याचिकाओं में जन हित या निजी हित?
05-Sep-2014 08:08 AM 1234768

हाल ही में जबलपुर हाईकोर्ट ने अपने ही विभाग और सरकार के विरूद्ध याचिकाएं दायर करने वाले भोपाल निवासी केएन शुक्ला पर पाबंदी लगा दी। शुक्ला ने 42 याचिकाएं दायर की थीं जो लगभग एक से मुद्दों पर थीं। कोर्ट का मानना था कि याचिका कर्ता ने निराधार याचिकाएं दायर कीं जिससे कोर्ट का कीमती समय बर्बाद हुआ। हाईकोर्ट ने इसके बाद याचिकाकर्ता शुक्ला को आदेश दिया कि आइंदा याचिका लगाने से पूर्व महाधिवक्ता की अनुमति ली जाए और 10 लाख रुपए जमा कराए जाएं तभी याचिका को दर्ज किया जाएगा।
आमतौर पर होता यह है कि कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी सरकारी निर्णय के विरूद्ध कोर्ट चला जाता है और वहां से उसे राहत मिल जाती है। लेकिन कोर्ट द्वारा राहत देने की भी एक सीमा है और राज्य सरकार कोर्ट के फैसले के पुनर्विचार के लिए भी न्यायालय जा सकती है। कई बार कोर्ट के निर्णय को लागू करना राज्य सरकार के लिए संभव नहीं होता। ऐसे मामले न्यायालयों में चलते रहते हैं। लेकिन भारत के न्यायालय में तो पहले से ही काफी भीड़ है। ऐसी स्थिति में सरकार के विरूद्ध दायर याचिकाओं पर सुनवाई में भी काफी वक्त जाया हो जाता है खासकर निराधार याचिकाओं पर सुनवाई न्यायालय का कीमती वक्त बर्बाद करती है। केएन शुक्ला के मामले में न्यायालय ने जुर्माना तो नहीं लगाया लेकिन उन्हें रोकने के लिए एक व्यवस्था बना दी। किंतु प्राय: हर विभाग का कोई न कोई मामला न्यायालय में चल रहा है। कहीं कर्मचारी संगठित होकर और कहीं पर व्यक्तिगत रूप से न्यायालय की शरण लेते हंै। इसे देखते हुए ही कुछ समय पहले सुझाव दिया गया था कि कर्मचारियों के लिए न्यायालय में दाखिल किए जाने वाले मामलों का पहले परीक्षण होना चाहिए कि वे न्यायालय में जाने योग्य हैं अथवा नहीं। बीते कुछ वर्षों में सरकार अथवा विभाग के विरूद्ध न्यायालय जाने की प्रवृत्ति बढ़ी है इसका सीधा कारण यह है कि कर्मचारियोंं को उनके विभाग से उचित न्याय नहीं मिल पाता। विभागीय मामलों को निपटाने में उच्चाधिकारी जरा भी रुची नहीं दिखाते हैं। कई बार कर्मचारियों के हितों की भी अनदेखी की जाती है। यदि पहले से ही कुछ व्यावहारिक फैसले किए जाएं तो कर्मचारी शायद न्यायालय न जाएं। लेकिन ऐसा नहीं हो पाता। सूचना के अधिकार, जनहित याचिकाओं से लेकर सरकार के विरूद्ध न्यायालय में जाने की स्वतंत्रता का कई बार दुरुपयोग भी हुआ। कुछ समय पहले जनहित याचिकाओंं के दुरुपयोग को लेकर भी न्यायालय ने चिंता व्यक्त की थी। 
देश के हर नागरिक को संविधान की ओर से छह मूल अधिकार दिए गए हैं। ये हैं- समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के खिलाफ अधिकार, संस्कृति और शिक्षा का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार और मूल अधिकार पाने का रास्ता अगर किसी नागरिक (आम आदमी) के किसी भी मूल अधिकार का हनन हो रहा है, तो वह हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर मूल अधिकार की रक्षा के लिए गुहार लगा सकता है। वह अनुच्छेद-226 के तहत हाई कोर्ट का और अनुच्छेद-32 के तहत सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है। अगर यह मामला निजी न होकर व्यापक जनहित से जुड़ा है तो याचिका को जनहित याचिका के तौर पर देखा जाता है। पीआईएल डालने वाले शख्स को अदालत को यह बताना होगा कि कैसे उस मामले में आम लोगों का हित प्रभावित हो रहा है। अगर मामला निजी हित से जुड़ा है या निजी तौर पर किसी के अधिकारों का हनन हो रहा है तो उसे जनहित याचिका नहीं माना जाता। ऐसे मामलों में दायर की गई याचिका को पर्सनल इंट्रेस्ट लिटिगेशन कहा जाता है और इसी के तहत उनकी सुनवाई होती है। दायर की गई याचिका जनहित है या नहीं, इसका फैसला कोर्ट ही करता है। पीआईएल में सरकार को प्रतिवादी बनाया जाता है। सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट सरकार को उचित निर्देश जारी करती हैं। यानी पीआईएल के जरिए लोग जनहित के मामलों में सरकार को अदालत से निदेर्श जारी करवा सकते हैं। पीआईएल हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में दायर की जा सकती हैं। इससे नीचे की अदालतों में पीआईएल दाखिल नहीं होती। कोई भी पीआईएल आमतौर पर पहले हाई कोर्ट में ही दाखिल की जाती है। वहां से अर्जी खारिज होने के बाद ही सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जाता है। कई बार मामला व्यापक जनहित से जुड़ा होता है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट सीधे भी पीआईएल पर अनुच्छेद-32 के तहत सुनवाई करती है।
क्या है मामला
केएन शुक्ला की सेवाएं मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ में 8 अगस्त 2002 को आवंटित की गई थीं। आवेदक का कहना था कि वो मूलत: वित्त विभाग का कर्मचारी था, लेकिन उसकी सेवाएं कृषि विभाग में प्रतिनियुक्ति पर दी गईं थीं। 3 मार्च 2003 को याचिकाकर्ता ने आपत्ति के रूप में एक आवेदन मप्र सरकार को दिया था, जिसके 31 मार्च 2006 को खारिज होने पर हाईकोर्ट में याचिकाओं के दायर होने का सिलसिला शुरू हुआ। इन सभी याचिकाओं में वेतन के भुगतान, मुआवजे के रूप में सरकार से रकम दिलाने, क्रमोन्नतियां दिलाने, याचिकाकर्ता से काम लिये जाने, रोके गए वेतन पर 12 फीसदी ब्याज दिलाने, खाने के लिए उपयुक्त भत्ता दिला जाने जैसी राहतें चाही गईं थीं।

 

- Shyam singh sikarwar

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