25-Aug-2014 10:13 AM
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आजम खान कोप भवन में हैं। उनकी नाराजगी भी जायज है। जिस अमर सिंह नामक कांटे को उन्होंने बमुश्किल दबाव बनाते हुए यादवी कुनबे से दूर कराया था वही अमर सिंह अब मुलायम के साथ

अपनी मित्रता को अमर करने में जुट गए हैं। उधर शिया वक्फ बोर्ड के चुनाव रद्द किए जाने से भी आजम खान और मुलायम की अजीम दोस्ती को धक्का पहुंचा है। आजम तो इतने नाराज हुए कि वे मुख्यमंत्री आवास पर उर्दू अकादमी के पुरस्कार समारोह में भी नहीं पहुंचे जिसकी उन्हें अध्यक्षता करनी थी।
दरअसल, वक्फ बोर्ड के चुनाव आज़म खान और शिया धर्मगुरु कल्बे जव्वाद के बीच वर्चस्व की लड़ाई बने हुए थे। आजम शिया वक्फ बोर्ड के चुनाव कराने के पक्ष में थे, लेकिन कल्बे जव्वाद इसके खिलाफ थे। जब नामांकन पत्र दाखिल होने थे तो यूपी सरकार ने चुनाव रद्द करने का फरमान सुना दिया। आजम शिया वक्फ बोर्ड में चुनाव कराने की अपनी बात पर कायम थे। उन्होंने कहा था कि इस बार किसी भी कीमत पर चुनाव होंगे। आजम की सख्ती कम नहीं हुई तो कल्बे जव्वाद ने मुलायम सिंह से मुलाकात की और फिर उनके हस्तक्षेप के बाद यूपी सरकार घुटनों पर आ गई। वक्फ मंत्री आजम खान ने चुनाव रद्द होने की खबर आते ही शिया धर्मगुरु कल्बे जव्वाद पर निशाना साधा । उन्होंने बिना किसी का नाम लिए कहा कि आरएसएस का प्रचार करने वाला इस्लाम के नाम पर कलंक तो हो सकता है, लेकिन धर्मगुरु नहीं हो सकता। यह धर्मगुरु आरएसएस और यहूदियों का एजेंट है। सामने उपचुनाव हैं। मुलायम चाहते हैं कि इस चुनाव में पूरी ताकत लगाई जाए। वह किसी भी वर्ग को अभी नाराज करने के मूड में नहीं हैं। यही वजह है कि कल्बे जव्वाद से मिलने के बाद आजम खान की इच्छा के विपरीत जाकर चुनाव रद्द करने का फैसला लिया। नाराजगी के बजाय नए दोस्त बनान ज्यादा फायदेमंद है इसलिए मुलायम सिंह और अमर सिंह की निकटता बडऩे लगी है। समाजवादी पार्टी के दिग्गज नेता जनेश्वर मिश्र की स्मृति में बनाए गए पार्क के लोकार्पण समारोह के लिए जब अमर सिंह को न्यौता भेजा गया तो वे इस अंदाज में चले आए मानो आने के लिए तैयार ही बैठे थे। मंच पर उन्हें मुलायम के छोटे भाई शिवपाल यादव के बाजू में जगह मिली और अमर सिंह ने भी यह कहकर अपने आप को हल्का किया कि वे व्यक्तिगत रूप से मुलायम सिंह यादव को जीवन भर नहीं छोड़ेंगे लेकिन राजनेता के तौर पर मुलायम से विरोध जारी रहेगा। अमर सिंह का रिकार्ड है कि वे जो कुछ बोलते हैं उसका उल्टा एक माह के भीतर कर दिखाते हैं। इसलिए जानकार मान रहे हैं कि एक माह के भीतर अमर सिंह की सपा में वापसी हो सकती है। वैसे भी सपा हो या चौधरी अजीत सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल दोनों की हालत उत्तरप्रदेश में दयनीय हो गई है इसलिए दोनों का साथ आना लाजमी है। उधर ठाकुर वोट अब भी अमर सिंह के प्रभाव में हैं इसलिए मुलायम चाहते हैं कि अमर पार्टी में वापस लौटें। अमर के आने के साथ ही उद्योग जगत से मुलायम के रिश्ते फिर मजबूत हो सकते हैं। लेकिन इस दोस्ती में सबसे बड़ा अड़ंगा आजम खान हैं कभी आजम खान ने अमर सिंह को दलाल भी कह डाला था। इसलिए आजम खान अमर सिंह को कितना बर्दाश्त करेंगे कहना मुश्किल है। अमर सिंह समाजवादी पार्टी से कभी न निकाले जाते क्योंकि वे मुलायम सिंह यादव के बहुत ही करीबी हैं लेकिन उनसे बहुत सारी रणनीतिक गलतियाँ हो गयीं। हुआ यह था कि अमर सिंह ने भी अपनी हैसियत को बहुत बढ़ा कर आंक रखा था. यह उनकी गलती थी। दिल्ली की राजनीति में कोई भी बहुत ताक़तवर नहीं होता. इसी दिल्ली में मुग़ल सम्राट शाहजहाँ को उसके बेटे औरंगजेब ने जेल की हवा खिलाई थी। बाद के युग में इंदिरा गाँधी के दरबार के बहुत करीबी लोग ऐसे मुहल्लों में खो गए थे जहां कोई भी ताक़तवर आदमी जाना नहीं चाहेगा। दिनेश सिंह एक बार जवाहरलाल नेहरू के करीबी हुआ करते थे, इंदिरा जी के ख़ास सलाहकार थे और बाद में राज नारायण समेत बहुत सारे लोगों के दरवाजों पर दस्तक देते देखे गए थे। वामपंथी रुझान के नेता चन्द्रजीत यादव की हनक का अंदाज़ वह इंसान लगा ही नहीं सकता जिसने सत्तर के दशक के शुरुआती वर्षों में उनका जलवा नहीं देखा. चंद्रजीत यादव इंदिरा गांधी के दरबार में जो चाहते थे वही होता था, बाद में राजनीतिक शून्य में कहीं बिला गयी थे. कभी बाबू जगजीवन राम की मर्जी को इंदिरा जी अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार करती थीं, बाद में वे ही उनके सबसे बड़े दुश्मन हुए।