17-Sep-2014 06:00 AM
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बिहार की राजनीति में परिवर्तन की जो बयार उपचुनाव के पहले बही थी वह अवसरवादी राजनीति के चलते अब भी बदस्तूर बह रही है। भाजपा की ताकत को पहले लालू, नीतिश और कांग्रेस ने कम ही

आंका था लेकिन अब उन्हें समझ में आ चुका है कि महागठबंधन के बावजूद वे ताकतवर नहीं हैं। उपचुनावी जीत कोई खास महत्व की नहीं रह गई है। क्योंकि दोनों दलोंं में भीतरघात अभी भी चल रहा है। इसलिए नीतिश का दल चाहता है कि किसी तरह लालू की पार्टी सत्ता में शामिल हो जाए। इससे सत्ता के गलत कामों का कुयश और अच्छे कामों का सुयश बराबर वितरित हो जाएगा। लेकिन इस माहौल में कांग्रेस की स्थिति बड़ी दयनीय है। कांग्रेस को अपनी जमीन तलाशना कठिन जान पड़ रहा है। उधर लालू और नीतिश भी कांगे्रस को ज्यादा स्पेस देने के लिए राजी नहीं हैं। अब कांगे्रस के असंतुष्ट स्थानीय नेता अब भाजपा से जुडऩे में ज्यादा सुरक्षित महसूस कर रहे हैं, क्योंकि एक राष्ट्रीय पार्टी में बने रहने का उनका आत्मबल बचा रह सकता है और यही कारण है कि बिहार में महागठबंधन आगामी विधानसभा चुनाव के समय सरकार बना पाएगा इसमें संदेह ही लग रहा है।
बिहार उपचुनाव के नतीजों से राजद और जनता दल यूनाइटेड में उत्साह हैं। हालांकि ये नतीजे भाजपा को धु्रवीकरण की ओर लौटने पर मजबूर कर सकते हैं इसकी भी कम ही संभावना है कि भाजपा विरोधी ऐसा महागठबंधन उत्तर प्रदेश में भी बनेगा। नीतीश कुमार और लालू यादव के महागठबंधन के पीछे शुरुआती वजह थी भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए का जदयू, राजद और कांग्रेस के कुल वोटों के मुकाबले कम वोट पाने के बावजूद लोकसभा की 40 में से 31 सीटें जीतना। अब उपचुनाव में एनडीए को चार और महागठबंधन को छह सीट मिलने से लगता है कि कम से कम सतही तौर पर ही सही, लेकिन नीतीश-लालू की रणनीति काम कर गई। भाजपा को भी इससे राहत मिली होगी कि वो कम से कम चार सीट जीतने में कामयाब रही। बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह से गठबंधन की संभावनाओं को मायावती खारिज कर चुकी हैं। लेकिन भारत और बिहार के लिए इन नतीजों का विश्लेषण करते वक्त ये चार बातें ध्यान में रखना जरूरी है। पहली ये कि उपचुनावों में मतदान प्रतिशत करीब 44 फीसदी रहा, जो कि लोकसभा चुनाव से काफी कम है। ये सोचा जा सकता है कि ये नतीजे मोदी सरकार और उसकी नीतियों के खिलाफ हैं लेकिन इन चुनावों के स्थानीय कलेवर और कम मतदान को ध्यान में रखना होगा। दूसरी बात ये कि नरेंद्र मोदी की छवि का इन चुनावों पर असर नहीं था और मतदाताओं ने स्थानीय मुद्दों को ध्यान में रखकर वोट दिया होगा। तीसरी और अहम बात ये कि इन 10 सीटों के नतीजे 2014 के लोकसभा चुनावों के आधार पर नहीं हैं। भाजपा ने नरकटियागंज, मोहनियां और बांका पर जीत हासिल की। इन सीटों पर भाजपा को राजद, जदयू और कांग्रेस के वोटों से कम वोट मिले थे। इससे पता चलता है कि राजद और जदयू के वोट एक दूसरे को आसानी से ट्रांसफर नहीं होते। चौथी बात ये कि 2009 में जब भाजपा और जनता दल यूनाइटेड साथ थे तब ये दोनों दल मिलकर 18 सीटों पर हुए उपचुनाव में 12 की जगह सिर्फ पांच सीट जीतने में कामयाब रहे थे। लेकिन विधानसभा चुनाव में एनडीए जीता उपचुनाव में मोदी का उतना असर देखने को नहीं मिला। इसका मतलब ये हुआ कि कम से कम बिहार में तो उपचुनाव ये परखने का अच्छा जरिया नहीं है कि राजनीतिक हवा किस ओर बह रही है। हां, ये जरूर पूछने लायक है कि ये नतीजे भाजपा
और इसके विरोधियों को राष्ट्रीय स्तर पर कैसे प्रभावित करेंगे।
अगर महागठबंधन को इन चुनावों में एकतरफा जीत मिलती तो इससे भाजपा के दूसरे विरोधी एक महागठबंधन बनाने के बारे में सोच सकते थे। अब इसकी संभावना कम ही है। दशकों की खटास को भुला कर लालू और नीतीश एक मंच पर आए हैं। इन चुनावों के नतीजों का सबसे बड़ा असर भाजपा पर होगा। उसे महसूस होगा कि मोदी और विकासÓ के उनके संदेश का राज्य स्तर पर वैसा असर नहीं हुआ जैसा लोकसभा चुनाव में हुआ था। भाजपा ने नरकटियागंज और बांका जीती, जहां महागठबंधन ने मुसलमान उम्मीदवार खड़े किए थे। इससे लगता है कि यहां जातीय समीकरणों से ऊपर उठकर भाजपा को हिंदू वोट मिले।