सतना, रतनगढ़ हादसों पर सख्त हुआ मानवाधिकार आयोग
18-Sep-2014 05:47 AM 1234800

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सतना, रतनगढ़ जैसे हादसों पर चिंता जताते हुए मप्र सरकार को अनुसंशा की है कि वह भीड़ के उचित प्रबंधन के लिए मशीनरी बनाए। आयोग का कहना है कि मप्र सरकार को राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिकरण की गाईडलाइन का सख्ती से पालन करना चाहिए ताकि इस तरह के हादसे न हों। ज्ञात रहे कि मप्र के रतनगढ़ में दो-दो बार भगदड़ मची जिसमें 150 से अधिक लोग मारे गए और सतना में भी अगस्त माह मेें भगदड़ मचने से कई लोग मारे गए। इसके बाद भी सरकार ने कोई विशेष उपाय नहीं किया।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग पिछले दिनों अपने दो दिवसीय विशेष शिविर के लिए भोपाल की प्रशासनिक अकादमी में पूरे दल-बल के साथ था। शीर्ष अधिकारियों सहित आयोग के अध्यक्ष केजी बालकृष्णन भी आए हुए थे। इस दौरान आयोग ने लगभग 74 प्रकरणों की सुनवाई भी की। राधाकांत त्रिपाठी नामक शिकायतकत्र्ता की शिकायत पर विशेष ध्यान देते हुए आयोग ने रतनगढ़ जैसे हादसों के लिए सरकार को विशेष सुझाव दिए हैं। इस शिविर में मप्र सरकार के प्रतिनिधियों ने बताया कि रतनगढ़ हादसे में 110 पीडि़तों को 5 लाख का मुआवजा दिया गया। 17 परिवार उप्र से थे जिनके मुआवजे का सबूत सरकार बाद में उपलब्ध कराएगी। आयोग ने 2006 के हादसे के बाद जस्टिस पांडे की रिपोर्ट भी तलब की। जीएडी के प्रिंसिपल सेक्रेटरी के. सुरेश ने आयोग को बताया कि यह रिपोर्ट विधानसभा में रखी जा चुकी है और आयोग को भी उपलब्ध करा दी जाएगी। आयोग ने झाबुआ, कटनी, श्योपुर और उज्जैन में अनुसूचित जाति के बच्चों के साथ किए जा रहे जातीय भेद-भाव को भी गंभीरता से लिया है। इस दो दिवसीय शिविर के दौरान कहीं न कहीं यह प्रतीत हुआ कि मानवाधिकार आयोग की बैठकों को अधिकारी गंभीरता से नहीं लेते हैं। जस्टिस बालकृष्णन ने भी शिविर के दौरान जिम्मेदार अधिकारियों की गैरमौजूदगी पर असंतोष प्रकट किया, बाद में दूसरे दिन मुख्य सचिव सहित पुलिस और प्रशासन के कई बड़े अधिकारी शामिल हुए। आयोग के समक्ष कई मामले लाए गए। कुछ में पाया गया कि पीडि़तों की पेंशन रुकी हुई है तो कुछ में प्रताडऩा और भेदभाव की शिकायतें भी मिलीं। आयोग ने सरकार को आवश्यक अनुशंसाएं की हैं। 
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने मुख्य सचिव अन्टोनी डिसा, पुलिस महानिदेशक नंदन दुबे और राज्य शासन के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ भी एक अलग बैठक में चर्चा की। मुख्य सचिव ने कहा कि आयोग द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसार सभी संबंधित विभाग आवश्यक कार्यवाही करेंगे। राज्य सरकार ने समय-समय पर मानव अधिकार से जुड़े लंबित प्रकरणों की समीक्षा भी की है। इससे अधिकांश प्रकरणों का निपटारा हो गया है। शिकायतकत्र्ताओं को राहत राशि देने का कार्य भी किया गया है। मुख्य सचिव ने बताया कि शिक्षा, स्वास्थ्य, सार्वजनिक स्वच्छता, श्रमिक कल्याण और गृह विभाग से जुड़े प्रकरणों में अविलंब कार्यवाही की गई है। उन्होंंने आयोग को आश्वस्त किया कि भविष्य में भी समय-सीमा में मामलों को हल किया जाएगा। मुख्य सचिव ने राष्ट्रीय आयोग को यह भी जानकारी दी के सीधे भुगतान की व्यवस्था की गई। मध्यप्रदेश यह व्यवस्था लागू करने वाला पहला राज्य है। इसी तरह सभी रोगियों को नि:शुल्क दवाएं, चिकित्सकीय जांच, परिवहन आदि की सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं। राज्य की लगभग 70 प्रतिशत आबादी के लिए रियायती दर पर खाद्यान्न और अन्य उपभोक्ता सामग्री उपलब्ध कराई गई। गरीबी रेखा से नीचे जीवन जी रहे लोगों के साथ ही राज्य में 23 अन्य श्रेणियों के उपभोक्ता लाभान्वित किए जा रहे हैं। बैठक में जेल महानिदेशक सुरेन्द्र सिंह भी उपस्थित थे।
नख-दंत विहीन है आयेाग
जस्टिस बालकृष्णन इस बात से दुखी थे कि मप्र के राज्य मानवाधिकार आयोग की बहुत सी अनुशंसाओं को सुना ही नहीं जाता है और न ही उनका कोई उत्तर दिया जाता है। प्रदेश में मानवाधिकार आयोग वर्षों से कार्यरत है पर अभी भी जातीय भेदभाव से लेकर मानवाधिकार के उल्लंघन के कई मामले देखने में आते हैं। आयोग की कई अनुशंसाएं अभी भी लंबित हैं। दरअसल आयोग केवल अनुशंसा कर सकता है उन अनुशंसाओं को लागू करना या न करना राज्य सरकार के ऊपर निर्भर है। बहुधा होता यह है कि राज्य सरकारें आयोग की अनुशंसाओं को गंभीरता से नहीं लेती हैं। कुछ एक मामलों में अनुशंसा मान ली जाती है पर ऐसा तभी होता है जब मीडिया से लेकर अन्य बाहरी दबाव सक्रिय हो गए हों। आयोग के सामने भगवान नामक एक व्यक्ति का प्रकरण आया था जो 20 साल तक लगातार भटकने के बाद सरकार को यह विश्वास दिला पाया कि वह अनुसूचित जाति का है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस हद तक लापरवाही हो रही है।

 

-Brijesh Sahu

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