17-Sep-2014 06:19 AM
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कुछ वर्ष पहले की बात है पूर्वाेत्तर की किसी जेल में एक ऐसे कैदी का पता चला जिसने अपनी उम्र के 27 वर्ष जेल की सलाखों के पीछे गुजार दिए थे और उसे पता भी नहीं कि उसका जुर्म क्या था।

जिस न्यायाधीश ने उस कैदी की यह दशा देखी उसकी आंखों में आंसू आ गए। क्योंकि जेल के रिकार्ड में भी उस कैदी के जुर्म का कोई जिक्र नहीं था। बिना किसी जुर्म के उस कैदी ने अपनी जिन्दगी के 27 सुहाने वर्ष जेल की चारदीवारियों के बीच में ही काट दिए क्योंकि उसकी सुनवाई करने वाला कोई नहीं था और न ही कोई उसका जमानतदार था या फिर कोई ऐसा जो उसे उस नर्क से छुटकारा दिलाने के लिए प्रयास कर सके। हमारी जेलें ऐसी ही हैं। संजय दत्त बारह माह के भीतर जब चाहें तब पैरोल पर बाहर आ सकते हैं। जेल में भी उन जैसे ताकतवर और रसूखदार कैदियों को सारी सुविधाएं मिल सकती हैं लेकिन गरीब, लाचार और बेजार अपराधी वर्षों गुजार देते हैं, न्याय का इंतजार करते और जब फैसला आता है तो पता चलता है कि जो सजा मिली है उससे कई गुना ज्यादा कैद तो वे पहले ही काट चुके हैं। हाल ही में जब सुप्रीम कोर्ट ने संभावित सजा का आधा समय काट चुके लगभग ढाई लाख कैदियों की रिहाई का आदेश दिया तो कहीं न कहीं यह लगा कि देर से ही सही सर्वोच्च अदालत ने उचित न्याय देने की दिशा में प्रभावी कदम तो उठाया।
न्याय में देरी भारतीय न्याय व्यवस्था का वह नासूर है जिसके चलते अनेक लोगों से अनायास ही अन्याय हो जाता है। हर वर्ष यही कहानी दोहराई जाती है। ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हैं जब विचाराधीन कैदियों ने जेल की सलाखों के पीछे ही दम तोड़ दिया या न्याय के इंतजार में दशकों गुजार दिए।
देखना यह है कि अगर इस काम में कोई बाधाएं आती हैं तो उन्हें आसानी से दूर किया जा सकेगा या नहीं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि इसमें संदेह है कि राज्य सरकारों के पास ऐसे कोई आंकड़े होंगे कि उनकी जेलों में बंद कितने विचाराधीन कैदी अपनी संभावित सजा का आधा समय काट चुके हैं? चूंकि यह स्पष्ट नहीं है कि क्या सुप्रीम कोर्ट का आदेश हत्या और दुष्कर्म के आरोपों का सामना कर रहे कैदियों पर भी लागू होगा या नहीं इसलिए असमंजस की स्थिति पैदा हो सकती है। कुछ कैदी ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें सजा सुनाए जाने का समय तय हो गया होगा। इनके बारे में भी स्पष्टता आवश्यक है।
बेहतर हो कि राज्य सरकारें उन विचाराधीन कैदियों की रिहाई के मामले में सक्रियता का परिचय दें जो हत्या और दुष्कर्म सरीखे गंभीर अपराधों के आरोपी नहीं हैं और जिन्होंने अपनी संभावित सजा का आधा या उससे ज्यादा समय जेलों में गुजार दिया है। एक अनुमान के अनुसार देश में करीब चार लाख कैदी हैं, जिनमें से ढाई लाख से अधिक विचाराधीन हैं। यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इनमें से एक बड़ी संख्या उन कैदियों की होगी जो छोटे-मोटे अपराधों में शामिल होने के आरोप में सलाखों के पीछे बंद हैं।
सवाल यह है कि इसकी नौबत क्यों आई? न्याय का तकाजा तो यह कहता है कि किसी भी आरोप का सामना कर रहे व्यक्ति का फैसला एक निश्चित समय में किया जाए। यदि समय पर मुकदमों के निस्तारण की कोई व्यवस्था नहीं बनाई जाती तो कुछ समय बाद फिर से विचाराधीन कैदियों का सवाल खड़ा हो सकता है, क्योंकि यह किसी से छिपा नहीं कि देश की करीब-करीब सभी जेलों में क्षमता से कहीं अधिक कैदी रह रहे हैं और उन पर अच्छा-खासा धन भी खर्च हो रहा है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि विचाराधीन कैदियों के बारे में एक उचित फैसला हुआ, क्योंकि अदालतों में लंबित मुकदमों के बोझ से छुटकारा मिलने की उम्मीद अभी भी नहीं दिखती और विचाराधीन कैदियों के जो लाखों मामले लंबित हैं उनके बारे में कोई बीच का रास्ता अपनाने की स्थिति भी नहीं है।
स्पष्ट है कि समय पर न्याय देने की व्यवस्था का निर्माण करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। इस बारे में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के स्तर पर वर्षो से विचार-विमर्श हो रहा है, लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा पा रहा है। बेहतर होगा कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, तीनों मिलकर यह सोचें कि समय पर न्याय कैसे सुलभ हो?
यूपी में सर्वाधिक कैदी
उत्तर प्रदेश की जेलों में बीती 31 जुलाई तक 61,613 अंडर ट्रायल बंदी थे जिनमें से 20,000 को राहत मिल सकती है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद एडीजी जेल ने सेंट्रल और जिला जेल के अधीक्षकों से अंडर ट्रायल बंदियों की सजा संख्या पता करने के लिए कहा है। उत्तर प्रदेश की 66 विभिन्न जेलों में 87,261 बंदी हैं जिसमें से 25,648 पर दोष सिद्ध हो चुका है और वह सजा काट रहे हैं। इसमें 61,613 अंडर ट्रायल हैं। अंडर ट्रायल में से ऐसे बंदियों की संख्या निकलवाई जा रही है जो होने वाली सजा की आधी जेल में बिता चुके हैं। माना जा रहा है कि कुल अंडर ट्रायल बंदियों में 30 प्रतिशत को राहत मिल सकती है।
धारा 436-ए के तहत मिलेगी राहत
अक्टूबर से शुरू होने वाली इस प्रक्रिया में अगले दो माह तक सत्र न्यायाधीश एवं उनके अधीनस्थ न्यायिक अधिकारी ऐसे मामलों की जांच के लिए और विचाराधीन कैदियों की रिहाई के आदेश देने के लिए अपने कार्य क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली जेलों का दौरा करेंगे। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436-ए के तहत निर्धारित प्रक्रिया पर अमल करने के बाद वे जेल में ही ऐसे कैदियों की रिहाई का आदेश पारित करेंगे। वे धारा 436-ए को प्रभावी तरीके से लागू कराने के उद्देश्य से दो महीने के लिये अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाली प्रत्येक जेल में सप्ताह में एक बार जायेंगे। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436-ए विचाराधीन कैदी को अधिकतम अवधि तक हिरासत में रखने के बारे में है। इसमें प्रावधान है कि यदि ऐसा कैदी उसके अपराध की अधिकतम सजा की आधी अवधि जेल में गुजार चुका हो तो अदालत उसे निजी मुचलके पर या बगैर किसी जमानती के ही रिहा कर सकती है। ऐसे कैदियों की रिहाई के लिये न्यायिक अधिकारियों द्वारा फैसला किये जाते वक्त किसी वकील की उपस्थिति जरूरी नहीं है।
-Shyam singh sikarwar