05-Sep-2014 09:09 AM
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पाकिस्तान में आजादी के 67 वर्ष बाद भी लोकतांत्रिक चरित्र नहीं बन पाया है। यही कारण है कि पाकिस्तानी सेना के इशारे पर यहां का लोकतंत्र चलता है और सेना की दहलीज पर राजनीतिज्ञों के

मस्तक झुके रहते हैं। ताज्जुब नहीं कि जब कोई सत्ता विरोधी माहौल बनता है तो उस आंदोलन को भी कहीं न कहीं सेना का अनुमोदन भी लेना पड़ता है यही कारण है कि जब 15 अगस्त को पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में इमरान खान और तहीरुल कादरी के नेतृत्व में आजादी और इंकलाब नाम से विशाल मार्च हुआ तो उसे कहीं न कहीं सेना का समर्थन भी प्राप्त था। यद्धपि सेना खुलकर सामने नहीं आती लेकिन पाकिस्तान में उसकी मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता। इमरान और कादरी ने हुंकार भरी और उसको देश की आवाम ने नई प्रतिध्वनि दी। किंतु इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि बारूद के ढेर पर बैठे इस देश में अचानक लोकतंत्र की बयार बहने लगी है।
दरअसल सेना नवाज शरीफ की कूटनीति से तालमेल नहीं बैठा पाती है। शरीफ निहायत मंझे हुए राजनीतिज्ञ हैं और सेना को यदा-कदा परेशानी में भी डाल देते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह का आमंत्रण मिलते ही शरीफ ने गेंद सेना के पाले में डालकर पाकिस्तानी सेना को पशोपेश में डाल दिया था। उस वक्त शरीफ की स्वीकारोक्ति में हो रही देरी को सेना की बेरूखी से जोड़कर देखा गया और सेना ने बाद में शरीफ को भारत आने की इजाजत दे दी। शरीफ की जगह कोई और होता तो निश्चित रूप से पाकिस्तानी सेना को इतना बेनकाब नहीं किया जाता। इसीलिए कादरी और इमरान खान की जुगलबंदी शरीफ की शराफत और नफासत भरी राजनीति को चुनौती दे रही है।
तहीरुल कादरी का उदय दिसंबर 2012 में उस समय हुआ था जब भारत मेें अन्ना हजारे का आंदोलन राजनीतिक दुर्गति को प्राप्त हो चुका था और अरविंद केजरीवाल जैसे महत्वाकांक्षी किंतु जिद्दी एक्टिविस्ट राजनीतिक दल की लॉन्चिंग के करीब थे। इसी दौरान कादरी का भी रूपांतरण राजनीतिज्ञ के रूप में हुआ और मजबूत लोकतंत्र की उनकी मांग को लगभग वैसा ही समर्थन मिला जैसा अन्ना हजारे को मिला करता था। उन दिनों कादरी का इस्लामाबाद के डीस्क्वायर पर 14 से 18 जनवरी 2013 का धरना अन्ना हजारे के जंतर-मंतर और रामलीला मैदान के प्रदर्शनों की याद दिला गया, लेकिन कादरी ने इस जनआंदोलन को बड़े कुशल तरीके से राजनीतिक आंदोलन में परिवर्तित कर लिया और अब इमरान खान के साथ मिलकर सेना के परोक्ष समर्थन से वे पाकिस्तान में सत्ता पलट की कोशिशों में लगे हुए हैं। कभी कादरी ने सत्तासीन पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के साथ एक समझौता किया था जिसका लुब्बेलुबाव यह था कि पाकिस्तान में चुनाव शुद्धता और शुचिता के साथ कराए जाएंगे। पीपीपी ने यह वादा किया लेकिन चुनाव में उसकी करारी पराजय हो गई। इस पराजय ने नवाज शरीफ के सत्ता में आने के ख्वाब को पूरा किया। इमरान खान को जनता ने नकार दिया और कादरी भी खाता नहीं खोल पाए। दोनों की हालत नीतिश और लालू जैसी हो गई और अब यह संयोग ही है कि जिस तरह नीतिश और लालू गिले-शिकवे भूलकर बिहार में गले लग गए हैं वैसे ही कादरी और इमरान के बीच में गलबहियां देखी जा रही हैं लेकिन दुविधा यह है कि पाकिस्तान में बहुमत के बावजूद नवाज शरीफ स्ट्रॉन्ग नहीं समझे जाते क्योंकि सेना से उनकी पटरी कम ही बैठती है। इसलिए पाकिस्तान में फिर से चुनाव की मांग ने सरकार को परेशानी में डाल दिया है।
जब कादरी और इमरान खान के समर्थकों ने लोकतांत्रिक आजादी की मांग के साथ इस्लामाबाद में अलग अलग दस्तक दी तो पाकिस्तान सरकार घबरा गई। इस्लामाबाद के रेड जोन की नाकेबंदी कर दी गई। कादरी अकेले होते तो शायद पाकिस्तान की मीडिया में एक बार फिर मजाक बनता, किस्सागोई होती और जैसे तैसे मामले को निपटा ही लिया जाता। या यह भी हो सकता है कि कादरी की मांग पर बहुत ध्यान ही नहीं दिया जाता। लेकिन इस बार कादरी के साथ-साथ जो व्यक्ति नवाज शरीफ का इस्तीफा मांगते हुए इस्लामाबाद पहुंचा है वह इस वक्त पाकिस्तान की तीसरी बड़ी राजनीतिक ताकत है। शायद यही कारण है कि इमरान खान के वहां मौजूद होने और नवीज शरीफ का इस्तीफा मांगने का असर यह हुआ कि सेना के जरिए बैकडोर डिप्लोमेसी का सहारा भी लेना पड़ा।
- IK Binnani