04-Feb-2013 11:32 AM
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राजस्थान भारतीय जनता पार्टी में अध्यक्ष पद के लिए उपयुक्त प्रत्याशी की तलाश जोर-शोर से जारी है। हालांकि वर्तमान अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी को लेकर राज्य में कोई विशेष प्रतिरोध नहीं हैं किंतु पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी में जो घटनाक्रम हुए हैं उसके चलते अरुण चतुर्वेदी की दोबारा ताजपोशी संदिग्ध लग रही है। कहा जा रहा है कि मध्यप्रदेश और केंद्र की तर्ज पर राजस्थान में भी अध्यक्ष को बदलने का फैसला अंतिम समय पर कर ही लिया जाएगा। अरुण चतुर्वेदी यूं तो सभी को साथ लेकर चलने में कामयाब हुए हैं किंतु मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में दावेदारी प्रस्तुत करने वाली वसुंधरा राजे से उनकी पटरी ज्यादा नहीं बैठ पा रही है। चतुर्वेदी स्वतंत्र स्वभाव के नेता हंै और वसुंधरा राजे को चाटुकारों से विशेष लगाव है। इसी कारण चतुर्वेदी को चुनाव के समय वसुंधरा बर्दाश्त कर पाएंगी इसमें संदेह ही है। पिछले दिनों वसुंधरा राजे ने जिस तरह का खेल खेला है उसे देखते हुए भी यह कहना अब कठिन है कि चतुर्वेदी को दोबारा प्रदेश की बागडोर सौंपी जाएगी। उधर कुछ अन्य नेता भी इसी बहाने अपनी उम्मीदवारी को पुख्ता करने में जुट गए हैं, किंत इस बार अध्यक्ष उसे ही बनाया जाएगा जो वसुंधरा राजे का करीबी होगा। इसका फायदा वसुंधरा राजे को टिकिट वितरण के समय ही मिलेगा। क्योंकि वे विधानसभा में अपनी टीम लेकर जाना चाह रही हैं उनके करीबियों ने अभी से वसुंधरा के पक्ष में दिल्ली में लॉबिंग शुरू कर दी है।

हालांकि राजनाथ सिंह से उनकी पटरी इतनी अच्छी तरह नहीं बैठती है, लेकिन वे ज्यादा आश्वस्त नजर आ रही हैं क्योंकि राज्य में जो भी सर्वेक्षण कराए गए हैं उनमें भाजपा की तरफ से मुख्यमत्री के रूप में वसुंधरा राजे को ही सर्वोच्च प्राथमिकता मिली है। राजस्थान राजा-महाराजाओं का स्थान है इसी कारण यहां की जनता किसी राजघराने के प्रतिनिधि को ही अपने मुखिया के रूप में स्थापित करने को तरजीह देती आई है। वसुंधरा राजे राजस्थान की जनता की इस कसौटी पर खरी उतरती हैं तो उनका चुना जाना लगभग तय हो सकता है। किंतु प्रश्न यही है कि पार्टी द्वारा प्रत्याशित घोषित किए जाने के बाद वसुंधरा राजे चुनाव कैसे जीतेंगी। चुनाव जीतने के लिए उन्हें राज्य में पनपते असंतोष को दबाना होगा। भारतीय जनता पार्टी को सत्ता विरोधी मत के रुझान का फायदा होता दिख तो रहा है, लेकिन यह फायदा तभी सही रूप में मिल सकेगा जब पार्टी एकजुट दिखाई दे। वर्तमान में जो संभावनाएं हैं उसके चलते पार्टी बिखरी सी दिखाई दे रही है और वसुंधरा राजे इस बिखराव को समेटने से ज्यादा अपनी पसंद के लोगों को विभिन्न पदों पर बिठाने पर यकीन रखती है। यही वजह है कि राजस्थान की सत्ता पर एक बार फिर काबिज होने को तैयार खड़ी वसुंधरा राजे हर हाल में प्रदेश अध्यक्ष के रूप में अपने किसी चहेते का चेहरा देखना चाहती हैं। क्योंकि एक तो वे पहले ही राजस्थान में बीजेपी के अगले सीएम के रूप में अपने आप को स्थापित कर चुकी हैं। दूसरा, वे मानकर चल रही है कि सूबे की बीजेपी का सरदार उन्हीं का होगा, तभी वे सत्ता की सीढिय़ों की तरफ सरक सकेंगी। वरना मामला मुश्किल है पिछली बार की तरह। पिछली बार ओम प्रकाश माथुर राजस्थान बीजेपी के अध्यक्ष थे। उनके अध्यक्षीय आचरण की वजह से वसुंधरा राजे अपनी मनमानी करने में असफल रही और झगड़े में सत्ता की सीढिय़ों से फिसलकर पांच साल के लिए घर बैठने को मजबूर हुईं। इस बार वे कोई कमी नहीं छोडऩा चाहतीं, सो पार्टी पर अध्यक्ष बदलने के लिए दबाव डाल रही हैं। इसीलिए राजस्थान में बीजेपी अपने अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी की जगह किसी नए अध्यक्ष पर नहीं, बल्कि महारानी के मुखौटे पर मंथन कर रही है।
पर्यवेक्षकों का मानना है कि एक बेहतरीन कार्यकाल देनेवाले अध्यक्ष को हटाकर महारानी को कुछ भी मिलनेवाला नहीं है। क्योंकि, राजनीति बहुत अजीब किस्म की उलझनों का मायाजाल है। फिर राजनीति अगर राजस्थान की हो, उस पर भी बीजेपी की हो, तो उलझनें और मुश्किल हो जाती हैं। पहली उलझन यह है कि जब कोई बड़ा नेता किसी एक नेता का समर्थन करता है, उसे आगे लाता है और उसे ताकत बख्शता है, तो बाकी बहुत सारे पुराने साथी भी उससे नाराज हो जाते हैं। फिर यहां तो अरुण चतुर्वेदी को हटाकर किसी को बैठाना है। सो, डबल संकट है। राजनीति में खेमे होते हैं, उन खेमों में भी खेमेबाजी होती है। अत: वसुंधरा खेमे से जो मुखिया बनेगा, उसके विरोध में भी खड़े होनेवालों की वसुंधरा खेमे में ही कमी नहीं होगी। फिर अरुण चतुर्वेदी भी कोई कम ताकतवर नहीं हैं। उनके समर्थक और उनके लोग नाराज होंगे, वह अलग। लेकिन महारानी फिर भी माथा मार रही है। कैसे भी करके अपने आदमी को प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाहती है। राष्ट्रीय स्तर पर राजनाथ सिंह नए मुखिया हैं। वे जैसा चाहेंगे, करेंगे। हो सकता है, महारानी के पसंदीदा को राजस्थान बीजेपी के मुखिया पद पर बिठाने का फैसला कर लें। मुश्किलें फिर भी कम होनेवाली नहीं हैं। ओम प्रकाश माथुर फिलहाल भले ही साथ हैं, पर उनकी याददाश्त अभी इतनी कमजोर नहीं हुई हैं कि वसुंधरा के दिए घाव भूल गए हों। घनश्याम तिवाड़ी के भी घनघोर तेवर देखने लायक हैं। वृद्ध होते जा रहे ललित किशोर चतुर्वेदी भी कोई कम खरतनाक नहीं हैं। गुलाबचंद कटारिया वार पर वार कर रहे हैं। जसवंत सिंह ने वसुंधरा के खिलाफ सीधे-सीधे मोर्चा खोल रखा था, वह उन्होंने अभी भी पूरी तरह बंद नहीं किया है। लेकिन फिर भी महारानी की सुनी जाएगी इस बात के प्रबल आसार है।
-जयपुर से आरके बिन्नानी