त नेतृत्व भले ही मिल गया हो किंतु प्रश्र वही है कि क्या हम संगठित हैं? हमारे भीतर की नफरत खत्म हो चुकी है? क्या हिंदू वास्तव में हिंदू है? वह जाति-संप्रदायों और पंथों में बंटा हुआ नहीं है? क्या उसके भीतर जाति वादी नफरत खत्म हो चुकी है? इन सवालों का जवाब तो तलाशना ही होगा और धर्मांतरण जैसी बुराई से मुक्ति भी तभी मिलेगी जब इन सवालों का सही जवाब मिल जाएगा। इसलिए उन बंधुओं पर क्रोधित होने की आवश्यकता नहीं है जो हताशा में पथभ्रष्ट होने को विवश हो गए थे। क्योंकि धर्मांतरण अपराध भले ही हो लेकिन उससे भी बड़ा अपराध है मानव मात्र से नफरत करना।
-Sanjay Shukla