वसुंधरा के समक्ष चुनौती
19-Feb-2013 11:10 AM 1234781

राजस्थान में वसुंधरा राजे की अध्यक्ष के रूप में ताजपोशी कर तो दी गई है किंतु उनके समक्ष चुनौतियां कम नहीं है। राज्य में बिखरी हुई भारतीय जनता पार्टी को समेटना और एकजुट करना कठिन है। भाजपा कई खेमों में बटी हुई है तथा गुलाबचंद कटारिया जैसे नेताओं को विधानसभा में विपक्ष का नेता भले ही बना दिया गया हो लेकिन उनकी महत्वाकांक्षाएं दिन-ब-दिन बलशाली होती जा रही हैं। कटारिया ने समय की नजाकत को देखते हुए फिलहाल चुप रहना बेहतर समझा है पर राज्य में मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के समय दो-तीन नाम सामने आ सकते हैं जिनमें कटारिया और वसुंधरा राजे प्रमुख रहेंगे। हालांकि राज्य के राजनीतिक वातावरण पर निगाह रखने वालों का कहना है कि वसुंधरा को नजरअंदाज कर राजस्थान में भाजपा का चुनाव जीतना असंभव है। इसीलिए भाजपा ने कटारिया और वसुंधरा को साथ रखते हुए संतुलन साधने की कोशिश की है। माना जा रहा है कि यदि चुनाव बाद वसुंधरा की ताजपोशी होती है तो एक व्यक्ति एक पद के फार्मूले को अपनाते हुए कटारिया को अध्यक्ष बनाकर वसुंधरा को मुख्यमंत्री पद सौंप दिया जाएगा। लेकिन यह गणित कितना कारगर होगा यह तो आना वाला वक्त बताएगा। फिलहाल तो जो समीकरण भाजपा के नए अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अपनाया है उसका सार यह है कि किसी को भी नाराज न किया जाए और सभी को साध लिया जाए।
हालांकि आलाकमान ने जो यह फार्मूला निकाला है उससे विधानसभा में भाजपा के उपनेता घनश्याम तिवाड़ी और कुछ अन्य वरिष्ठ नेता नाराज बताए जा रहे हैं। लेकिन सत्ता प्राप्ति के लक्ष्य को हासिल करने के लिए कभी कभार इस तरह के असंतोष की ज्यादा परवाह नहीं की जाती। वसुंधरा के विरोधी खेमे ने पूरा प्रयास किया था कि राजे के हाथ में कमान नहीं जाने पाए, इसके लिए पिछले दिनों राज्य के पार्टी प्रभारी कप्तान सिंह सोलंकी के समक्ष स्थिति साफ कर दी गयी थी। कटारिया की ओर से तो कथित रूप से यहां तक कह दिया गया था कि वह पार्टी में रहने के लिए बाध्य नहीं हैं। जब शेखावत उपराष्ट्रपति बनकर दिल्ली आ गये तब राज्य के वरिष्ठ पार्टी नेताओं को दरकिनार कर सिंधिया राजघराने की सदस्य वसुंधरा राजे सिंधिया को कमान सौंप दी गयी। पार्टी आलाकमान के निर्णय पर तब सभी को आश्चर्य हुआ था क्योंकि गहलोत के बड़े राजनीतिक कद के मुकाबले वसुंधरा कहीं नहीं ठहरती थीं। संभवत: गहलोत भी उस समय राजे की भाजपा अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति पर प्रसन्न हुए होंगे लेकिन जल्द ही तब सभी को राजे को कमान सौंपने का निर्णय सही प्रतीत होने लगा जब परिवर्तन यात्रा के दौरान वसुंधरा को राज्य भर में अपार समर्थन मिलने लगा। वसुंधरा ने जैसा देश वैसा भेष की तर्ज पर अपना पहनावा तय किया साथ ही चुनाव प्रचार के दौरान राजपूतों से कहा कि वह उनकी बेटी हैं, जाटों से कहा कि वह उनकी बहू है और गुर्जरों से कहा कि वह उनकी समधिन हैं। उनकी यह तरकीब काम कर गयी और राज्य में पहली बार भाजपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। लेकिन इस सरकार से जनता का धीरे धीरे मोहभंग होने लगा और वसुंधरा पर महारानी जैसा बर्ताव करने के आरोप लगने लगे। इसके अलावा ललित मोदी जैसे उद्योगपतियों के कारण भी उनकी सरकार की छवि खराब हुई। यही नहीं उपराष्ट्रपति पद से हटने के बाद खुद शेखावत ने राजे के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। आखिरकार चुनावों में भाजपा हार गई तब इस तरह के विश्लेषण भी आये कि पार्टी की हार के लिए खुद भाजपा नेता ही जिम्मेदार हैं यदि उन्होंने एकजुट होकर चुनाव लड़ा होता तो हार नहीं होती।
कटारिया के लिए बतौर नेता प्रतिपक्ष बजट सत्र, वर्षाकालीन सत्र और संभवत: शीत सत्र में विपक्ष का नेतृत्व करना है। कटारिया और वसुंधरा के बीच मतभेद की खबरें तो तब भी आती थीं जब कटारिया राजे सरकार में गृहमंत्री थे। पिछले वर्ष कटारिया ने राज्यभर में यात्रा निकालने का निर्णय किया था लेकिन वसुंधरा ने पार्टी आलाकमान के समक्ष आपत्ति दर्ज कराकर यह यात्रा रुकवा दी थी। पार्टी के अभी तक अध्यक्ष रहे अरुण चतुर्वेदी संघ खेमे के माने जाते हैं इसलिए उनकी भी वसुंधरा से नहीं बनती थी। कथित रूप से वसुंधरा की शेखावत के जमाने के किसी भी वरिष्ठ नेता से नहीं पटने के चलते भाजपा आलाकमान भी चिंतित था और राज्य में पार्टी इकाई में एकजुटता के प्रयास पिछले कुछ समय से फिर शुरू किये थे। लेकिन सभी खेमों के अपने अपने रुख पर अड़े रहने के चलते स्थिति जटिल हो रही थी इसी के चलते प्रदेश भाजपा अध्यक्ष का चुनाव भी टला। अब जो समझौता फार्मूला निकाला गया है उसमें पिछली बार की तरह महती भूमिका निभाई अरुण जेटली ने।
वसुंधरा ने जब पूर्व में अध्यक्ष पद छोड़ा था और अब जब पुन: अध्यक्ष पद संभाला है, इस दौरान पार्टी के जो भी बड़े निर्णय रहे उनमें राजे की ही चली। विधायक दल में अपना दबदबा होने और राज्यभर में अपना व्यापक समर्थन होने के चलते वह पार्टी आलाकमान से अपनी मांगें मनवाने में सफल रहती हैं। पार्टी ने अभी राजे को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित किया है लेकिन चुनावों से पहले शायद ऐसा हो जाये। यह घोषणा नहीं भी की जाती है तब भी यदि सरकार बनती है तो राजे ही मुख्यमंत्री पद की प्रबल उम्मीदवार होंगी क्योंकि अपने ज्यादा से ज्यादा समर्थकों को टिकट देने की शक्ति जो उनके पास आ गयी है। बहरहाल राजस्थान, जहां इस वर्ष के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं वहां मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होता रहा है। भाजपा को लगता है कि वर्तमान अशोक गहोलत सरकार से जनता नाराज है और यदि सही नेतृत्व मिले और मुख्य मुद्दों पर ध्यान लगाया जाए तो जनता दोबारा पार्टी को राज्य की कमान सौंप सकती है। राजस्थान में सत्ता पाना पार्टी के लिए इसलिए भी जरूरी है क्योंकि उत्तर भारतीय राज्यों में उसका आधार खिसकता जा रहा है। साथ ही राज्य में यदि भाजपा सरकार बनती है तो अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनावों में यहां की 25 संसदीय सीटों में से पार्टी को अभी के मुकाबले ज्यादा सीटों का लाभ हो सकता है।
जयपुर से आरके बिन्नानी

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