25-Aug-2014 10:09 AM
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3 जनवरी 2010 को जब तिरुवनंतपुरम में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने साइंस कांग्रेस में बढ़ती जनसंख्या के परिप्रेक्ष्य में बायो तकनीक के व्यापक उपयोग पर जोर दिया था तो लग रहा था

कि भारत कहीं न कहीं इस दिशा में तेजी से काम कर रहा है। भारत दुनिया के उन देशों में है जहां जनसंख्या बेतहाशा बढ़ रही है इसलिए ऐसी फसलों की आवश्यकता महसूस हो रही है जो प्रति हेक्टेयर अधिकाधिक उत्पादन देने के साथ-साथ अनुवांशिक रूप से इतनी मजबूत हों कि फसल में लगने वाले कीड़े और सूक्ष्म जीवों का मुकाबला कर सकें। लेकिन ऐसी फसलों के दुष्प्रभाव पर अभी व्यापक अध्ययन बाकी है इसीलिए जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रुवल समिति ने सुरक्षित घेरे में धान, बैंगन, मटर, सरसों और कपास की खेती के परीक्षण के 15 प्रस्तावों को मंजूरी दी थी। केंद्र सरकार ने स्वदेशी जागरण मंच के विरोध के चलते 15 जेनेटिकली मॉडीफाइड (जीएम) फसलों के परीक्षण पर फिलहाल रोक लगा दी है। भारतीय किसान संघ के प्रतिनिधिमंडल ने केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर से बातचीत कर इन सभी फसलों में जीएम बीजों के जमीनी परीक्षण को रोकने की मांग की थी। इस प्रतिनिधि मंडल ने इस प्रक्रिया को खतरनाक बताते हुए कहा था कि जीएम फसलों के वैज्ञानिक मूल्यांकन से पहले इसे अनुमति देना फायदेमंद नहीं है। पर्यावरण मंत्रालय ने इस मामले में सफाई देते हुए कहा है कि फसलों के जमीनी परीक्षण का फैसला सरकार का नहीं बल्कि समिति का था।
जीएम फसलों को लेकर विरोध को देखते हुए जेनेटिक इंजिनियरिंग एप्रुवल समिति बनाई गई थी। जीएम फसलों पर विवाद काफी पुराना है। इसका पक्ष लेने वालों का कहना है कि इससे फसलों का उत्पादन बढ़ेगा, लेकिन इसकी खिलाफत करने वालों का मानना है कि दूसरी फसलें इसकी वजह से बर्बाद हो जाएंगी। सवाल यह है कि जब सुरक्षित घेरे में परीक्षण किया जा रहा है तो आपत्ति क्या है? लेकिन उससे बड़ा सवाल यह है कि सरकार को जीएम फसलों के उत्पादन को अनुमति देने की क्या आवश्यकता है? जितना फसलों का उत्पादन भारत में हो रहा है उसका ही यथोचित वितरण नहीं हो पाता है। हर वर्ष बम्पर पैदावार होती है और 10-15 प्रतिशत अनाज बेकार हो जाता है उधर फल और सब्जियां भी 25 प्रतिशत के करीब बेकार हो जाती हैं। इस समस्या का समाधान तलाशे बगैर और अधिक उत्पादन का लक्ष्य तय करना और उसके लिए जीएम फसलों को अनुमति देना कहां की बुद्धिमानी है। जो उत्पादन हो रहा है वह कम से कम नष्ट हो और जरूरतमंदों तक पहुंच सके इसका व्यवस्थापन सरकार द्वारा क्यों नहीं किया जाता? जो जीएम या उन्नत किस्म के बीज उत्पादक कम्पनियां हैं वे बड़े पैमाने पर भारत में लॉबिंग कर रही हैं ताकि भारतीय देशी बीज पूरी तरह नष्ट होकर हम इन कम्पनियों द्वारा उत्पादित बीजों पर निर्भर हो जाएं। हाल ही में मध्य प्रदेश में एक कृषक महिला ने आत्महत्या कर ली थी क्योंकि उसे जो बीज दिया गया था वह अंकुरित नहीं हुआ। अखबार के पन्ने पर किसी कोने में यह खबर दफन हो गई लेकिन इस खबर के साथ एक भयानक सच्चाई भी सामने आई थी जिससे हमारी सरकार ने मुंह मोड़ लिया। महाराष्ट्र में बीटी कॉटन या कपास किसानों की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण बन गया है। इस फसल के कारण जमीन जहरीली हो गई है और पानी अधिक लगने से भू-जल स्तर खतरनाक तरीके से नीचे पहुंच गया है। कुछ इलाकों में तो जमीन के नीचे पानी ही नहीं है। जिससे हताशा में किसान अपनी फसलों को सूखते देख फांसी के फंदे पर लटक रहे हैं। वर्ष 2010 में ही नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज ने सरकार को सुझाव दिया था कि देश को अनुवांशिक विविधता बचाए रखना चाहिए क्योंकि यह प्रकृति द्वारा लाखों वर्षों में संचित की गई भेंट है इसे यूं ही नष्ट नहीं किया जा सकता। लेकिन भारत में एक तरह से बीटी उत्पादों को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा है जबकि यूरोप में बीटी उत्पादों को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया है। हालांकि गरीब देशों में और दुनिया के कुछ अन्य भागों में लगभग 28 करोड़ एकड़ जमीन पर जीएम फसलें उगाई जा रही हैं। जिस तरह इसका विरोध हो रहा है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि देर-सवेर दुनिया इसके विरोध में उठ खड़ी होगी। तब तक हम कितने परंपरागत बीजों को नष्ट कर चुके होंंगे, कहा नहीं जा सकता।