05-Sep-2014 07:53 AM
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बहुत पहले जब जैन हवाला कांड में नाम आया था तो भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी ने पद त्याग दिया था। हालांकि बाद में वे उस आरोप से बरी हो गए और उन्हें पुन: उसी पद पर

प्रतिष्ठित किया गया, लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज तो दाग लगना शौर्य और साहस का विषय माना जाता है। जो जितना दागी है वह उतना ही प्रतापी है। यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को तल्ख लहजे में सुझाव दिया कि आपराधिक मामलों और भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे लोगों को मंत्री न बनाए। कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को ऐसी नियुक्तियों से बचना चाहिए जिसमें दागी को पद दिया जा रहा हो और राष्ट्रीय हित में काम करना चाहिए।
भारत की राजनीति ही ऐसी है कि इसमें दामन साफ रखना संभव नहीं है। कोई न कोई दाग तो लग ही जाता है। इसी कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कभी कहा था कि नेताओं पर लगने वाले आरोपों का निराकरण शीघ्र होना चाहिए। आज देश के सुप्रीम कोर्ट ने जब दागियों को पद न देने की बात कही है तो मोदी के इस कथन को भी ध्यान में रखना होगा कि नेताओं पर लगे आरोप सालो-साल न चलें बल्कि उनका निराकरण होते हुए यदि कोई नेता दोषी है और उसे दंड दिया गया है तो उसे मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों से दूर ही रखा जाए, लेकिन मामला केवल इतना ही नहीं है।
दागी मत्रियों ने ही इस देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को 44 के आंकड़े तक पहुंचाया। कांग्रेस अपनी पराजय को मंत्रियों के दागी दामन से भले ही न जोडऩा चाहे, लेकिन सच तो यह है कि कल्पनाथ राय से लेकर सुखराम तक और जगदीश टाइटलर से लेकर केपीएल भगत तक कई दागी नेताओं को कांग्रेस में शरण मिली। वे फले-फूले और अपनी कालरें झाड़ते हुए सत्ता का दुरुपयोग करते रहे। आज कांग्रेस की जो दुर्गत है वही दुर्गत नैतिकता और परिवर्तन की दुहाई देने वाली पार्टी भाजपा की भी हो सकती है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी नजरअंदाज करने योग्य नहीं है। इस चेतावनी के मर्म को समझने की आवश्यकता है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि जब किसी दागी व्यक्ति को जज नहीं बनाया जा सकता तो उसे मंत्री कैसे बनाया जा सकता है। न्यायपालिका और कार्यपालिका में शुचिता तथा शुद्धता की दुहाई देने वालों के लिए सुप्रीम कोर्ट का यह रुख मार्गदर्शी हो सकता है। 9 साल पहले जब मनोज नरूला ने इस विषय को लेकर जनहित याचिका दायर की थी उस समय माहौल कुछ ऐसा ही था। बैसाखियों पर टिकी यूपीए सरकार ने कई धुरंधरों को मंत्री पद सौंपे जिन्हें बाद में जेल भी जाना पड़ा। ए. राजा से लेकर पवन कुमार बंसल सहित कई नाम थे। राष्ट्रमंडल खेलों से लेकर कोल ब्लॉक आवंटन तक तमाम घोटालों में मंत्रियों की लिप्तता उभरकर सामने आई। उस वक्त इस याचिका का मर्म समझ लिया जाता तो शायद माहौल इतना गंदा न होता। बहरहाल याचिका पर मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने जो नसीहत दी है वह काबिले गौर है। इसी पीठ के जस्टिस दीपक मिश्रा ने भी कहा है कि भ्रष्टाचार देश का दुश्मन है इसलिए संविधान के संरक्षक के तौर पर प्रधानमंत्री से अपेक्षा की जाती है कि वे दागियों को मंत्री न बनाए। जस्टिस कुरियन ने भी यही कहा है कि दागियों को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करना चाहिए। हालांकि मध्यप्रदेश के भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह दागियों का बचाव करते हुए कहते हैं कि जब तक कोर्ट सजा न दे लोकायुक्त में दर्ज मामले के आधार पर किसी को मंत्री पद से वंचित करना उचित नहीं है पर कांग्रेस ने शायद सबक ले लिया है। कांग्रेस का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट की सलाह पर उन राज्यों में अमल किया जाएगा जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार है। यदि कांग्रेस ने अपना क्लीन अभियान जारी रखा तो कांग्रेस को बहुत व्यापक स्तर पर सुधार करना होगा और यह तय है कि ऐसा सुधार होने पर कांग्रेस मजबूत बनकर ही उभरेगी, लेकिन भारतीय लोकतंत्र में सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि यहां सुप्रीम कोर्ट के सुझाव को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता। सुप्रीम कोर्ट ने तो जुलाई 2013 में ही दो वर्ष या उससे अधिक सजा पाने वाले सांसदों को अयोग्य ठहराने का फैसला सुनाया था, लेकिन आज भी 541 सदस्यीय लोकसभा में 186 सांसद ऐसे हैं जो दागी है जिनमें से 61 तो भाजपा के ही हैं। बाकी अन्य सभी दलों के हैं। जाहिर है कोई भी दल सुप्रीम कोर्ट की नसीहत पर अमल नहीं कर रहा है।
उधर मोदी ने एक साल के भीतर दागी सांसदों के मामलों का निराकरण करने का आग्रह किया तो सुप्रीम कोर्ट ने उस आग्रह को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि सांसद, विधायक खास नहीं है जो अलग से सुनवाई की जाए। ऐसे में सवाल यह भी पैदा होता है कि न्यायालयों में मामलों का निराकरण होते-होते दशकों बीत जाते हैं। ऐसे हालात में किसी भी योग्य राजनीतिज्ञ का राजनीतिक जीवन सिर्फ इस वजह से खत्म नहीं किया जा सकता कि वह किसी आरोप में दागी है। कोई न कोई रास्ता तो न्यायपालिका को भी निकालना होगा क्योंकि मंत्रियों के भ्रष्टाचार का पैसा गलत रास्ते पर निकल पड़ा है।
पिछले 13 मार्च को कोबरा पोस्ट ने खुलासा किया था कि देश के कई बड़े बैंक भ्रष्टाचार के पैसे को ठिकाने लगाने के लिए समानांतर बैंकिंग चला रहे हैं। इस खबर को सनसनीखेज माना गया, लेकिन इसमें कोई सच्चाई नहीं कि भ्रष्टाचार का पैसा बड़े पैमाने पर निवेश किया जा रहा है और काले कारनामे करने वालों के औद्योगिक घरानों से मधुर संबंध इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। एक दूसरा तथ्य यह भी गौर करने लायक है कि पिछले एक दशक में जो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ है उसका ज्यादातर हिस्सा मॉरीशस जैसे छोटे से देश से आया है। क्या यह शोध का विषय नहीं है।
हर राज्य में यही माहौल है। पिछले वर्ष मई में उत्तरप्रदेश के लोकायुक्त ने पूर्ववर्ती मायावती सरकार के करीब एक दर्जन मंत्रियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार, आय से अधिक संपत्ति और पद का दुरुपयोग कर सरकारी जमीनों पर कब्जे का आरोप लगाते हुए कार्रवाई करने की सिफारिश की थी, लेकिन अखिलेश सरकार ने एक भी दोषी मंत्री के खिलाफ अदालत में चार्जशीट दाखिल नहीं की। उस वक्त लोकायुक्त न्यायमूर्ति एनके मेहरोत्रा ने धीमी कार्रवाई पर अफसोस प्रकट किया था पर अखिलेश सरकार कार्रवाई करने का जोखिम कैसे उठाती, उसके खुद एक दर्जन से ज्यादा मंत्री दागी थे जिनमें राजा भैया पर तो हत्या का आरोप मंत्री रहते ही लगा उन्हें पद गंवाना पड़ा, लेकिन बाद में लीपापोती करके उनका मंत्री पद फिर से बहाल कर दिया गया।
सवाल यह भी है कि दागी लोग जीत कैसे जाते हैं। वर्ष 2007 में उत्तरप्रदेश में ही दागी छवि वाले 160 उम्मीदवार जीते थे उसके बाद वर्ष 2012 में दागियों की बाढ़ आ गई। रघुराज प्रताप सिंह, राजू पाल, अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी, अमनमणि त्रिपाठी, डीपी यादव, महंत आदित्यनाथ, हरिशंकर तिवारी जैसे कई नाम हैं जो बार-बार चुनाव जीतते हैं। यूपी, पंजाब और उत्तराखंड समेत पांच राज्यों के चुनाव परिणाम जब सामने आए तो विश्लेषकों के दिल दहल गए। यहां चुनकर आए 690 विधायकों में से 35 प्रतिशत यानी 252 दागी थे। जाहिर है इनमें से अधिकांश सत्तासीन दलों से थे और इन्हीं में से कुछ को मंत्री बनाए जाने की मजबूरी भी थी। दागियों का रुतबा कुछ ऐसा है कि सरकारें इन्हें मंत्री पद सौंपने से पीछे नहीं हट सकतीं। जातीय समीकरण और स्थानीय आकांक्षाएं भी दागियों को मंत्री पद पाने में सहयोग करती हैं।
किंतु सबसे प्रमुख तथ्य यह है कि दागियों का भी वर्गीकरण किया जाना चाहिए। किस प्रकृति के अपराध का आरोप उसके ऊपर लगा है यह जरूर देखा जाना चाहिए। हत्या, बलात्कार देशद्रोह या सामूहिक हत्याकांड जैसे जघन्य आरोपों में आरोपित दागियों को उनके निर्दोष होने तक मंत्रीमंडल में न लिया जाए तो कम से कम कुछ सुधार अवश्य होगा। क्योंकि एक तरफ तो दागियों की संख्या बढ़ रही है और दूसरी तरफ विधायकों, सांसदों, मंत्रियों के आर्थिक स्तर में भी गुणात्मक बदलाव देखने को मिल रहा है। वर्ष 2012 में चुनाव सुधार के लिए काम करने वाली संस्था एडीआर ने एक शोध की थी जिसमें पाया गया था कि उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड जैसे राज्यों में 47 प्रतिशत विधायकों के खिलाफ अपराधिक मामले चल रहे हैं और इनमें से 66 प्रतिशत करोड़पति है। यानी अपराध का विधायकों और सांसदों के आर्थिक सशक्तिकरण में व्यापक योगदान है। जो आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं वे सत्ता में आने पर गलत तरीकों से पैसा कमाते हैं और अपनी तिजोरियां भी भरते हैं। बाद में यही पैसा अपराध जगत में लग जाता है।
वर्ष 2011 में भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को नसीहत दी थी कि वे मंत्रियों के भ्रष्टाचार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपना पद त्याग दें। हालांकि अभी मोदी सरकार के किसी मंत्री पर इस तरह के आरोप नहीं लगे हैं, लेकिन कांग्रेस ने बीजेपी की तर्ज पर ही मांग शुरू कर दी है कि दागी मंत्रियों को हटाया जाए क्योंकि उनके पद पर बने रहने की जिम्मेदारी पीएम पर है। सुप्रीम कोर्ट के सुझाव के बाद केंद्र सरकार की दुविधा बढ़ गई है। मोदी कैबिनेट में 44 मंत्री हैं इनमें से 12 मंत्रियों के खिलाफ मामले हैं। उमा भारतीय के खिलाफ 14 मुकदमें चल रहे हैं जिसमें हत्या का प्रयास और दंगे भड़काना शामिल है। नितिन गडकरी के खिलाफ चार मुकदमें हैं। उपेंद्र कुशवाह पर 4 और रामविलास पासवान, मेनका गांधी, डॉ. हषवर्धन, वीके सिंह, धर्मेन्द्र प्रधान पर दो-दो मुकदमें हैं। जाहिर है मंत्रियों में से एकाध के खिलाफ ही गंभीर मामला है बाकी के विरुद्ध छोटे-मोटे मामले हैं। नरेंद्र सिंह तोमर, जुएल ओराम, राव साहेब पर भी मुकदमें चल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ नसीहत दी है और इस नसीहत में 8 बार संविधान की गरिमा शब्द का प्रयोग किया है। सीधी सी बात है कोर्ट दागी चेहरों से नाखुश है। पिछले 10 वर्ष के दौरान कोर्ट ने कई मौकों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से यह नाखुशी जाहिर की है। इससे स्पष्ट है कि न्यायपालिका भी कार्यपालिका को साथ-सुथरा देखना चाहती है पर नरेंद्र मोदी अपनी 12 मंत्रियों को हटाने का जोखिम नहीं उठा सकते। ऐसा करना उनके लिए फिलहाल संभव नहीं है। इससे गलत संदेश जाएगा।
इतना अवश्य हो सकता है कि अब इन मंत्रियों के मामले अदालतों में पहले की अपेक्षा तेजी से निपटने लगें। क्योंकि अदालत ने कहा है कि सांसद और विधायक विशिष्ट व्यक्ति नहीं होते, पर मंत्री तो विशेष होता है। उसे ये छूट दी जा सकती है। फैसला किस तरीके से होगा कहना मुश्किल है।
कहां कितने मंत्री दागी
केंद्र सरकार 12 मंत्री
उत्तरप्रदेश सरकार 16 मंत्री
बिहार सरकार 12 मंत्री
गुजरात सरकार 4 मंत्री
मध्यप्रदेश सरकार 6 मंत्री
कर्नाटक सरकार 3 मंत्री
प. बंगाल सरकार 6 मंत्री
तमिलनाडु सरकार 5 मंत्री
राजस्थान सरकार 12 मंत्री
क्या कहा था सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने
भारत के प्रधान न्यायाधीश आर.एम. लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने दागियों को मंत्री बनने से अयोग्य ठहराने से परहेज किया। उन्होंने ऐसे लोगों के नामों की सिफारिश राष्ट्रपति और राज्यपाल के पास न भेजने का फैसला प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के विवेक पर छोड़ दिया। पीठ ने कहा कि वह अनुच्छेद 75 (1) (प्रधानमंत्री एवं मंत्रि परिषद की नियुक्ति) में अयोग्यता नहीं जोड़ सकती लेकिन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को ऐसे लोगों को मंत्री बनाने पर विचार नहीं करना चाहिए, जिनकी पृष्ठभूमि आपराधिक रही है और जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार समेत गंभीर मामलों में आरोप तय किए गए हैं। न्यायालय ने आगे कहा कि संविधान प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों में गहरा विश्वास रखता है और उम्मीद करता है कि वे संवैधानिक जिम्मेदारी और नैतिकता के साथ काम करेंगे। न्यायालय ने कहा कि प्रधानमंत्री को संवैधानिक विश्वास का संग्राहक माना जाता है और उसे राष्ट्रीय हितों के अनुरूप काम करना चाहिए। पीठ ने कहा, हम इससे ज्यादा कुछ नहीं कह रहे और इसका निर्णय प्रधानमंत्री के विवेक पर छोड़ा जाता है।Ó पीठ ने कहा कि यही बात मुख्यमंत्रियों पर भी लागू होती है। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को सलाह दी जाएगी कि वे ऐसे लोगों को अपने मंत्रालयों में शामिल न करें। पीठ ने यह निर्देश उस जनहित याचिका पर जारी किया, जिसमें मांग की गई थी कि केंद्र और राज्य सरकारों को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों की नियुक्ति न करने के निर्देश दिए जाएं। पीठ में न्यायाधीश दीपक मिश्रा, मदन बीलोकुर, कुरियन जोसेफ और एस ए बोबडे भी शामिल थे। पीठ ने आम सहमति से इस मामले में फैसला दिया और दो न्यायाधीशों ने अलग विचार दिए। 123 पृष्ठों वाले फैसले में न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ने कहा कि ऐसी भी उम्मीद की जाती है कि प्रधानमंत्री देश की राष्ट्रीय राज्यव्यवस्था के हितों के अनुरूप काम करें। पीठ ने कहा, प्रधानमंत्री को यह ध्यान में रखना चाहिए कि अवांछित तत्व या लोग, जो अपराधों की खास श्रेणी के आरोपों का सामना कर रहे हैं, वे संवैधानिक नैतिकता या सुशासन के सिद्धांतों को बाधित कर सकते हैं या उन्हें रोक सकते हैं और इस तरह संवैधानिक विश्वास घटा सकते हैं, पीठ ने कहा, हम पहले भी कह चुके हैं कि निषेध को परामर्श के दायरे में नहीं लाया जा सकता लेकिन निश्चित तौर पर इस पर अवधारणा, विशेषकर संवैधानिक विश्वास, ऐसे परामर्श में परिकल्पित करने की अनुमति दी जा सकती है। फैसले में यह भी कहा गया कि अनुच्छेद 75(1) की व्याख्या करते हुए अयोग्यता को निश्चित तौर पर इसमें जोड़ा नहीं जा सकता। बहरहाल, मंत्रिपरिषद में मंत्री की भूमिका और उसके द्वारा ली गई शपथ की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए यह उम्मीद हमेशा की जा सकती है कि प्रधानमंत्री अपने में जताए गए विश्वास को ध्यान में रखते हुए, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उन लोगों को अपने मंत्रिपरिषद का मंत्री नहीं चुनेंगे, जिनके खिलाफ जघन्य या आपराधिक मामलों या भ्रष्टाचार के आरोप रहे हों। पीठ ने कहा, संविधान यही कहता है और प्रधानमंत्री से यही संवैधानिक उम्मीद है। बाकी सब प्रधानमंत्री की समझदारी पर छोड़ा जाता है। हम न तो इससे कुछ ज्यादा कह रहे हैं, न ही कम।
हर जगह दागी
उत्तर प्रदेश में निर्वाचित 403 विधायक में से 189 यानी 47 प्रतिशत के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। साल 2007 के मुकाबले 12 प्रतिशत की वृद्धि है। इनमें से 98 के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। सबसे ज्यादा आपराधिक मामले वाले तीन विधायकों में हैं- समाजवादी पार्टी के बीकापुर से मित्रसेन यादव, जसराना से रामवीर सिंह और सकलडीहा के निर्दलीय सुशील सिंह। मित्रसेन पर 36 आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें 14 हत्या से जुड़े हैं। सुशील के खिलाफ दर्ज 20 मामलों में 12 हत्या से जुड़े हैं। रामवीर के खिलाफ हत्या के 8 सहित 18 मामले दर्ज हैं। जिन 38 विधायकों पर हत्या के मामले चल रहे हैं, उनमें समाजवादी पार्टी के 18, बीजेपी के दो, बीएसपी के 5 और आठ निर्दलीय शामिल हैं।
उत्तर प्रदेश की नई विधानसभा में 271 यानी 67 प्रतिशत विधायक करोड़पति हैं। 2007 के मुकाबले इनकी तादाद में भी 36.23 प्रतिशत की बढ़ोतरी है। सबसे अमीर विधायक हैं रामपुर जिले के स्वार से जीते कांग्रेस के नवाब काजिम अली खान। उन्होंने अपनी संपत्ति 56.89 करोड़ घोषित की है। दूसरे नंबर पर हैं बादशाह आलम। मुबारकपुर से निर्वाचित इस बीएसपी विधायक की बदशाहत 54.44 करोड़ की है। नोएडा से जीते बीजेपी के महेश शर्मा 37.45 करोड़ के मालिक हैं। पंजाब में भी करोड़पति और दागी विधायकों की संख्या बढ़ी है। पिछली विधानसभा में जहां 117 में से 21 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे, चुने गए विधायकों में से 22 ऐसे हैं जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। करोड़पति विधायकों की संख्या में भी भारी वृद्धि हुई है। जहां पिछली विधानसभा में 77 विधायक यानी 66 प्रतिशत करोड़पति थे, 2012 में यह संख्या बढ़कर 101 यानी 86 प्रतिशत हो गई है।
- Rajendra Agal