न्याय पालिका पर लगाम?
20-Aug-2014 10:43 AM 1234870

वर्ष 2013 के 5 सितंबर की बात है देश में खाद्य सुरक्षा विधेयक को लेकर चर्चा चल रही थी पराजय की कगार पर खड़ी कांग्रेस ने ब्रह्मास्त्र के रूप में इस विधेयक का प्रयोग किया था। लेकिन इसके साथ ही संविधान (120वां संशोधन) विधेयक, 2013 और न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक, 2013 भी चुपचाप बिना किसी शोर शराबे के संसद के पटल पर रख दिए थे। कहने की आवश्यकता नहीं है कि यूपीए के 10 वर्षीय शासन काल में न्याय पालिका ने जो आक्रामकता दिखाई थी वह पहले कभी नहीं देखी गई। लेकिन इस आक्रामकता को इन विधेयकों के लाने का कारण मानना नादानी ही होगी।
दरअसल यूपीए सरकार ही नहीं बल्कि पक्ष-विपक्ष सभी न्याय पालिका पर अंकुश लगाने के लिए किसी प्रभावी कानून के पक्षधर थे। उस वक्त इन दोनों विधेयकों का विरोध करने वाले एकमात्र सांसद राम जेठमलानी ने कहा था कि ये दोनों ही विधेयक बुरे और संविधान की बुनियादी संरचना को नुकसान पहुंचाने वाले हैं लेकिन एक दूसरे जाने माने वकील और तत्कालीन कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने राज्यसभा में घोषणा की थी कि एक बेहतर भविष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ न्यायाधीश पाने हेतु यह विधेयक जरूरी है। 12 अगस्त 2014 को लोकसभा ने 20 साल से चले आ रहे प्रयासों को मुकाम की ओर पहुंचाते हुए न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक पारित कर दिया। मोदी सरकार ने कांग्रेस की कुछ आपत्तियों को ध्यान में रखते हुए विधेयक पर सर्वानुमति बनाने में सफलता प्राप्त कर ही ली। पिछले 10 वर्षों में पहली बार हुआ जब लोकसभा में हुई वोटिंग मेें प्रधानमंत्री ने खुद भाग लिया। इससे पहले एक दशक तक तो प्रधानमंत्री राज्यसभा का ही था।
कोलेजियम व्यवस्था बदलने की लंबे समय से चली आ रही कोशिशों को सर्वसम्मति बना कर अमली जामा पहनाना मोदी सरकार की बड़ी सफलता है। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने विपक्ष के सभी दलों को पत्र लिखकर इस विधेयक की जरूरत बताई थी और समर्थन मांगा था। वोटिंग के वक्त सर्वसम्मति थी। उसी तर्ज पर राज्यसभा से भी इसे पारित कराने में सरकार सफल रही। न्यायाधीशों की नियुक्ति की कोलेजियम व्यवस्था 1993 से लागू है और तभी से इस पर सवाल उठते रहे हैं। पारदर्शिता और भ्रष्टाचार का आरोप खुद न्यायाधीशों की ओर से लगते रहे थे। सर्वसम्मति बनाने के लिहाज से सरकार ने विपक्ष के उस संशोधन को भी मान लिया जिसमें राष्ट्रपति द्वारा मामला पुनर्विचार के लिए भेजे जाने की स्थिति में आयोग की सर्वसम्मति जरूरी नहीं होगी। हां, दो सदस्यों की आपत्ति होने पर उसे वीटो जरूर मान लिया जाएगा। जजों की नियुक्ति के प्रस्तावित आयोग में छह सदस्य होंगे। आयोग के अध्यक्ष भारत के मुख्य न्यायाधीश होंगे। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, कानून मंत्री और दो प्रबुद्ध व्यक्ति सदस्य होंगे। दो प्रबुद्ध व्यक्तियों का चुनाव प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में नेता विपक्ष की तीन सदस्यीय समिति करेगी। अगर लोकसभा में नेता विपक्ष नहीं होगा तो सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता चयन समिति में शामिल होगा।
चर्चा के दौरान संप्रग सरकार में कानून मंत्री रहे एम. वीरप्पा मोइली ने राष्ट्रपति की ओर से आयोग को प्रस्ताव पुनर्विचार के लिए भेजे जाने की स्थिति में आयोग में सर्वसम्मति होने की शर्त पर एतराज जताया था। उन्होंने कहा कि इस तरह तो एक व्यक्ति भी प्रस्ताव को गिरा सकता है। रवि शंकर प्रसाद ने मोइली का सुझाव स्वीकार करते हुए पुनर्विचार की स्थिति में सर्वसम्मति होने की शर्त का प्रावधान विधेयक से हटा दिया। उन्होंने इसके लिए संशोधन पेश किया। सवाल यह है कि सरकार इस परिवर्तन को लाने के प्रति इतनी गंभीर क्यों थी? न्याय पालिका ने इस विधेयक के प्रति अपना विरोध प्रकट किया था। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस आरएस लोढ़ा ने तो यह तक कहा कि वर्तमान कोलेजियम प्रणाली में कोई गड़बड़ी नहीं है यह प्रणाली असफल नहीं है और यदि यह प्रणाली असफल है तो मैं भी असफल हूं। उन्होंने यह भी कहा कि इन दिनों भ्रामक अभियान चलाकर न्याय पालिका को बदनाम करने की साजिश चल रही है। लोढ़ा का इशारा संभवत: काटजू के आरोपों की तरफ रहा होगा। बहरहाल विवाद को हवा उस वक्त भी मिली जब अमित शाह के खिलाफ फर्जी एनकाउन्टर प्रकरण में कोर्ट की मदद करने वाले वकील गोपाल सुब्रह्मण्यम को सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश बनाए जाने संंबंधी फाइल केंद्र सरकार ने लौटा दी। बाद में सुब्रह्मण्यम ने खुद ही अपना नाम वापस ले लिया और सरकार पर सीबीआई का सहारा लेकर बदनामी फैलाने का आरोप भी मढ़ा था। सुब्रह्मण्यम प्रकरण में जस्टिस लोढ़ा ने भी असंतोष प्रकट किया था। लेकिन उस वक्त सरकार के रूख से स्पष्ट हो गया था कि सरकार न्याय पालिका पर भी कहीं न कहीं थोड़ा बहुत अंकुश लगाए रखना चाहती है।
देखा जाए तो भारतीय संविधान में भी कहीं कोलेजियम प्रणाली का जिक्र नहीं है। लेकिन अनुच्छेद 50 में यह अनिवार्य किया गया है कि न्याय पालिका को कार्यपालिका से प्रथक रखा जाए। संभवत: इसी वजह से यह विचार बना कि चंूकि खुद सरकार ही सबसे बड़ी मुकदमेबाज है, इसलिए न्यायाधीशों की नियुक्ति पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होना चाहिए और सरकार सहित हर वादी के साथ अदालतों को मामले के गुण-दोष के आधार पर फैसला लेना चाहिए। संविधान के बुनियादी ढांचेÓ के सिद्धांत का प्रतिपादन 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में किया गया था। हालांकि मोटे तौर पर इस बात पर सहमति थी कि कॉलेजियम व्यवस्था के तहत जिस तरह न्यायाधीशों की नियुक्तियां हो रही हैं, उसमें सुधार किया जाए और इसे ज्यादा पारदर्शी बनाया जाए.लेकिन प्रस्तावित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (जेएसी) न्यायिक नियुक्तियों में सरकार को सीधे तौर पर शामिल करता है और ख़ास परिस्थितियों में उसे वीटो करने का अधिकार देता है। संविधान, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच एक बारीक संतुलन निर्धारित करता है और न्यायपालिका की आजादी इसे बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है। इसके लिए जरूरी है कि वरिष्ठ न्यायपालिका में आजाद मन वाले या आत्मनिर्भर स्त्री-पुरुष हों। कॉलेजियम की कार्यशैली में पारदर्शिता की कमी की वजह से हमारी उंची अदालतों में भी कई ऐसे सदस्य हैं जो किसी न किसी वजह से पूरी तरह से स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं हैं। बहुत से न्यायाधीश पूरी तरह आत्मनिर्भर हैं और उन्हें किसी भी सरकारी प्रलोभन से डिगाया नहीं जा सकता। लेकिन कुछ न्यायाधीश ऐसे नहीं हैं, जैसा कि हाल ही में जस्टिस (रिटायर्ड) मार्कंडेय काटजू के दावों से पता चला है।
क्या था कोलेजियम
कोलेजियम पांच लोगों का समूह था। पांच लोगों में भारत के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीश हैं। कोलेजियम के द्वारा जजों के नियुक्ति का प्रावधान संविधान में कहीं नहीं था। दिल्ली उच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश एपी शाह की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट में नहीं होने के बाद यह व्यवस्था और भी महत्वपूर्ण ढंग से प्रकाश में आई है। कोलेजियम प्रणाली कैसे अस्तित्व में आई और इसे इतना असाधारण अधिकार कैसे मिला, जैसे सवाल सामने आ रहे हैं। कोलेजियम प्रणाली सुप्रीम कोर्ट के दो सुनवाई का परिणाम थी। पहला 1993 का और दूसरा 1998 का था। कोलेजियम बनाने के पीछे न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने की मानसिकता सुप्रीम कोर्ट की रही। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति के लिए संविधान में निहित प्रावधानों को दुबारा तय किया और जजों के द्वारा जजों की नियुक्ति का अधिकार दिया। हालांकि कोलेजियम व्यवस्था में नियुक्ति का सारा अधिकार मुख्य न्यायाधीश के हाथ सर्वोच्चता से न सौंप कर सभी पांच लोगों में समाहित किया गया था। कोलेजियम व्यवस्था नियुक्ति का सूत्रधार और नियुक्तिकर्ता भी खुद थी। इस संदर्भ में भारत के राष्ट्रपति एक औपचारिक अनुमोदक भर थे। कोलेजियम किसी व्यक्ति के गुण-कौशल के अपने मूल्यांकन के आधार पर नियुक्ति करता था और सरकार उस नियुक्ति को हरी झंडी दे देती थी। अपवाद में वह किसी अनुमोदन को लौटा सकती थी लेकिन दुबारा कोलेजियम द्वारा भेजे जाने पर नियुक्ति टालना मुश्किल है। जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका का अधिकार बिल्कुल नहीं था या था भी तो मामूली।

सरकार का वीटो
आयोग में छह सदस्य होंगे - भारत के मुख्य न्यायाधीश और उनके बाद उच्चतम न्यायालय के दो सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश, केंद्रीय कानून मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्ति जिन्हें प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के नेता चुनेंगे। आदर्श स्थिति तो यह होगी कि ये तीनों एकमत से दो प्रतिष्ठित लोगों को चुन लें, हालांकि कानून इस बेहद महत्वपूर्ण मुद्दे पर खामोश है। किसी वरिष्ठ न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति को नाम भेजने के लिए उसके पक्ष में पांच मत होने जरूरी हैं। अगर दो सदस्य किसी नाम का विरोध करते हैं तो उसे हटा दिया जाएगा। सरकार द्वारा रखे गए प्रस्ताव में, जिसे विपक्ष के दबाव में बदल दिया गया, कानून मंत्री को वीटो का अधिकार दिया गया था। वर्तमान कॉलेजियम सिस्टम के तहत, सरकार की सलाह पर काम कर रहे राष्ट्रपति को, न्यायपालिका में नियुक्ति के प्रस्तावित नाम पर मुख्य न्यायाधीश को पुनर्विचार करने के लिए कहने का अधिकार है। लेकिन अगर कॉलेजियम अपनी बात पर अड़ जाता है, पारंपरिक रूप से ऐसा एकमत से होना चाहिए, तब सरकार और राष्ट्रपति के पास उस व्यक्ति को न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता। इसमें एकमत होना एक महत्वपूर्ण सुरक्षात्मक कदम है क्योंकि सरकार को मना करना एक गंभीर काम है और कॉलेजियम के सदस्यों को इस मामले पर एकजुटता दिखानी होती है। सदन में रखे गए सरकारी प्रस्ताव के अनुसार जेएसी सिस्टम के तहत, एक बार सरकार फ़ाइल को पुनर्विचार के लिए भेज देती है तो एकमत होने पर आयोग राष्ट्रपति के फैसले को पलट सकता है। लेकिन जेएसी का एक सदस्य होने के नाते कानून मंत्री को भी वीटो हासिल होता है।
वह अपने मत के ज़रिए नियुक्ति को रोक सकता है क्योंकि उसके विरोध के चलते आयोग एकमत नहीं हो सकता। यह सच है कि जेएसी विधेयक को मनमोहन सिंह सरकार लाई थी और उसमें भी कानून मंत्री के सदस्य होने का प्रावधान था, लेकिन कम से कम उसे वीटो शक्ति नहीं थी। अगर जेएसी में सिर्फ न्यायाधीश और प्रतिष्ठित व्यक्ति होते, जिन्हें एकमत से मुख्य न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के नेता की समिति चुनती, तो न तो यह किसी भी तरह से कम पारदर्शी होता और न ही कम स्वतंत्र। साल 2010 में पूर्व केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस के मामले में फैसला देते हुए उच्चतम न्यायालय ने सीवीसी का चुनाव करने वाली उच्चाधिकार समिति के सदस्यों के बीच एकमत होने का जिक्र नहीं किया था, क्योंकि 2003 के कानून में इसका अलग से उल्लेख नहीं है। इसमें कहा गया था कि अगर मतभेद सामने आएं तो वह कार्रवाई में सच्चाई को प्रदर्शित करेंगे। यह भी कहा गया था कि इस मामले में न्यायिक समीक्षा का फायदा नहीं होगा क्योंकि इसमें कोई भी विवाद उठने पर उसमें मुख्य न्यायाधीश खुद भी एक पक्षकार होंगे।

कोलेजियम को क्यों बदलना चाहती है सरकार
द्य    1993 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही एक फैसले से कॉलेजियम सिस्टम कायम किया था। मगर इसके तहत नियुक्ति में भाई-भतीजावाद को बढ़ावा देने के आरोप लगातार बढ़ते चले गए।
द्य    कई कानूनविद और विशेषज्ञ देश की अदालतों में न्यायाधीशों की मौजूदा नियुक्ति प्रक्रिया (कॉलेजियम) को पारदर्शी और समावेशी नहीं मानते हैं।
द्य    हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति, न्यायाधीशों द्वारा करने की मौजूदा प्रणाली ने संरक्षणवाद और भ्रष्टाचार का रूप ले लिया है।
द्य    वर्तमान कॉलेजियम व्यवस्था में सिर्फ न्यायपालिका का बोलबाला है, इसमें कार्यपालिका का कोई दखल नही है।
द्य    जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने हाल ही में जजों की नियुक्ति में कॉलेजियम पर दबाव डालने की प्रक्रिया का खुलासा किया है।
द्य    संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप कहते हैं कि कॉलेजियम प्रणाली एक एक्स्ट्रा कांस्टीटय़ूशनलÓ यानी अपर संवैधानिकÓ प्रणाली है। इसे लेकर भारतीय संविधान में कोई प्रावधान नहीं है। यह उच्चतम न्यायालय की एक व्यवस्था है, जिसके पास जजों की नियुक्ति का पूरा अधिकार है।
द्य    सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश स्वर्गीय जेएस वर्मा समेत कई नामचीन न्यायविद कोलेजियम सिस्टम पर सवाल उठा चुके हैं।
द्य    कॉलेजियम की मौजूदा प्रक्रिया के
दोषपूर्ण होने की मिसाल कोलकाता
हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सौमित्र सेन और जस्टिस पीडी दिनाकरन
के मामले में  सामने आई। इन पर भ्रष्टाचार के आरोप में महाभियोग की प्रक्रिया भी चलाई गई।

न्यायिक सुधारों पर चर्चा करने के लिए आयोजित बैठक में प्रबल नजरिया यह रहा कि कोलेजियम प्रणाली को बदलने की जरूरत है।
अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी
न्यायाधीशों की नियुक्ति पर सुधार करने और इसे और पारदर्शी बनाने की जरूरत पर आमसहमति थी।
विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद
न्यायाधीशों की नियुक्ति की कोलेजियम प्रणाली ने उम्मीदों के मुताबिक काम नहीं किया है और नियुक्तियों में सरकार की भी भूमिका होनी चाहिए।
कपिल सिब्बल
उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियां गहन चर्चाÓ के बाद की जाती हैं।
न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर
कोलेजियम प्रणाली में किसी बदलाव की जरूरत नहीं है।
न्यायमूर्ति पी सदाशिवम
कॉलेजियम सिस्टम का समय पूरा हो गया है और इसे किसी अधिक पारदर्शी प्रक्रिया से बदले जाने की बेहद जरूरत है। लेकिन जेएसी विधेयक पारदर्शिता लाने के नाम पर चुपके से सरकार के लिए जगह बना रहा है।
मल्लिकार्जुन खडग़े
यदि कॉलेजियम प्रणाली असफल है तो हम सब असफल हैं।
जस्टिस आर.एस. लोढ़ा, मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट

इंदिरा के नक्शे कदम पर मोदी
कभी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तीन वरिष्ठ जजों को सुपरशीड करते हुए अपने पसंदीदा व्यक्ति को चीफ जस्टिस नियुक्त किया था। लेकिन उसके बाद कोलेजियम प्रणाली अस्तित्व में आ गई। अब मोदी सरकार ने जो व्यवस्था की है उसे बदलने में आसानी नहीं होगी क्योंकि कार्यपालिका को एकजुट होकर ही कोई बदलाव करना संभव होगा।

जब नियुक्ति की बात आती है तो सब भले रहते हैं, लेकिन बाद में जुगाड़ पद्धति चलती है। संविधान में न्यायपालिका को स्वतंत्र बताया गया है। उसका पैसा भी राज्य के खजाने से नहीं आता। बहरहाल हमें उम्मीद रखनी चाहिए कि जो बदलाव हुआ है उसके बाद ईमानदार और योग्य जजों की नियुक्ति होगी।
- जस्टिस गुलाब गुप्ता
न्यायपालिका के विषय में जो घटनाएं इन दिनों सुनाई पड़ रही हैं उससे न्यायपालिका में जनता का विश्वास डिगा है। न्यायिक पदों पर योग्य और ईमानदार व्यक्तियों को चुना जाना चाहिए। इसके लिए कोलेजियम भले ही न हो लेकिन एक ऐसी प्रणाली होनी चाहिए जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के न्यायविदों की राय ली जाए।
-रघु ठाकुर

 

 

Rajendra Agal

 

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